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स्त्रियों का भी अपना आकाश है

  • Writer: Madhav Hada
    Madhav Hada
  • Jul 23
  • 12 min read

पुतली ने आकाश चुराया । माधव हाड़ा । राजपाल एंड सज़, दिल्ली । 2024

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संकलन में भारतीय कथा-आख्यान परंपरा की आठ मध्यकालीन रचनाओं का हिंदी कथा रूपांतर है। ख़ास बात यह है आठवीं से सत्रहवीं सदी के बीच लिखे गए इन आख्यानों में स्त्रियाँ केंद्रीय चरित्र हैं। ये स्त्रियाँ अपनी प्रकृति में एकरूप और एकरैखिक नहीं हैं- ये अलग-अलग प्रकृति की स्त्रियाँ हैं, जिनकी अपनी अलग-अलग आकांक्षाएँ, इच्छाएँ, संकल्प और कार्य-व्यवहार हैं।  लगभग दस शताब्दियों के दौरान अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग सामाजिक-सांस्कृतिक और ऐतिहासिक ज़रूरतों के तहत अस्तित्व में आए इन आख्यानों की स्त्रियों का यह वैविध्य बहुत स्वाभाविक है। अकसर मध्यकालीन साहित्य की स्त्रियों को निष्क्रिय इकाइयाँ मान लिया जाता है, लेकिन यह भ्रांति है। ये स्त्रियाँ सर्वथा निष्क्रिय नहीं हैं- ये कुछ हद तक सक्रिय इकाइयाँ हैं, जो

विख्यात कथाकार काशीनाथ सिंह

खुलकर अपने सुख-दुःख, इच्छा और भावनाओं को व्यक्त करती हैं। अपने जीवन के निर्धारण में इनकी अपनी भूमिका बहुत निर्णायक है- ये अकसर अपने निर्णय ख़ुद लेती हैं और उनको अमल में लाने के लिए प्रयत्नशील भी रहती हैं। पुरुषों के साथ इनका संबंध भी एकरूप नहीं है। यहाँ वे माँ, पत्नी, बहन, प्रेयसी, रानी आदि सभी भूमिकाओं में हैं, लेकिन पुरुषों के साथ उनका संबंध सदैव समर्पण, प्रेम और निष्ठा का नहीं है। जहाँ ज़रूरत हैं, वे इनमें पुरुषों के साथ द्वंद्व के संबंध में भी हैं। 

1.

भारत में कथा-आख्यान की परंपरा बहुत समृद्ध और प्राचीन है। भारतीय कविता और इतिहास का भी कई तरह से इस परंपरा के साथ हमेशा गहरा और निरंतर संबंध रहा है। अपने समय की सांस्कृतिक-धार्मिक और ऐतिहासिक ज़रूरतों के तहत इसमें कई रद्दोबदल भी हुए, लेकिन ‘चित्त विनोद’ से इनका नाता हमेशा बना रह। उपदेश की सीमा तक बदल के जाने के बावजूद भी इनमें रोचकता हमेशा बनी रही। वेदों में कथा-आख्यान की मौजूदगी नाराशंसी, आख्यान, गाथा आदि कई रूपों में मिलती है। वेदों के कथा-आख्यानों के बीज रूपों का बाद में सदियों तक भारतीय साहित्य में विस्तार और पल्ल्वन होता रहा। कथा-आख्यान ब्राह्मण ग्रंथों में आकर वैविध्यपूर्ण हुए। बाद में यह परंपरा महाभारत, रामायण आदि के रूप में स्वतंत्र रूप में विकसित हुई। ईसा पूर्व की पहले सदी में वृहत्कथा की रचना के इस परंपरा के विकास का चरमोत्कर्ष था। गुणाढ्य की पैशाची प्राकृत में लिखी गयी यह रचना सदियों तक भारतीय कथा-आख्यानों के लिए खाद-पानी का काम करती रही। यह रचना बाद में अनुपलब्ध हो गयी, लेकिन संस्कृत और परवर्ती भाषाओं में इसके कई रूपांतर हुए। क्षेमेंद्र की बृहत्कथामंजरी, सोमदेव का कथासरित्सागर और बुधस्वामी का बृहत्कथाश्लोकसंग्रह, संघदास गणि की वासुदेवहिण्डी आदि वृहत्कथा पर निर्भर रचनाएँ हैं। पंचतंत्र, हितोपदेश, वेतालपंचविंशति आदि की कथाएँ भी इसी से ली गयी हैं। वृहत्कथा ने प्राकत, अपभ्रंश और परवर्ती देश भाषाओं की कथा-आख्यान परंपरा और लोक साहित्य को भी इस रचना ने बहुत गहरे और दूर तक प्रभावित किया। गुणाढ़्य को हमारी परंपरा में व्यास और वाल्मीकि के बराबर दर्ज़ा दिया गया है। मध्यकाल में भी यह कथा-आख्यान परंपरा कई रूपों में मिलती हैं।


संकलित आख्यानों में से पहला आख्यान कुवलयमाला सबसे पुराना है, जो 779 ई. में जालोर, राजस्थान में लिखा गया। इस रचना में जैन धार्मिक आग्रह आद्यंत है, लेकिन इसकी कथा योजना इस तरह की है कि यह आपको निरंतर बाँधे रखती है। भारतीय कथा-आख्यान की कथा विस्तार, कथा में कथा, दृष्टांत, अतिमानवीय और लौकिक में निरंतर आवाजाही, कथा में अंतर्नियोजित संदेश जैसी सभी विशेषताएँ इसमें मिलती हैं। यह ‘कथा में कथा’ और ‘कथा से कथा’ की पद्धति से बुनी और गढ़ी गयी रचना है, जो आपको एक सम्मोहक भूल-भूलैया में खींच ले जाती है। बीसलदेवरास की रचना नरपति नाल्ह ने 1215 ई. में की। कुछ विद्वानों के अनुसार यह हिंदी का पहला काव्य है, लेकिन इसकी रोचक और सरस कथा के संबंध में कम लोग जानते हैं। यह एक ‘स्वस्थ प्रणय’ की कथा है। यह अजमेर के चौहान राजा बीसलदेव (विग्रहराज) के मालवा के परमार राजा भोज की पुत्री राजमती से विवाह, फिर उसके रूठकर बारह वर्ष के लिए उड़ीसा चले जाने और इस कारण रानी के उससे वियोग की रोचक और सरस प्रेम गाथा है। यह धार्मिक आग्रह से मुक्त एक लोक रचना है। इसकी नायिका राजमती मध्यकालीन स्त्री नायिकाओं में सबसे मुखर और तेजस्वी है। वह पुरुष राजा के साथ द्वंद्व के संबंध में है। वह अपने स्त्री होने की असहायता और दैन्य से दुःखी और आहत है, लेकिन अपनी व्यंग्योक्तियों से अपने राजा पति से दो-दो हाथ भी करती है। आख्यान में विरह, ऋतु और वस्तु वर्णन आदि सब हैं, लेकिन राजमती का चरित्र इन सबसे ऊपर और अलग दिखता है। वह पुरुष को उसके पुरुषत्व के दंभ के लिए बुरा-भला कहने में भी संकोच नहीं करती। सदियों से लोक के श्रुत और स्मृत में जीवंत रहने वाले आख्यान ढोला मारू रा दूहा की रचना अनुमान के अनुसार 1443 ई. के आस-पास कहीं पश्चिमी राजस्थान में हुई। रचना में ढोला और मारवणी की प्रेमकथा है। आख्यान में कुछ हद तक इतिहास की एक अंतर्धारा भी है। आख्यान की नायिका बाल विवाहिता मारवणी है। वह अपने पति को पाने के लिए अपने माता-पिता के साथ ख़ुद भी प्रयत्नशील है। यह राजस्थान की लोक संस्कृति का जीवंत दस्तावेज़ है। यहाँ की ऋतुएँ, वनस्पतियाँ, नदी-नाले, पशु-पक्षी आदि इस रचना में बहुत ख़ूबसूरती से पिरोये गये हैं। रयणसेहरनिवकहा की रचना 1430 ई. में जिनहर्ष गणि ने चित्तौड़गढ़ में की। यह जैन धार्मिक रचना है, लेकिन इस कारण इसकी कथा और चरित्र योजना बाधित नहीं है। यह रचना मलिक मुहम्मद जायसी कृत पद्मावत (1540 ई.) का पूर्वरूप कही-समझी जाती है, लेकिन यह  उससे अलग भी है। रचना उपदेशात्मक है, लेकिन यह इस तरह से बुनी-गढ़ी गयी है कि इसको पढते-सुनते हुए पाठक-श्रोता का पहला ध्यान इसकी कथा पर ही रहता है। व्रतोपवास, पूजा, पौषध आदि जैनधार्मिक आचारों से होने वाले लाभ और धर्मविरुद्ध आचरण से होनेवाले नुक़सान को कथा के माध्यम से चरितार्थ किया गया है। यह बहुत रोचक और बाँधने वाली कथा है। कथा में उपकथाओं के सघन नियोजन की भारतीय कथा पद्धति की विषेशता को यहाँ ख़ास तौर पर अलग से देखा जा सकता है। आख्यान की नायिका रत्नवती पुरुषद्वेषी के रूप में ख्यात है और बाद में वह अपनी शर्तों पर राजा रत्नशेख़र से विवाह करती है। कन्हावत (1540 ई.) मलिक मुहम्मद जायसी की अल्पचर्चित, लेकिन बहुत महत्त्वपूर्ण रचना है, जो कृष्ण कथा पर आधारित है। जायसी के रचना कर्म में पद्मावत की वर्चस्वकारी मौजूदगी के कारण इसकी चर्चा हिंदी में नहीं के बराबर हुई। कन्हावत की कृष्ण कथा का स्रोत कुछ हद तक पौराणिक है, लेकिन यह कथा पुराणों से हटकर भी है। लोक में प्रचलित कृष्ण कथा के कई प्रकरण भी इसमें शामिल हैं। कन्हावत की कृष्ण कथा प्रचलित से कुछ हद तक अलग और रोचक है और इसमें सूफ़ी संकेत बहुत पारदर्शी नहीं है। जायसी के भारतीय सूफ़ी आख्यान पद्मावत की रचना 1540 ई. में हुई। यह सूफ़ी प्रेमकथात्मक महाकाव्य है। इस्लाम के सूफ़ी मत में भक्त अपने को आशिक़ और भगवान को माशूक़ समझकर उसको पाने के लिए साधना करता है। सूफ़ी यह भी मानते हैं कि भक्त और भगवान के संबंध में गुरु के मार्गदर्शन और सहयोग की भी निर्णायक भूमिका होती है और शैतान (माया) इसमें बाधा बनता है। संबंधों का यही रूपक पद्मावत में जायसी ने इस्तेमाल किया गया है। पद्मिनी संबंधी कथानक पर ही जायसी की पद्मावत की रचना के 48 वर्ष बाद 1588 ई. में बड़ी सादड़ी, राजस्थान में लिखे गई गोरा बादल पद्मिणी चउपई नामक जैन रचना पद्मावत से भिन्न और उससे सर्वथा अप्रभावित है। हेमरतन की गोरा-बादल पदमिणी चउपई अज्ञात कवि कृत गोरा-बादल कवित्त के बाद राजस्थान में लिखी गई पद्मिनी विषयक रचनाओं में सबसे प्राचीन है। यहाँ कथा रत्नसेन-पद्मिनी  विवाह और रत्नसेन को अलाउद्दीन ख़लजी के क़ैद मुक्त करवाने की गोरा-बादल की मुहिम पर आधारित है। हेमरतन अपने समय का प्रसिद्ध यति और कवि था और उसकी इस रचना की विषय वस्तु कुछ हद तक ऐतिहासिक है। संकलन का अंतिम आख्यान नरसीजी रो माहेरो राजस्थान-गुजरात के लोक में प्रचलित एक जनश्रुति का कथा विस्तार है। ऐसा प्रसिद्ध है कि भक्त नरसी मेहता की बेटी नानीबाई (कुँवरबाई) का माहेरा (भाई द्वारा बहन की संतान के विवाह के अवसर पर दिया गए आभूषण और वस्त्रादि) भगवान कृष्ण ने भरा। कथा का आधार यही जनश्रुति है और लोक में अलग-अलग समय और लोगों ने अपनी ज़रूरतों के अनुसार इसको केंद्र रखकर इस कथा को विकसित और विस्तृत किया। 

2.

संकलित सभी आख्यानों की कथा के संग़ठन और विकास में स्त्रियों की भूमिका केंद्रीय और निर्णायक है। कुवलयमाला धार्मिक चरित्र है, इसलिए वह पूर्ण स्वायत्त और स्वतंत्र चरित्र नहीं है। राजमती आम मध्यकालीन स्त्रियों से कुछ हद तक अलग है। राजमती अपने स्त्री होने की असहायता और दैन्य को जानती है। वह एक जगह कहती है- “अस्त्रीय जनम काइं दीधउ महेस / अवर जनम थारह घणा रे नरेस / रानी न सिरजीय रोझड़ी / घणह न सिरजीय धउलीय गाइ। / वनषंड काली कोइली / हउं बइसती अंबा नइ चंपा नइ डाल भखती बिजोरडी / इण दुख झूरइ अबला जी बाल।” अर्थात् हे महेश! आपने स्त्री का जन्म मुझे क्यों दिया? हे नरेश! और भी जन्म देने के लिए आपके पास कई थे। आपने मुझे घने जंगल में नीलगाय क्यों नहीं बनाया। आपने मुझे घने जंगल में सफ़ेद गाय भी नहीं बनाया। न मुझे वन प्रदेश में काली कोयल बनाया कि मैं आम और चंपा की डालों पर बैठती और अंगूर और बिजोरी (फल) खाती। यह अबला स्त्री इन दुःखों से झूर रही है। रत्नवती के लिए भी व्याकुल पुरुष है। आख्यान के अंत में स्त्री-पुरुष में श्रेष्ठता की बहस में वह पुरुषों के संबंध में स्त्रियों में प्रचलित धारणा अपनी सखी के माध्यम से सबके सामने रखती है। वह कहती है कि– “लक्ष्मीप्रभुत्वबलयौवनदर्प भाजः सल्लोलकनिन्दनपराः परमार्थशून्याः। / देवान् गुरुनपि कुलक्रमात्मनश्च क्र्राशययाः कुपुरुषा गणयंति नैव॥” अर्थात् धन, प्रभुता, बल और यौवन के दंभ में, सज्जनों की निंदा करने वाले परमार्थशून्य क्रूर पुरुष देव, गुरु, कुल परंपरा और आत्मा को कुछ नहीं समझते। ढोला मारू रा दूहा की दोनों नायिका स्त्रियों- मारवणी और मालवणी की स्थितियाँ अलग-अलग हैं। मालवणी का आग्रह विवाहित स्त्री का आग्रह है, जबकि मारवणी का विवाहित होते हुए भी आग्रह प्रेयसी का है। दुःखी दोनों हैं और दोनों अपनी व्यथा खुलकर कहती हैं। मारवणी बाल विवाहिता है। उसका दुःख उसके पति द्वारा विवाह कर उसको भूल जाने और इस तरह छोड़ दिए जाने का है। वह एक जगह कहती है- “हूँ कुँमलाणी कंत बिण, जलह बिहूँणी बेल! / बिणजारा री भाइ जिऊँ, गया धुकंती मेल्ह।” अर्थात् मैं स्वामी के वियोग में जल विहीन लता की तरह मुरझा गयी हूँ। मेरा प्रिय मुझे बणजारे की भट्टी की तरह धधकता हुआ छोड़कर हुआ चल गया है। मालवणी की व्यथा अलग है- उसका विवाहित पति अन्य स्त्री के लिए व्यग्र है। यह जानकर कि उसका पति अन्य स्त्री के पास जा रहा है, उसकी हालत बहुत ख़राब हो जाती है। उसके संबंध में कहा गया है कि- “माळ्वणी कउ तन तप्यउ, विरह पसरियउ अंगि। / ऊभी थी खडहड़ पड़ी, जाणे डसी भुयंगि।” अर्थात् यह सुनते ही मालवणी का शरीर तप गया। वह धड़ाम से ज़मीन पर गिर पड़ी, जैसे साँप ने उसको डस लिया हो। कन्हावत में राधा और चंद्रावली दो स्त्रियाँ हैं और कृष्ण इन दोनों पर आसक्त हैं। कृष्ण पर वर्चस्व के लिए दोनों में प्रतिस्पर्धा है। राधा अधिक मुखर है- वह कृष्ण के चतुरतापूर्वक दान (कर) माँगने पर साफ़ कहती है कि- “तुम्ह अकेल दोइ सहस गुवारीं। मार जाँहि का चलै तुम्हारीं॥ / मागने न होइ दही औ पानी। कौन दान तुम्ह माँगो दानी॥” अर्थात् तुम अकले हो और हम दो हज़ार ग्वालिनें हैं। हम तुम्हें मारकर चली जाएँ, तो तुम क्या कर सकते हो। दही और पानी पर कोई कर नहीं होता। तुम कौन-सा कर माँग रहे हो?

जायसी का पद्मावती का चरित्र सूफ़ी आख्यान में बुना हुआ है, लेकिन स्त्री की इच्छाएँ और संकल्प इसमें भी हैं। पद्मावती नागमती के साथ विवाद में अपना पक्ष आग्रहपूर्वक रखती है। वह कहती है कि – “हौं पदमिनि मानसर केवा। भँवर मराल करहिं मोरि सेवा॥ / पूजा-जोग दई हम्म गढी। मुनिं महेस के माथे चढी॥ / जानै जगत कँवल कै करी। तोहि अस नहिं नागिनि बिष-भरी॥”  अर्थात् मैं पद्मिनी मानसरोवर की कमलिनी हूँ। भौंरे और हंस मेरी नित्य सेवा करते हैं। विधाता ने मुझे पूजा योग्य बनाया है। मैं महेश और मुनियों के सिर पर चढ़ती हूँ। मुझे सारा संसार कमल की कली की तरह जानता है। मैं तेरी तरह विषभरी नागिन नहीं हूँ। आख्यान की सहनायिका स्त्री नागमती विवाहिता है। उसका कष्ट इस आख्यान में बहुत मुखर होकर सामने आता है। वह कहती है कि- “पिउ जो गए पुनि कीन्ह न फेरा ॥ / नागर काहु नारि बस परा। तेइ मोर पिउ मोसौं हरा॥ / सुआ काल होइ लेइगा पीऊ। पिउ नहिं जात, जात बरु जीऊ॥” अर्थात् प्रिततम जो गए, तो लौटकर नहीं आए। वे किसी नागर स्त्री के फेर में पड़ गए हैं। उसने मोहित करके उनका चित्त मेरी ओर से हर लिया है। तोता काल बनकर प्रियतम को ले गया। वह उनको नहीं, मेरे प्राण ले जाता। पद्मिनी का हेमरतन का चरित्र अधिक मानवीय है। वह अपने को अलाउद्दीन को सौंपने के सामंतों के निर्णय से बहुत दुःखी है। वह कहती है कि- “सीता बाहर रामचंद्र कीइ, द्रुपदी हरि लेइ पाँडुवा दीइ। / पदमिणी असुराँ छुटइ नहीं रे! रे! जीव मरण तुझ सही।” अर्थात् रामचंद्र ने सीता को बाहर कर दिया, द्रौपदी को पांडवों ने दे दिया। पद्मिनी भी असुरों से नहीं छूटेगी। हे जीव ! मृत्यु का वरण ही तेरे लिए सही है। चउपई की सहनायिका स्त्री प्रभावती रत्नसेन की पहली विवाहिता है और स्वाभिमानिनी भी है। वह राजा के उसके बनाए भोजन को स्वादहीन कहने पर नाराज़ हो जाती है और तत्काल कहती है कि- “परणउ काइ जई पदमिणी, ते जिम भगति करइ तुम्ह तणी। अम्हें जिमाड़ी जाणा नहीं।” अर्थात् किसी पद्मिनी से विवाह कीजिए, जो आपकी भक्ति करेगी। मुझे तो भोजन कराना आता नहीं है। नानीबाई भी मुखर चरित्र है। वह अपने पिता को संदेश देती है कि माहेरा लेकर ही आना और नहीं लाओ, तो मत आना। वह कहती है कि- “म्हारी तो सासूजी ने माहेरा री बड़ी खांत। माहेरो जुड़ेदो लेकर आज्यो भली भांत। इतरो संदेशो म्हारो कह दीज्यो जोसी। माहेरा बिना थारी हांसी होसी।” अर्थात् मेरी सास को माहेरा की बड़ी उत्सुकता है और इच्छा है, इसलिए माहेरा सबको अच्छा लगने वाला ही लाना। हे जोशी ! इतना संदेश मेरे पिता को देना कि माहेरा के बिना तुम्हारी हँसी होगी। माहेरा में खाली हाथ आने पर वह अपने पिता नरसी मेहता से कहती है कि- “माकूं लजावण आए पिताजी। मायड़ होय तो भरे माहेरो के मायड़ को जायो ही। भरी सभा में करी उजैलो राखै मान सवायो हो।” अर्थात् हे पिताजी! आप मुझे लज्जित करने आए हैं। माँ होती या भाई होता, तो वह माहेरा लाता और भरी सभा में मेरा मान भी रखता और इसको सवाया भी करता।

3.

ये रचनाएँ पूरी तरह झूठ और गल्प नहीं हैं। इनके गल्प में इतिहास भी यहाँ-वहाँ अटका हुआ है, जैसा कि प्रायः भारतीय कथा-आख्यानों में होता है। विख्यात सूफ़ी आख्यानकार और कवि मलिक मुहम्मद जायसी की एक पंक्ति है- “कोई न रहा जग रही कहानी।” यह पंक्ति मनुष्यता के इतिहास का सार है। हम अतीत को स्मृति में खोजते हैं, उसको फिर रचने का दावा करते हैं, लेकिन सही तो यह है कि अतीत अंततः ‘कहानी’ होता है। ऐसी कहानी, जिसको हम अपने विवेक, इच्छा और रुचि के अनुसार गढ़ते-कहते हैं। एक ही कहानी को हम अलग समय और अलग समाज में उसकी जरूरत के अनुसार अलग-अलग तरह से कहते हैं। कहानी इसीलिए झूठ नहीं होती, उसमें में भी जीवन ही होता है- ऐसा जीवन जो हमारी इच्छाओं और ज़रूरतों का जीवन है। संकलित आख्यानों का जीवन हमारी इच्छाओं और ज़रूरतों का जीवन भी है। दरअसल संकलित कथा-आख्यान ‘जीवन’ और ‘झूठ’ की बहुत ख़ूबसूरत जुगलबंदी हैं। संस्कृत और उसके समानांतर विकसित प्राकृत, अपभ्रंश और देश भाषाओं में भारतीय कथा और आख्यान परंपरा यह कई तरह से फलती-फूलती रही है। औपनिवेशिक शिक्षा और संस्कार के कारण हमने अपनी इस कथा परंपरा से ‘झूठ’ और ‘कल्पित’ की श्रेणी में रखकर अनदेखा कर रखा है। ख़ासतौर पर प्राकृत, अपभ्रंश और देश भाषाओं की इस परंपरा की रचनाओं से हम लगभग अपरिचित हैं। हमारी आधुनिक कथा परंपरा में तो इसका कोई संस्कार और स्मृति तक नहीं है।

भारत में कथा की स्वायत्त परंपरा है, लेकिन इतिहास को कथा का रूप देकर ऐतिहासिक कथा-काव्य की रचना की भी यहाँ लंबी और समृद्ध परंपरा है। भारतीय कथा परंपरा की शुरुआत ही ऋग्वेद में ऐतिहासिक कथा संकेतों से हुई। भारतीय मनीषा और चित्त, जो अतीत है या जो बीत गया है, उसको पूरी तरह यथार्थ की तरह रचने का दावा नहीं करता। वह यह जानता है कि अतीत, मतलब जो घट गया, उसका बाद में दिया गया कोई विवरण प्रत्यक्ष और आनुभविक होने पर भी पूरी तरह यथार्थ नहीं हो सकता। यथार्थ का ऐसा विवरण लेखक के आग्रह, रुचि, विचार, समझ, प्रयोजन, विवेक आदि से प्रभावित होकर बदल ही जाएगा। अतीत का ऐसा कोई भी विवरण हर हाल में यथार्थ नहीं, यथार्थ की पुनर्रचना ही होगा और यह पुनर्रचना इतिहास और कथा का मिलाजुला रूप ही होगी। सही तो यह है कि नाम संज्ञाओं और तिथियों को छोड़कर इतिहास में जो होता है, वह कमोबेश कथा जैसा ही होता है। भारतीय परंपरा में इसलिए आरम्भ से ही इतिहास और कथा की एक-दूसरे में आवाजाही इतनी निरंतर और सघन है कि इनको एक-दूसरे से अलग करके स्वायत्त ढंग से समझा ही नहीं जा सकता। पश्चिम में भी ये दोनों सर्वथा अलग अनुशासन हैं और इन दोनों की अलग परम्पराएँ हैं, सर्वथा ऐसा नहीं है। ‘कथा’ शब्द का प्रयोग भी इस कारण भारतीय वाङ्मय में व्यापक अर्थ में हुआ है और यह लक्ष्य ग्रंथों के आधार पर बदलता भी रहा है। यहाँ सभी प्रकार के ऐतिहासिक-अर्ध ऐतिहासिक चरित काव्यों को ‘कथा’ कहा गया है। तुलसीदास ने एकाधिक बार रामचरितमानस को ‘कथा’ कहा है। इसी तरह विद्यापति ने अपनी रचना कीर्तिलता को ‘कहाणी’ (कथानिका) कहा है। प्राचीन साहित्य में कथा का प्रयोग एक तो ‘कहानी’ के अर्थ में और दूसरे, अलंकृत काव्यरूप के अर्थ में होता आया है। पंचतंत्र, महाभारत और पुराण के आख्यान और गुणाढ्य की बृहत्कथा सभी की गणना कथा की श्रेणी में ही होती है, लेकिन भामह और दंडी ने इसका प्रयोग विशिष्ट अर्थ में अलंकृत गद्यकाव्य के लिए किया है। दंडी ने आग्रहपूर्वक कथा और आख्यायिका को एक श्रेणी की रचना माना है। रुद्रट ने नवीं सदी में लिखा कि संस्कृत निबद्ध कथाओं को गद्य में लिखने का बंधन है, परंतु अन्य भाषाओं (प्राकृत और अपभ्रंश) में ये पद्य में लिखी जा सकती हैं। स्पष्ट है कि प्राचीन भारतीय साहित्य में कथा का अर्थ केवल कल्पित कहानी नहीं है। आख्यान, आख्यायिका, वंश, वंशानुचरित, चरित आदि ऐतिहासिक और अर्ध ऐतिहासिक रचनाएँ भी इसमें कथा की श्रेणी में रखी जाती थीं। यह विडंबना है कि इतिहास के औपनिवेशिक संस्कार और शिक्षा के कारण हम अपने ऐतिहासिक कथा-काव्य ग्रन्थों को केवल कथा मानकर इतिहास के दायरे से बाहर कर देते हैं। वस्तुस्थिति यह है कि यह स्मृति के रख-रखाव का भारतीय ढंग है। ये रचनाएँ कथा-काव्य के विन्यास में कुछ हद तक इतिहास भी हैं।

शीर्षक की पंक्ति ‘पुतली ने आकाश चुराया’ महादेवी वर्मा की एक कविता से उद्धृत है। मध्यकालीन स्त्रियों का भी अपना एक आकाश है, जो उन्होंने ख़ुद बुना-रचा है। संकलित रचनाएँ इसी आकाश की रचनाएँ हैं। सभी आख्यान प्राचीन हैं, इसलिए इनमें कुछ रचनाएँ ऐसी हैं, जिनमें रचनाकार और रचना समय का उल्लेख नहीं मिलता। यदि किसी रचना में कहीं यह उल्लेख आया है, तो रचना के परिचय में उसका विवरण दे दिया गया है।   

मध्यकालीन आख्यानों का यह हिंदी कथा रूपांतर प्रयोजनपूर्वक है। हिंदी समाज का अधिकांश इन आख्यानों की कथाओं और इनके स्त्री चरित्रों को नहीं जानता। इनमें से केवल पद्मिनी का चरित्र और कथा ही ऐसी है, जो इस आधारित फ़िल्म पर हुए विवाद और बाद में इस पर मीडिया में हुई व्यापक चर्चा के कारण लोगों की जानकारी में है। यह अलग बात है कि यह जानकारी जिनको है, उन्होंने भी इससे संबंधित पूरे आख्यान कभी नहीं पढ़े। यह विश्वास है कि हिन्दी में रूपांतरित इन कथा-आख्यानों से पाठकों की इनके मूल तक पहुँच सुगम हो पाएगी।

 
 
 

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