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मैंने लाख त्रिया चरित्र किए

  • Writer: Madhav Hada
    Madhav Hada
  • Sep 13
  • 24 min read


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राजमती । नरपति नाल्ह । बीसलदेवरास


‘बीसलदेवरास’ कुछ विद्वानों के अनुसार हिंदी का पहला काव्य है, लेकिन इसकी रोचक और सरस कथा के संबंध में कम लोग जानते हैं। यह एक ‘स्वस्थ प्रणय’ की कथा है। नरपति नाल्ह ने इस ‘रास’ काव्य की रचना इसके अंतःसाक्ष्य के अनुसार 1215 ई. (वि.सं. 1272) में की। रचना में उल्लेख है कि “बारह सै बहोत्तराँ मझारि। / जेठबदी नवमी बुधावारि। / 'नाल्ह' रसायण आरंभइ। / शारदा तुठी ब्रह्मकुमारि।” रचना की यह तिथि सर्वथा निर्विवाद नहीं है। रामचंद्र शुक्ल के अनुसार ‘बारह सै बहोत्तराँ’ का अर्थ 'द्वादशोत्तर बारह सै' मतलब 1212 होना चाहिए। माताप्रसाद गुप्त ने 15 उपलब्ध प्रतियों के पुष्पिका लेखों और इसकी भाषा के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि इसकी रचना 16वीं-17वीं सदी में कभी हुई होगी। अगरचंद नाहटा और मोतीलाल मेनारिया की राय भी कमोबेश यही है। इतिहासकार गौरीशंकर ओझा ने यह सिद्ध किया है यह 1215 ई. (वि.सं.1272) में लिखा गया प्राचीन काव्य है, जिसमें विग्रहराज तृतीय, 1093 ई. (वि.सं.1150) का वृत्तांत है। विग्रहराज तृतीय और उसकी रानी राजदेवी का उल्लेख बिजोलिया के सोमेश्वर शिलालेख 1170 ई. (वि. स.1226) में मिलता है।   

‘बीसलदेव रास’ की उपलब्ध प्रतियों की छंद संख्या अलग-अलग है। माताप्रसाद गुप्त और अगरचंद नाहटा ने 128 छंदों के आधार पर इसकी कथा की रूपरेखा तय की है। यह ‘वीर गीत’ रचना नहीं है, जैसाकि आरंभिक कुछ विद्वान मानते रहे हैं। यह अजमेर के चौहान राजा बीसलदेव (विग्रहराज) के मालवा के परमार राजा भोज की पुत्री राजमती से विवाह, विवाहोपरांत राजा का उसकी गर्वोक्ति पर रानी उत्तर से रूठकर बारह वर्ष के लिए उड़ीसा चले जाने, रानी के वियोग, राजा के लौटने और रानी के उलाहने की रोचक और सरस प्रेम गाथा है। गौरीशंकर ओझा ने इसके तीन पात्रों- बीसलदेव (विग्रहराज तृतीय), राजमती और भोज परमार को ऐतिहासिक चरित्र माना है। यह रचना ऐतिहासिक कथा-काव्य की भारतीय परंपरा में है, जिसमें इतिहास और कथा-काव्य एक-दूसरे के साथ हैं। यह रचना भी इतिहास और कथा काव्य की जुगलबंदी से बनती-बढती है। इतिहास इसमें बीज है, जिसको इसके रचनाकार ने कवि-कथा समयों-रूढियों और अपनी कल्पना के खाद-पानी से पल्लवित किया है। ‘बीसलदेवरास’ की सबसे महत्त्वपूर्ण और उल्लेखनीय विशेषता इसकी नायिका राजमती का चरित्र है। संपूर्ण मध्यकालीन आख्यानों में राजमती जैसा मुखर, निर्णायक और ‘वाचाल’ स्त्री चरित्र कोई दूसरा नहीं है। उसकी सखियाँ और परिजन उसके दुर्भाग्य का कारण उसकी लंबी जीभ (वाचालता) को मानते हैं, लेकिन रचना के आरंभ से लगाकर अंत तक वह मुखर और वाचाल है। यह वह स्त्री चरित्र है, जो अपनी असहाय और प्रताड़ित हैसियत के बावजूद अपनी, लोक के मुहावरे की धारवाली व्यंग्योक्तियों से पुरुष पर भारी पड़ती है।

भाषा इसकी मध्यकाल में उत्तरी-पश्चिमी भारत के जनसाधारण में व्यवहार में आनेवाली ब्रज, राजस्थानी, गुजराती आदि का मिलाजुला रूप है। दरसअसल यह आधुनिक भाषायी पहचानों के अस्तित्व में आने से पहले की भाषा है, इसलिए इसमें इनके सभी लक्षण मिल जाएँगे। मुहावरा इसका लोक का है। रचनाकार अनौपचारिक कवि शिक्षा प्राप्त लगता है- उसे छंद आदि का ज्ञान है और और वह अपने समय कवि समयों और रूढियों से अच्छी तरह वाक़िफ़ है। वह इनका कुशल प्रयोग भी करता है।

‘बीसलदेवरास’ कई प्रतियाँ मिलती हैं। विद्वानों के इन विभिन्न प्रतियों पर आधारित एकाधिक संपादित संस्करण प्रकाशित हुए हैं। प्रतियों के लिपिकाल के अनुसार इनमें पाठ और भाषा का वैविध्य पर्याप्त है, लेकिन कथा और इसके मोड़-पड़ाव कमोबेश सभी में समान है। यह कथा रूपांतर माताप्रसाद गुप्त और अगरचंद नाहटा के संपादित संस्करण पर आधारित है, जो 1953 ई. में हिंदी परिषद्, इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्रकाशित हुआ। 

1.

राजा भोजराज परमार अपने दीवान और चारों दिशाओं के अग्रणी लोगों के साथ दरबार में बैठा हुआ था। वहाँ मौजूद रानी ने राजा से विनय की कि अपने जीवन के दिन रहते हुए वर देखकर राजकुमारी का विवाह कर देना चाहिए। राजा ने तत्काल अपने ज्योतिषी को पंचांग लेकर बुलाया और उससे कहा मेरी कन्या के लिए कोई अच्छा नागर, चतुर और सुजान वर खोजो। उसने ज्योतिषी को यह भी बताया कि ऐसा वीर और विच़क्षण व्यक्ति अजमेर का राजा बीसलदेव चौहान (विग्रहराज) है।

राजा बीसलदेव अजमेरगढ़ में निवास करता था। वह चौहानों के कुल का तिलक और शृंगार था, छत्तीसों कुलों के राजपूत उसकी सेवा करते थे और उसके यहाँ कई मदमत्त हस्तियों पर पलाँद एक लाख घोड़ों पर पाखर पड़ती थीं। राजा भोज ने पंडित से कहा कि ऐसे बीसलदेव चौहान का मेरी कन्या के वर के रूप में चयन करो। 

राजा ने लग्र की सुपारी ब्राह्मण और भाट के हाथ में देकर कहा कि “तुम अजमेरगढ़ जाओ और वहाँ के राजा बीसलदेव के पाँव धोकर कहना कि राजा भोज की कन्या राजमती है और उसके वर आप हैं।” ब्राह्मण और भाट ने जाकर वीसलदेव को लग्र और सुपारी दी। वह मन में बहुत आनंदित हुआ। नगर में उत्सव हुआ‌- घर-घर पताकाएँ फहरायी गयीं और कामिनियों ने मंगलगीत गाए। घर-घर में चर्चा होने लगी है कि यदि परमार जाति की स्त्री घर में आएगी, तो चौहानों के कुल का उद्धार हो जाएगा। राजा बीसलदेव ने ब्राह्मण को प्रसन्न कर विदा किया। उसने उसको उपहार में कंठ का आभूषण, ताजी घोड़ा, टोप और लंबा अँगरखा दिया। उसने उसको सोलह आना खरे सोने की मुद्राएँ, रेशमी वस्त्र और पान दिए। बीसलदेव ने हाथ जोड़कर पंडित से कहा कि- “राजा के सम्मुख मेरा प्रेम निवेदन करना।”

बीसलदेव ने विवाह के लिए बारात सहित प्रस्थान किया। सभी परिजन और सामंत एकत्र हुए, मिलनी हुई और राजा बहुत प्रसन्न हुआ। सूर्य उसके प्रस्थान का कौतुक देखने के लिए अपने मंडल में छिप गया। स्वर्ग से देव-विमान आए और अप्सराओं-सुन्दरियों ने कुदृष्टि निवारण के लिए नमक उतारा। वीसलदेव ने गणपति की पूजा की और उसकी सवारी चल पड़ी। प्रस्थान में चौरासी मंडलाधिकारियों को विशेष सम्मान मिला। सात सहस्र भालाधारी बारात में सम्मिलित थे और पालकियों में पचास सहस्र बाराती बैठे हुए थे। सात सौ हाथी सुसज्जित किये गये थे और पैदल सैनिकों की संख्या का कोई अंत ही नहीं था। बरात चल पडी- ध्वजाएँ फहरा रही थीं और प्रतीत हो रहा था जैसे बीसलदेव प्रत्यक्ष देवता हो।

बीसलदेव ने अजमेर प्रस्थान कर ने बाघेरा को छोड़ा। उसकी बारात में ब्राह्मण वेद-पुराण का उच्चारण कर रहे थे, कामिनियाँ मंगलगीत गा रही थीं और पंचवाद्यों की रुनझुन हो रही थी। बीसलदेव ने मेघाडंबर के समान रेशमी वस़्त्र का छत्र धारण कर रखा था। वह स्वयं पूर्णिमा के पूर्ण चंद्र के समान था। उसने स्वर्ग के देवताओं और धरती के मनुष्यों को मोहित कर लिया था- वह गोकुल के प्रत्यक्ष गोविद जैसा लग रहा था। 

वीसलदेव तोरण पर आया। राजमती की सात सखियों ने मिल कर उसकी कलश की वंदना की। मोतियों के अक्षत उछाले गये, चोबा-चंदन लगाया गया है और सिंदूर का तिलक किया गया। दाहिने-बाएँ आरती हुई। बीसलदेव ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो तोरण पर सूर्योदय हुआ हो। राजमती की सात सहेलियाँ आकर बैठीं। राजा भोज मातृ-पूजा के लिए गया। सीपों में चंदन भर लिया गया, कत्था, सुपारी और पक्का पान ले लिया गया। वीसलदेव ने प्रेमपूर्वक पाणिग्रहण किया। राजमती के साथ बैठे हुआ वीसलदेव ऐसा लग रहा था मानो रुक्मिणी के साथ कृष्ण बैठे हुए हों।

राजमती के विवाह पर मालवा में आनंद और उत्साह हुआ। मंडप चंदन की लकड़ी था, चौरी सोने की थी और मालाएँ मोतियों की थीं। पहले फेरे पर दहेज में आलीसर और उसके साथ माल दिए गए। राजा वीसलदेव को दूसरे फेरे पर राजकुमारी की माता भानुमती ने दहेज में अर्थ और समस्त भंडार के साथ साँभर, नागरचाल, विछाल, तोड़ा, टउंक, बूँदी और कुडाल देश दिए। तीसरे फेरे पर राजा भोज ने अंतःपुर की सभी की रानियो को बुला लिया। उन्होंने बीसलदेव को दहेज में ताजी घोड़े और केकांण दिए, मंडोवर का देश दिया और समुद्र के साथ सोरठ और समस्त गुजरात भी दिया। भोज के हाथ में तांबूल और अंजली में पानी था, उसके गले में जनेऊ था और उसने चीर पहन रखा था। छत्तीसों कुलों के राजपूत विवाहोत्सव देख रहे थे। राजा भोज ने दहेज में रेशम से बुना हुआ पलंग और सावटू की चादर भी दी। रानियों ने दहेज में बारह गढ़ के साथ चित्तौड़ का दुर्ग भी दिया।

राजकुमारी राजमती पीढ़े पर बैठी हुई थी। उसकी कटि पर रेशम की अच्छी चूनड़ी थी, उसके कानों में कुंडल जगमगा रहे हैं, उसके सिर में राखड़ी और ललाट पर तिलक लगा हुआ था। उसके रूप को देखकर राजा बीसलदेव की प्रसन्नता की सीमा नहीं थी। विवाह की रस्म के बाद विदाई की तैयारी होने लगी। पहिरावणी- वस्त्राभूषणादि पहनाने की रस्म हुई। बाजे बज रहे है ओर नगाड़ों पर चोट पड़ रही थी। समस्त धार नगरी बहुत मनोरम लग रही थी। लोग उदास थे‌- अब धार का दीपक राजमती अजमेरगढ़ जा रही थी।

2.

विवाह और उससे जुड़े उत्सव संपन्न करके राजा बीसलदेव अजमेर अपने घर आया। समस्त प्रजा में उत्साह और हर्ष हुआ। राजा बीसलदेव इस विवाह के कारण अपने को सौभाग्यवान मानकर गर्वित था। उसने अपने प्रधान से कहा कि “या तो विधाता मुझसे प्रसन्न है, या मुझे अपने भाग्य का लिखा मिल गया, जो मैंने राजा भोज की कन्या का पाणिग्रहण किया।” बीसलदेव ने गर्वपूर्वक अपनी नवविवाहिता रानी राजमती से कहा कि “मेरे समान दूसरा राजा नहीं है। मेरे राज्य में साँभर के सरोवर में नमक निकलता है, चारों ओर जैसलमेर तक मेरी सीमा है, मेरे यहाँ एक लाख घोड़ों पर पाखरें पड़ती हैं और अजमेरगढ़ में सिंहासन पर बैठकर मैं शासन करता हूँ।”

राजा की यह गर्विक्ति रानी को अच्छी नहीं लगी। उसने कहा कि “हे साँभरनरेश बीसलदेव!  गर्व मत करिए। तुम्हारे जैसे और कई राजा हैं, एक तो उड़ीसा का स्वामी ही है। ये दो वचन तुम मेरे चाहे, तो मानो और चाहे तो मत मानो, लेकिन जिस प्रकार तुम्हारे राज्य में साँभर में नमक निकालता है, उसी तरह उसके राज्य में खानों से हीरे निकालते हैं।” राजा को रानी के इस उत्तर पर आश्चर्य हुआ। उसने कहा कि “हे गोरी! तेरा जन्म जैसलमेर में हुआ और विवाह करके तू अजमेर लाई गई। अभी तू केवल बारह वर्ष की कन्या है। उड़ीसा और जगन्नाथपुरी के विषय में तू कैसे जानती है? मै अन्न छोड़ता हूँ और पानी तजता हूँ। तुम अपने पूर्वजन्म का वृत्तांत मुझे बताओ।”

रानी ने राजा के आग्रह करने पर अपने पूर्वजन्म का वृत्तांत विस्तार से बताया। उसने कहा कि  “मैं पूर्व जन्म में हरिणी के वेश में वन खंड में विचरण करती थी और एकादशी को निर्जला रहा करती थी। एक दिन वन में एक अहेरी ने मेरे हृदय में दो बाण मारे और मेरी मृत्यु  भगवान जगन्नाथ के द्वार पर हुई। मरते हुए मैंने भगवान जगन्नाथ का स्मरण किया। तीनों लोकों के स्वामी, शंख, चक्र और गदा के धारण करने वाले भगवान जगन्नाथ आ पहुँचे।”  भगवान जगन्नाथ ने मुझे कहा कि कहा “हे हरिणी! मन में विचार करके वर माँग!” मैंने भगवान से कहा कि  “हे त्रिभुवननाथ! यदि आप मुझसे प्रसन्न और तुष्ट हैं, तो मुझे पुनः पूर्व देश में मुझे जन्म मत देना।” मैंने उनसे कहा कि “पूर्व देश के लोग घृणित होते हैं। वे पान-फूल का भोग नहीं करते। वे चावल के कण संचित करते हैं और उसकी भूसी खाते हैं। चतुराई ग्वालियर गढ़ में, कामिनियाँ जैसलमेर में और भले और सुन्दर पुरुष अजमेरगढ़ में होते हैं। मैंने इसीलिए भगवान जगन्नाथ से अशेष रूप सौंदर्यवाली राजकुमारी के रूप में मारवाड़ देश में जन्म में माँगा। मैंने भगवान से यह भी माँगा कि मेरा रूप पृथ्वी पर अनुपम हो, मुझे लोवड़ी (लोमपटी) का परिधान सुलभ हो, और मेरी कमर पतली हो, मै अच्छी सुन्दर वर्ण की और पतले शरीर की स्त्री होऊँ, मेरे अधर प्रवाल के रंग के और दाँत दाड़िम जैसे हों।”

राजा बीसलदेव रानी का पूर्वजन्म का वृतांत सुनकर चकित रह गया। उसे धक्का भी लगा। रानी की कही हुई बात उसके ह्दय में चुभ गई। उसने राजमती से कहा कि “हे गोरी! तुमने मेरी निंदा की है। मुझे और तुझे बारह वर्ष की एक-दूसरे से अलग रहने की शपथ है। मैं (ऊलग) चाकरी के बहाने उड़ीसा जाऊँगा, जिससे हीरे की खान मेरे घर पर भी आ जाए।” राजमती को अपने अब अपनी ग़लती का अहसास हुआ। उसने राजा से कहा कि “तुम्हें नाराज़ करके मैंने अपराध किया है, लेकिन मेरे पर तुम्हारा क्रोध उचित नहीं है। मैं तो तुम्हारे पाँव की जूती की तरह हूँ, मुझसे रोष कैसा? मेरी हैसियत तो चींटी की तरह है, तुम उस पर सेना क्यों लगा रहे हैं? मैने तो हँसी में बात कही थी और तुमने उसको सच करके मान लिया। मुझ इस तरह खड़ी छोड़कर तुम कहाँ जा रहे हैं- जल के बिना मछली कैसे जीवित रह सकती है?”

राजमती ने राजा को यह समझाने की चेष्टा की कि धन के के लिए यदि वह चाकरी पर जा रहा है, तो उसकी ज़रूरत नहीं है। वह अपने पीहर जाकर से वहाँ से कि अर्थ द्रव्य-भंडार ले आएगी। राजा अपनी ज़िद पर अ‌ड़ गया। उसने रानी से कहा कि “हे गोरी! मुझे तुम्हारी बात पर विश्वास नहीं है, अब मैं जब अपनी आँखों से देख लूँगा, तभी विश्वास करूँगा।” उसने प्रस्थान के निमित्त दिनों की गणना करने के लिए ब्राहमण बुलाने अपने भतीजे को राज्य सौंपने का निर्णय कर लिया।  

रानी ने उसे समझाया कि चाकरी पर वह व्यक्ति जाता है, जिसके घर में कुल्हड़ में नमक तक नहीं होता, या घर में अकुलीन स्त्री कलह करती है, या जिसे ऋण से दबे हुए होने के कारण घर नहीं सुहाता या जो योगी होकर घर से निकल पड़ता है। रानी ने उससे कहा कि “आप यदि चाकरी पर को जाने की बात करते हैं, तो मै भी आपके साथ आती हूँ। मैं आपकी दासी होकर निर्वाह करूँगी। मै आपके पाँव दबाऊँगी, आपको पंखा झलूँगी और मैं खड़ी-खड़ी आपके पहरे में जागूँगी।” राजा पर रानी की इस बात का कोई प्रभाव नहीं हुआ। उसने कहा कि “हे पागल मुग्धे!’ तुझे बकझक सवार गई है। भला कोई स्त्री को लेकर चाकरी को जाता है? हे भोली नारी! तू वाचाल है। चन्द्रमा को किस प्रकार कूड़ा उछालकर ढाँका जा सकता है? रत्न छिपाने से किस प्रकार छिप सकता है?” 

रानी ने कई तरह की अनुनय-विनय की, लेकिन राजा चाकरी पर जाने के लिए अड़ गया। रानी ने उससे कहा कि “या तो तू मुझे मार डाल, और या अपने साथ ले चल।” राजा का अंचल पकड़कर उसने कहा कि “हे स्वामी मेरा दुःख दुहरा है- एक तो यौवन है, जो मुझे मरोड़कर मारता है, और दूसरा मैं संतानहीन हूँ।” राजा ने उत्तर में कहा कि “हे गोरी!” मुझे जाने दे। यदि मैं कुछ बरस-दिन भी यहाँ रहूँ, तो मुझे तेरी शपथ है। तूने अपने कठिन पयोधरों (हृदय) पर दिव्य (अग्रि) रख लिया है। यह दिव्य (अग्रि) तूने आगे बढ़ा रखा है। इस दिव्य (अग्रि) में सुर-नर सभी (जलकर) क्षार हो चुके हैं।”

राजा के इस उत्तर से रानी आहत हुई, लेकिन अब उसने आशा छोड़ दी। उसने सोचा कि वह अब योगिनी होकर वनवास करेगी, या वाराणसी में तप करेगी, या केदार पर्वत पर चढ़ेगी, या हिमालय में जाकर गल जाएगी या गंगा कूद पड़ेगी। उसने खरी-खोटी सुनाते हुए राजा से कहा कि “मैंने तुम्हारी आशा छोड़ दी है। तुम हृदय से मलिन हो, तुम्हारा विश्वास कैसा? तुमने स्त्री को बाँदी करके भी नहीं गिना। सगों और स्नेहियों में उसका सम्मान ख़त्म कर दिया है। मेरे जैसे जीवित से तो मृतक अच्छा है। हे स्वामी! मेरे जी में यह आता है कि मैं प्राण त्यागकर तुम्हारा बंधन जला दूँ।”

बीसलदेव को समझाने के लिए मर्यादा छोड़कर उसकी भावज आयी। उसने बीसलदेव को कई तरह से रोकने की कोशिश की। उसने विचार किया कि या तो यह स्त्री बीसलदेव के मन में नहीं समायी या यह वाचाल, मतलब इसकी जीभ बहुत लंबी है। आखिर देवर किस दुःख से चाकरी को जा रहा है?  भावज ने बीसलदेव को राजमती के सम्मुख करते हुए कहा कि “रत्न के कटोरे को तू कैसे भीख में दिए डाल रहा है? उसे तू पैरों से क्यों ठुकरा रहा है? ऐसी स्त्री राजाओं की नारियों में नहीं होती; ऐसी तो देवालयों में मूर्तियों भी नहीं पाई जाती। यह स्त्री हरिण जैसे नेत्रों और मधुर वचनोंवाली है। यह तो देव की बनाई हुई और विधि की गढ़ी हुई है। मैंने तो ऐसी स्त्री सूर्य के नीचे संसार भर में नहीं देखी है।” रानी राजमती ने राजा को समझाने की फिर कोशिश की। उसने उससे कहा कि “हे राजपुत्र! चाकरी को जाने में बड़ी कठिनाइयाँ हैं। तुमने राजा भोज की कन्या से विवाह किया है। उस सोलह वर्ण के खरे सोने को तुम राख क्यों कर रहे हो? स्वामी! मेरा जीवन-मरण तुम्हारे चरणों में ही है। मेरे स्वर्ण-कटोरों (कुचों) का भार तुम अपने हृदय पर धारण करते हो; फिर भी मै हेड़ाउ (लेंहड़ी वाले) के उस घोड़े की भाँति उपेक्षिता हूँ, जिस पर उसका मालिक सौ-सौ दिनों तक हाथ नहीं फेरता।”

राजा पर रानी के इस कथन का कोई प्रभाव नहीं हुआ। उसने कहा कि “हे नारी! कड़वी बात मत कह। मैने तुझे चित्त से विस्मृत करके छोड़ दिया है। जीभ नई नहीं निकलती। जंगल की आग का जला का वृक्ष हरा हो जाता है, किंतु जीभ का जला हुआ मनुष्य फिर हरा नहीं होता।” रानी ने उसे समझाया कि उसके जाने से उसका जीवन भी व्यर्थ हो जाएगा। उसने कहा कि अर्थ और द्रव्य क्या है, यह तो धरती में गड़ा रह जाता है और जो इसे कमाता है उसकी बजाय यह दूसरों के काम आता है। राजा किसी भी तरह नहीं माना। उसने राजमती से कहा कि “तुम्हें बोलने से पहले अच्छी तरह से विचार करना चाहिए, अब पश्चाताप करने क्या लाभ? इस प्रकार कहीं पति को मनाया जाता है?  भगवान शिव के तुष्ट होने पर पति प्राप्त होता है। तूने तो न सास को गिना, न देवर और जेठ को, और मेरा कहना भी तूने नहीं माना, इसलिए मेरी-तेरी यह अंतिम भेंट है।” 

राजमती की सहेलियों ने भी दोषी राजमती को ही ठहराया। उन्होने राजमती से कहा यदि उसमें गुण होते, तो उसका पति क्यों जाता? पति को तो जैसे फूल पगड़ी में रखा जाता है, वैसे सँभालकर रखना चाहिए। दोषारोपण से आहत राजमती ने अपनी सहेलियों को कहा कि “मैं कया करूँ? ताजी घोड़ा बिगड़ कर उसासें भरने लगे, तो उसको दबाया और चरते हुए मृग को मोहित किया जाता है, किंतु, हे सखी! स्वामी को अंचल में किस प्रकार बाँधा जा सकता है?”   उसने सहेलियों को राजा को रोकेने के लिए किए अपने प्रयासों को हवाला देकर कहा कि “मैने अपना कंचुक खोलकर अपना शरीर राजा को दिखाया, जिसको देखकर मुनिवर भी विचलित हो जाएँ। किंन्तु मूर्ख राजा मेरा मूल्य नहीं जानता? मैंने लाख त्रिया चरित्र किया, किन्तु सब व्यर्थ गया। वह राजा नरपाल नहीं, हे सखी! भैसों को रखनेवाला-महिषपाल है।”

राजा के बुलाने पर ज्योतिषी आकर पीढ़े पर बैठा गया। राजमती के पूछने राजा के प्रस्थान के संबंध में उसने बताया कि उसके आठवें स्थान पर शनि और बारहवें पर राहु है। ग्रहगण बहुत बुरे हैं-यह सुनकर राजमती सिर पीटकर रोने लगी। उसने ज्योतिषी से कहा कि “हे पंडित! मैं तुम्हारे गुणों की दासी हूँ। तू राजा को यात्रा का दिन आगे करके बता। चार महीने तू मेरे पति को रोक ले, तब तब तक मै उसको समझा लूँगी।” राजा ने पंडित को अपने पास बुलाया। उसने रानी के इच्छा के अनुसार राजा से कहा कि अभी चार माह तक प्रस्थान के लिए शुभ दिन नहीं है। राजा ने ज्योतिषी के बात नहीं मानी।

रानी ने एक बार फिर यह कहकर कि सेवा-चाकरी और परदेश का निवास दुःखदायक होता है, राजा से रुक जाने प्रार्थना की, लेकिन वह नहीं माना। रानी किवाड़ टेक कर खड़ी हो गयी। उसकी कमर में रेशम की सुन्दर चूनड़ी थी, उसके कानों में कुण्डल जगमगा रहा है, पैरों में बहुत अच्छी सोने की पायल थी और मस्तक पर हीरक शीशफूल था। उसने बीसलदेव से कहा कि “मैं सब युक्तियाँ भूल गयी हूँ, मुझे केवल तुम्हारी चिंता है। रात-दिन तुम ‘चलूँ’, चलूँ,’ करते हो। हे स्वामी! तुम्हारे घर में यह कैसी रीति है?” राजा किसी भी तरह नहीं माना। उसने कहा कि वह दिन निकलते चला जाएगा। तब रानी ने उसे कहा कि “हे स्वामी! चाकरी को जाने की तुम्हारी बड़ी इच्छा है, तो मैं तुम्हें राजकीय चलन की सीख दे दूँ। राज्य में चलन इस प्रकार होना चाहिएः राजसभा में प्रधान बैठे हों, तो उनसे मीठा बोलना, नाई और साहुनी को बहुत आदर देना, बाँदी के साथ मत हँसना। वहाँ यदि राजा गोष्ठी में तुम्हें राजभवन के भीतर बुलावे, तब सोच-समझकर बोलना, यह ध्यान रखना कि कान राजा के निकट हों और दृष्टि नीची रहे।” राजमती ने राजा से कहा कि “हे स्वामी। चाकरी को जाने की तुम्हें बहुत जल्दी है, कितु राजनीति खड्ग की धार जैसी होती है। मूर्ख लोग उसको नहीं जानते हैं। चोर, जुआरी और कलाल- इनसे हँसकर मत बोलना। राजा मर्म की बात पूछें, तो तुम झूठी-सच्ची मत कहना, और मुँह के सामने तुम हाथ रख लेना।” राजा ने अंततः प्रस्थान किया। जैसलमेर टोडा और फिर गढ़ अजमेर को छोड़कर राजा बनास नदी के पार उतर गया है।

3.

राजा को पहुँचाकर पंडित राजमती के पास आया। उसने देखा कि राजमती की नाड़ी में जीवन के लक्षण और उसके वक्ष में साँस नहीं हैं। वह स्त्री पलंग से पृथ्वी पर पड़ी हुई है, वह न चीर सँभाल रही है, और न जल पी रही हैं। सात सहेलियाँ उसके पास आकर बैठी हुई हैं। राजमती न काढ़ा पीती है और न औषध खा रही है। उसकी इस दशा को देखकर सहेलियों ने कहा कि “हे भोली स्त्री! तुझ से भी भली अच्छी-रूपवती दमयंती थी, किन्तु उसे भी राजा नल छोड़ गया था। पुरुष के समान निगुणी संसार में अन्य नहीं होता है।”

बीसलदेव कार्तिक मास में गया था। उसके लिए रो-रोकर राजमती ने अपने नेत्र गँवा दिए; उसकी भूख जाती रही, प्यास भी उचट गई और उसे नींद नहीं आती थी। मार्गशीर्ष में दिन छोटा होने लग गया। बीसलदेव का कोई संदेश नहीं था। राजमती को लगा जैसे पति कि संदेशों पर वज्रपात हो गया है। मार्ग में ऊँचे पर्वत और पर्वतों के नीची घाटियाँ पड़ती हैं। उसका पति परदेश और परभूमि को गया है। वहाँ से न चिठ्ठी आती है और न कोई उस पर जाता है।

अब पौष लग गया है। राजमती कहती है कि “इस मरती हुई स्त्री को कोई दोष मत देना! मै दुःख में दग्ध होकर अस्थिपंजर मात्र रह गई हूँ। मुझे अन्न नहीं भाता। मैंने सिर नहाना छोड़ दिया है। मुझे छाँह और धूप नहीं लगती।” माघ मास में सुखाकर ठठरी कर देने वाली ठंड पड़ रही है। वनखंड जलकर होकर राख हो गया है। राजमती को अपने जलने के साथ संसार जलता हुआ दिखाई पड़ता है। वह कहती है कि “हे स्वामी! तुम ऊँट पर सवार होकर जल्दी आओ। यौवन का छत्र फैला हुआ है। मेरी कनक काया में तुम अपनी आन फेर जाओ।”

फाल्गुन में वृक्ष काँपने लगे है। राजमती कहती है कि “मुझे रात में न नीद आती है और न भूख लगती है। दिन सुन्दर होने लगा है और ऋतु पलट गई है, लेकिन मूर्ख राजा आकर मुझे नहीं देखता।” चैत्र मास में स्त्रियाँ रंग-बिरंगे वस्त्र पहनकर चौरंगी हो गई है, लेकिन राजमती प्रियतम की अनुपस्थिति में दुःखी है। सहेलियाँ उससे होली खलेने का आग्रह करती है, लेकिन वह कहती है कि “मैं होली खेलने किस प्रकार जाऊँ? मै तो उलगाने (चाकर) की स्त्री हूँ।” 

वैशाख में अन्न काटा जाता है, पानी शीतल और पान पका हुआ होता है। ऐसे समय कनक-काया रूपी वृक्ष को जल के घड़ों से तृप्त करते हैं। राजमती सोचती है की उसका मूर्ख राजा उसका मूल्य नहीं जानता है। जेठ लग गया है। राजमती का मुँह कुम्हला गया है और होठ सूख गए हैं। जेठ में दिन अत्यन्त तप्त होता है। राजमती के पैर धरती पर नहीं पड़ पाते हैं-  लगता है मानो आग जल रही है। हंस सरोवरों को जलहीन होने के कारण छोड़कर चले गए हैं। 

आषाढ़ में मेघ लौट आए हैं। नाले खल-भल करके बहने लग गए हैं और धूल बह गई है। मेघ प्रमत्त होकर मस्त हाथी की तरह आकाश में पैर रख रहे हैं। राजमती सोचती है कि “पता नहीं,  इस समय चाकरी में उसका पति वहाँ क्या कर रहा है?” श्रावण के बादल छोटी धारों में बरसते  हैं। राजमती सोचती है कि ऐसे रिमझिम के दिनों में प्रियतम के बिना किसके सहारे जीवित रहा जाए? सखियाँ और समवयस्काएँ कजली खेलती हैं। कमेड़ी (कपोती) पक्षी ने आशा लगा रखी है। पपीहा भी ‘पिउ-पिउ’ करता है। केवल उसे श्रावण मास बुरा लगाता है। भाद्रपद के बादल गहरी और गंभीर वर्षा कर रहे हैं। सब जगह जल भर गया है, मानों सागर ही उलट पड़ा हो। बादल जल-भार से नीचे आ जाने के कारण धरती से मिले हुए दिखाई पड़ते हैं। राजमती सोचती है कि ऐसे समय में भी मूर्ख राजा आकर उसकी दशा नहीं देखता। आश्विन मास में राजमती ने आशा लगाई। उसने घर और शयन गृह को सजाया, उसने चौपाल चौखंडी, पौरी (ड्योढ़ी) तथा परकोटे की सफ़ेदी कराई। गवाक्षों पर चढ़ी हुई वह घूम रही थी  कि शायद अब उसका मूर्ख पति घर आ जाएगा।

पति वियोग में राजमती दुःखी है। वह भगवान शंकर से विनय करती हुई कहती है कि “हे महेश! तुमने मुझे स्त्री का जन्म मुझे क्यों दिया? और जन्म भी तुम्हारे पास देने के लिए कई थे, फिर भी तुमने मुझे अरण्य का रोझ (नील गाय) नहीं बनाया, घने वन की धोरी गाय भी नहीं बनाया, न वनखंड की काली कोयल बनाया कि मैं आम और चम्पा की डालों पर बैठती और अंगूर तथा बीजोरी (फल विशेष) खाती। यह अबला बाला इन दुःखों में झूर रही है।” वह आगे कहती है कि “हे विधाता! “तुमने मुझे आँजनी (जाटनी) क्यों नहीं बनाया? तब मै अपने भरतार (पति) के साथ खेती कमाती, अच्छे ऊनी वस्त्र का मेरा पहनावा होता, ऊँचे घोड़े के समान अपना शरीर स्वामी के शरीर से भिड़ाती, स्वामी को सामने से लेती और उससे हँस-हँस कर उसकी बातें पूछतीं।”

राजमती के आवास पर अस्सी बरस की सफ़ेद बालोंवाली एक कुटनी आ पहुँची। वह राजमती के गले लगकर रोने लगी। वह कहने लगी कि “हे भानजी! तू दिन कैसे काट रही है? रात-दिन मुझे तेरी चिंता रहती है। जब तक बीसलदेव आए, तुझको एक मित्र से मिला दूँ।” यह सुनकर राजमती उठी और उसने पाटा लेकर कूटनी की पीठ पर जमा दिया और कहा कि “मैं  तेरी वह जीभ निकलवाती हूँ, जिससे ऐसी बात निकली।” 

राजमती पंडित के घर गयी और उसने बीसलदेव के लिए उसको अपना संदेश दिया। उसने पंडित से कहा कि “हे पंडित! प्रियतम से जाकर कहना कि तुम्हारी स्त्री इतनी दुर्बल हो गई है कि उस के बाएँ हाथ की अँगूठी ढीली होकर उसकी दाहिनी बाँह में आने लगी है। उससे कहना  कि तैने मुझे अपनी दाहिनी बाँह दी थी, जिसके दो साक्षी तो सूर्य और चन्द्रमा थे और वायु, जल, धरती और आकाश को भी ब्राह्मण ने धूप से जगाया था। मै तो स्वामी के विश्वास में मारी गई। कहना कि तुम्हारी समझ को को आग लगा दूँ, जिसके कारण मेरे कठिन पयोधरों ने प्राण त्याग कर दिए हैं और मेरा यौवन ढल गया है। यौवन जिसके मोहपाश में पड़कर रावण का पतन हुआ और स्त्री के कारण ही शूर राम ने सेतु बाँधा था”

कार्तिक मास में राजमती ने पंडित के हाथ एक गुप्त पत्र भेजा। अपने हाथ से लिखे हुए इस पत्र को पढ़कर वह प्रेम और उमंग का अनुभव करती थी। उसने सखियों से कहा कि “पत्र को पढ़कर, मुझे विश्वास ह, कि राजा घर की चिंता करेगा।” राजमती की सात सखियाँ एकत्र होकर उसके पास बैठी। सबने राजमती से पत्र सुनाने का आग्रह किया। राजमती ने अपना लिखा पत्र सहेलियों को सुनाया। उसने लिखा कि “हे स्वामी! वक्षस्थल पर सामने तथा दाहिनी ओर कटि के ऊपर के पार्श्व भाग में तुम्हारे दो नख लगे थे। ये तुम्हारे दिए हुए चिह्न होने के कारण मुझे बहुत प्रिय हैं। राजमती ने आगे लिखा कि “मेरा दुःख कौन सहेगा? मैंने तो पलँग छोड़ दिया है, नमक भी छोड़ दिया है और पान-सुपारी तो मेरे लिए जहर है। मै तुम्हारा ही जप करती हूँ। दिन गिनते-गिनते मेरे नख घिस गए हैं और कौवे उड़ाते-उड़ाते मेरी दाहिनी बाँह थक गई है।” उसने आगे लिखा कि ‘‘हे राजा! तुम ज्ञान की बातें जानते हो। हम दो शरीर, लेकिन एक प्राण हैं। उस दूसरे शरीर को तुमने अलग क्यों कर रखा है? मैं कुलीन कन्या हूँ और शील-मर्यादा से बँधी हुई हूँ। यौवन को इसीलिए चोर की भाँति छिपाकर कर रखती हूँ। पग-पग पर इसका दोष तुम्हें लग रहा है। इस जन्म में तुम उलगाने चाकर हुए, तो अपर जन्म में तुम काले सर्प होओगे। एक बार तुम घर आ जाओ। मैं तुम्हारे मार्ग को मैं अपने केशों में बुहारती हूँ। यौवन का समुद्र अपने समस्त जल के साथ उलट पड़ा है और मैं थाह नहीं पा रही हूँ।”   उसने सहेलियों को बताया कि उसने पंडित कहा है कि वह राजा इस तरह कहे, जिससे वह नाराज़ न हो। वह जाकर कहे कि वह स्त्री तुम्हारे विरह में अन्न नहीं खाती है। उसकी कंचुकी और उसकी सिर की ओढ़नी फट गयी है। वह ऐसी हो गई है जैसे दावाग्नि से जली हुई लकड़ी होती है।

प्रस्थान से पहले पंडित ने राजमती से उसके पति की पहचान के संबंध में पूछा। उसने कहा कि ‘‘हे गोरी! तू अपने प्रियतम का पहचान एव जानकरी मुझे दे। यह भी बता कि वह किसके जैसा दिखता है।” राजमती ने कहा कि ‘‘वह मेरे छोटे देवर जैसा है। अंतर केवल यह है कि यह देवर गोरा है, जबकि मेरा प्रियतम साँवला है। उसके सिर का तिलक लगा रहता है, जो हमेशा सुबह की प्रतीति करवाता है। उसका वक्ष चौड़ा और उसकी कटि पतली है। उसकी कटि में ऊँची और चौड़ी यम-डाढ़ तलवार रहती है। वह लाखों में अलग पहचाना जा सकता है।” पंडित ने फिर यही पूछा, तो राजमती ने बताया कि “राजा की दाढ़ी ऐसी लगती है जैसे भ्रमर मँडरा रहे हों। सिर में वह केवड़े का तेल लगाता है। उसकी दाहिनी आँख के मध्य के कोये में भ्रमर जैसा काला तिल है, उनकी कटि में तरकश है, जिसमें कृपाण लगी हुई है। वह नवलखे ताजी घोड़े पर सवारी करता है।” 

पंडित ने चिठ्ठी को जनेऊ के साथ रखा, एक सहस्र स्वर्ण मुद्राएँ गाँठ में बाँधी और यात्रा के लिए आवश्यक सामग्री ली। राजमती ने उस सकुशल यात्रा के लिए परामर्श देते हुए कहा कि वह घी अधिक खाए, जिससे उसके पाँवों में स्फूर्ति रहेगी, वह साबर की पगरखी पहने और अच्छे मुहूर्त में कूच करे। पंडित ने राजमती से आश्वस्त किया कि वह घर जाए, वह ज़रूर उसके स्वामी को लेकर आएगा। राजमती ने शकुन की सात सुपारियाँ को उसकी गठरी में बाँध दिया और वह हाथ जोड़कर उसके पाँव लगी। 

पंडित कोस भर ही चलने के बाद ही अंगारों पर सिकी हुई रोटियाँ तैयार कर के खाने बैठ गया। वह धीरे-धीरे चल रहा था। चलते समय उसे राजमती ने जो सीख दी थी, वह उसको भूल गया।  अंततः वह सातवें महीने उड़ीसा, जहाँ भगवान जगन्नाथ का ऐसा प्रभाव था कि बैल की जगह गाय हल खींचती थी, चावल रखकर माँड पिया जाता था और मार्ग में यात्रियों को सिंह और चोरों का भय नहीं था। जगन्नाथ के मंदिर में जाकर प्रार्थना करते हुए पंडित ने कहा कि ‘‘हे अमर काया और रतनारी आँखोंवाले जगन्नाथ! जिस समय पहाड़ और पृथ्वी नहीं थी, आप तब भी थे। आप धन्य हैं।”  

पंडित इसके बाद राजद्वार पर पहुँचा। उसने सिर पर तिलक लगा रखा था और शरीर पर चंदन का लेप कर रखा था। वह गले में रेशम का जनेऊ पहिने हुए था। राजद्वार का किवाड़ लाल चंदन का था और उसमें सोने की ही उसमें पटरियाँ लगी हुई थीं। नगर में घर-घर में द्वारों पर ऊँचे तोरण लगे हुए थे और सभी घरों में तुलसी और वेद-पुराण थे। उस देश में पाप का संचरण नहीं था- वहाँ जगन्नाथ की मर्यादा थी। पंडित ने राजभवन में प्रवेश किया। वह बीजौरा (फल विशेष) लेकर राजा बीसलदेव से मिला। उसने राजा को आशीर्वाद दिया कि जब तक गंगा और यमुना में जल बहे, जब तक चंद्र और सूर्य प्रकाशित होते रहे, तब तक अजमेर में उसका राज्य रहे। पंडित ने राजमती की चिठ्ठी राजा के हाथ में दी। राजा ने उससे पूछा कि वह किसके साथ आया है और किस रानी ने उसको भेजा है। पंडित ने उत्तर दिया कि रानी राजमती ने उसको संदेश दिया है कि है वह घर आए, क्योंकि पुनः इस जीवन में वह यौवन-लाभ कहाँ करेगा?

राजा बीसलदेव ने पंडित से पूछा कि “हे पंडित! राजमती को तूने किस प्रकार से देखा?” पंडित ने कहा कि वह गवाक्ष में बैठी हुई मोती पिरो रही थी। उसका चित्त अच्छा था और मन उज्ज्वल और शुद्ध था। दूर से ही उसने यह उसे संदेश दिया। पंडित ने कहा कि यदि वह आज नहीं चलता है, तो उस स्त्री राजमती का हृदय फट जाएगा और वह मर जाएगी।

दोनों राजा भीतर चले गए। उड़ीसा के राजा ने अपनी पटरानी को बुला लिया। राजा ने उससे कहा कि “उलगाना (प्रवासी) अब घर जा रहा है। रानी ने आँखों में आँसू भरकर नमस्कार किया और कहा कि “हे मेरे भाई! तुम चिरंजीवी हो।” उसने कहा कि घर मत जाओ- मैं राजाओं की बहनों, भतीजियों और कुमारियों से तुम्हारे चार विवाह कराऊँगी, जिनमें से दो गोरी और दो साँवली होंगी।” बीसलदेव ने कहा कि ‘‘हे बहन! आपने यह स्नेशवश कहा है। मेरे घर पर एक सहस्र स्त्रियाँ हैं, जिनमें सभी एक से से बढ़कर एक हैं। उनमें से मेरी एक स्त्री तो संसार का रत्न है। वह मेरी प्रेम-प्रिया है और मेरी वल्लभा है। उसका पीहर मांडव और धार में है।”

4.

उड़ीसा के राजा ने रुद्ध कंठ के साथ बीसलदेव को पान का बीड़ा दिया और अपने साथ आसन बिठाया। उसने कहा कि “हे मेरे सगे स्नेही! तुम आज मुझे छोड़कर जा रहे, तो अब पीछे मेरी रक्षा करने वाला कोई नहीं है। मेरे लिए आश्चर्य यह है कि तुम तो स्त्री के कारण यह राज्य को छोड़ रहे हो।” उड़ीसा राजा ने उससे आगे कहा कि ‘‘तुम चार सौ ऊँटों में अर्थ, द्रव्य, हीरे और बहुमूल्य पत्थर भर लो।” राजा ने कुछ विचार करके फिर कहा कि ‘‘यदि तुम मेरा कहना मानो, तो आज के स्थान पर कल इसी समय जाओ।”

किसी ने कहा एक असाधारण योगी है, जो अपने विद्याबल से तत्काल अजमेरगढ़ जा सकता है। राजा ने कहा कि योगी को बुलाओ और उससे उसकी इच्छा पूछो और अजमेर जाने के बदले वह बारह गाँव के समान पाटन आदि जो माँगे, उसको दो। योगी ने आकर राजा से कहा कि “हे राजा! तू तो यहाँ परदेश में है और वहाँ तेरे राजभवन में कई रानियाँ हैं। तेरा पत्र किसको देना है, यह मैं दिव्य दृष्टि से नहीं देख पा रहा हूँ। अजमेर जाकर मैं उसको भूल सकता हूँ।” राजा ने उसको राजमती की पहचान बताते हुए कहा कि ‘‘हे योगी! राजमती के हाथ कमल के समान कोमल है, मूँगफली जैसी उसकी उँगलियाँ है, अधर प्रवाल के रंग के हैं, मुख मयंक के समान है, बोल वह स्त्री बढ़-बढ़ कर बोलती है, उसके दाँत दाड़िम जैसे और उसकी कमर चीते की कमर जैसी है।”

राजमती का होठ फड़क रहे थे और बाँह लहलहा रही थी। इन शकुनों से उसे लगा कि आज या तो प्रियतम का कुछ लिखा आएगा या वे स्वयं मिलेंगे। उसके अंग फड़क रहे थे, शरीर हिल-हिल जाता है और कमर पर का चीर अपने स्थान पर रुक नहीं रहा था। उसने अपनी सखी से कहा कि लगता है कि आज प्रियतम आएँगे। योगी अजमेर जाकर राजद्वार पर बैठ गया। उसके शरीर में भस्म और मस्तक पर विभूति लगी हुई थी। आक और धतूरा उसके सिर पर रखा हुआ था। इधर बाँदियाँ राजमती को हवा झल रही थी और वह मोती पिरो रही थी। उसने जब यह समाचार सुना, तो मोती उछाल दिए।

योगी द्वारा लायी गयी चिठ्ठी राजमती ने अपने हाथ में ली और सात सहेलियाँ साथ वह और चौखंडी में जाकर बैठ गई। राजमती मन में उल्लास के साथ चिठ्ठी पढ़ने लगी। उसे लगा जैसे वह प्रियतम के पास ही बैठी हुई है। उसने चिठ्ठी को गले से लगा लिया, जैसे बछड़े से गाय  मिली हो। उसके नेत्रों से लहू गिर रहा था। सुख के उस रुदन में उसका हार भीग गया। उसने अपने मन में सोचा कि “जिसके बिना घड़ी भर नहीं जी पाती थी, अब उसी से पत्र व्यवहार की नौबत आ गई है।” 

योगी भूखा था, इसलिए कुछ बता नहीं रहा था। भैंस का दही, घेवर, भात, कटोरे में दूध, खीर, अच्छा चावल और मक्खन लाकर राजमती ने उसके सम्मुख रखा और फिर निवेदन किया कि अब वह धीरे-धीरे उसके प्रिय के संबंध में बताए। योगी ने कहा कि उसका स्वामी आज से तीसरे दिन घर आ जाएगा। राजमती ने उसे उपहार में मोती, अर्थ भंडार, हीरे और बहुमूल्य पत्थर दिए। 

राजमती अब अ‍हुत प्रसन्न थी। उसने सखी से कहा कि “आज तलहटी में नगाड़े घुमड़ रहे हैं, जिससे लगता है कि बीसलदेव चौहान घर आ गए हैं।” उसने कहा कि “घर-घर बधाई दो, घर-घर में तोरण लगाओ, मंगल-चार करो और पताकाएँ फहराओ। हे सखी! मेरा मूर्ख भरतार घर आ गया है।” उसने आगे कहा कि “पति के प्रवास की इस अवधि को मैंने निष्कंलक व्यतीत किया है।। अच्छी बात यह हुई कि इस बढ़ते हुए यौवन और बढ़ती हुई विरह की ज्वाला में भी मेरे चरित्र पर लांछन नहीं लगा।” अब बीसलदेव घर आ गया। राजमती ने अर्जुन की भाँति शृंगार किया- उसने भ्रू-चाप चढ़ा लिया है और नवांकुरित पयोधरों को बाण की तरह खींचकर उसने स्वामी को लक्ष्य करके कंचुकी को खोल दिया। बारह वर्ष बाद राजमती बीसलदेव से मिली। बीसलदेव का हाथ राजमती के हृदय पर और उसकी बाँह उसके गले में थी। अत्यंत अनुरागपूर्वक राजा बीसलदेव ने उस अबली-सबली (सजी-धजी) स्त्री का चुंबन कर उसका आलिंगन किया। राजमती ने इस पर कहा कि “मैं अपनी सखियों में लज्जित हूँ, क्योंकि मेरी कंचुकी तुम्हारी पीक से भीग गई है।”

राजमती मुस्कराती है, हँसती है और आलिंगन देती है, किंतु न पलंग पर बैठती है और न बीसलदेव द्वारा दिया हुआ पान ग्रहण करती है। वह खड़ी-खड़ी उलाहना दे रही है। वह कहती है कि ‘‘हे स्वामी! तुम उँगली तोड़ रहे और बाँह मरोड़ रहे हो, तुम्हारा भरोसा क्या किया जाए? तुमने बारह वर्षों तक मुझे क्यों छोड़ रक्खा था? यह तेरा चटकना-मटकना मुझे अच्छा नहीं लगता है। तू मेरे हृदय पर हाथ मत लगा। हे निष्ठुर! तुझे लज्जा नहीं आती। मैं मना कर रही थी, तो तू प्रवास पर क्यों गया? तूने मेरी बाल वय को भी नहीं देखा। हे निगुणी! स्वामी तूने मुझे छोड़ क्यों दिया?” राजमती व्यथित थी। उसने राजा को आड़े हाथों लेते हुए फिर कहा कि ‘‘ऊलग (प्रवास) जाकर, हे स्वामी! तूने कौन-सा बुद्धिमानी का कार्य किया? न तूने स्त्री का सिर गूँथा, न उसकी बाँहों को सिर के नीचे रख कर शयन किया, न उसके कठिन पयोधरों को मला, न उसके कदली-गर्भ जैसे कोमल शरीर का मर्दन किया, न उसके जंघ-युग्म को देखा और न रमणी के साथ अनुराग के साथ केलि की। तू तो देव का सताया लौटा है। हे स्वामी! सही तो यह है तुमने घी का तो व्यापार किया, किंतु खाया तेल ही है।”

राजमती प्रियतम के मंदिर (राजभवन) को जा रही थी। वह जूनागढ़ का दुपट्टा और चादर ओढ़कर रुक-रुक कर पैर रखती थी। सफ़ेद चंदन उसने कटोरे में भर लिया था। शृंगार करके करके वह शय्या पर आई और वहाँ सद्गुणवती कामिनी की समान केलि करने लगी। उसकी कनक-काया कुमकुम की रोली जैसी थी। उसके कठिन पयोधर सोने की कटोरियों के समान थे। कदली गर्भ जैसी वह कोमलांगी थी। वह घायल के सदृश अपने अंगों को ख़ींच लेती थी और अपनी कमर को हिलाती थी। उसकी विरह-वेदना को कोई नहीं जानता।

जिस प्रकार रानी राजा से मिली, उसी प्रकार इस संसार में सभी कोई मिलें।

 

 
 
 

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© 2016 by Madhav Hada

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