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आलेख | Articles

रैन भई चहुँ देस । अमीर खुसरो का व्यक्तित्व । समालोचन । 17 जनवरी, 2023

हिंदी में अमीर ख़ुसरो (1262-1324 ई.) को एक कवि के रूप विख्यात हैं, लेकिन इसमें उनके असाधारण व्यक्तित्व के संबंध में इसमें जानकारियाँ बहुत सीमित हैं। ‘कोई मृत पूरी तरह ख़ुश हो ही नहीं सकता’, यह पंक्ति उनके जीवन का ध्येय और आदर्श थी। जो मर गया, वह उनका कितना ही प्रिय हो या उन पर उसकी कितनी ही कृपा रही हो, वे उसको पूरी तरह भूल जाते। उनके समय में ग्यारह सुल्तान हुए और उनमें से अधिकांश अपने पूर्ववर्ती की हत्या कर सत्तारूढ हुए, लेकिन ख़ुसरो इन सबके प्रिय और कृपापात्र बने रहे। ख़ुसरो के रग-रग में कला थी, लेकिन दुनियावी मामलों में बहुत चतुर व्यक्ति थे। ख़ुसरो का अपने संरक्षक के साथ शुद्ध व्यावहारिक रिश्ता था और वे अपने संरक्षक के राजनीतिक मंसूबों से अपने को पूरी तरह अलग रखते थे।

भक्ति में लालसा का लिंग निर्धारण  

मधुमती । जनवरी, 2022

भारतीय साहित्य की कई ख़ूबसूरतियों में से एक उसमें प्रेम और विरह की निरंतर, सघन और मुखर मौजूदगी है। यह स्वर कहीं लौकिक, कहीं अलौकिक और कहीं लौकिक से अलौकिक होता हुआ है। भारतीय सौंदर्यशास्त्र भी साहित्य में इसकी व्यापकता को ध्यान में रखकर इसकी व्याख्या, विवेचन और वर्गीकरण करता है। यह विवेचन-वर्गीकरण और विवेचन आरंभ में जीवंत और बाद में कुछ हद तक यांत्रिक होता गया है, लेकिन यह बहुत स्वाभाविक है, क्योंकि शास्त्र अकसर कविता के पीछे चलता और यह उससे पिछड़ भी जाता है। भारतीय कविता में प्रेम और विरह की मौजूदगी को जानने-समझने की परंपरा भी बहुत पहले से है। भारतीयों सहित कुछ विदेशी विद्वानों ने इस तरह के प्रयास किए हैं। इस सदी की शुरुआत में भारतीय संत-भक्ति साहित्य के अमरीकी विद्वान जोन स्ट्रैटन हौली की पुस्तक थ्री भक्ति वोयसेज़ में आयी और इसका हिंदी अनुवाद भक्ति के तीन स्वर नाम से 2019 ई. में प्रकाशित हुआ। यह पुस्तक तीन प्रमुख भारतीय संत-भक्तों- मीरां, सूर और कबीर पर एकाग्र है। हौली की ख्याति पाठानुसंधान और पाठनिर्भर आलोचना के लिए है। ......

प्रतिरोध के अभिप्राय और तुलसीदास का महत्त्व 

समालोचन । 18 अगस्त, 2021

तुलसी परंपरा के समर्थन में और उसके साथ हैं, यह बात आजकल उनकी महिमा के क्षरण का कारण बन गयी है। हिंदी में जब से विमर्शों का फ़ैशन चलन में आया है, तब से तुलसी सहित सभी प्राचीन और मध्यकालीन कवियों को केवल उनके दलित और स्त्री संबंधी सरोकारों तक सीमित कर उनकी महिमा के दूसरे आयामों की उपेक्षा की जा रही है। कुछ विद्वान् तुलसी को कबीर के सामने रखकर उनकी कविता में परंपरा के विरोध के अभाव को भी उनकी कमज़ोरी बता रहे हैं। हिंदी में साहित्य के मूल्यांकन में इस तरह प्रतिरोध की चेतना का सर्वोपरि और एक मात्र कसौटी के रूप में मान्य और स्वीकार्य हो जाना और इससे साहित्य की समझ और उसके महत्त्व के निर्धारण की दूसरी कसौटियों का हाशिये पर चले जाना अच्छा संकेत नहीं है। तुलसी का मूल्यांकन और महत्त्व निर्धारण केवल प्रतिरोध की चेतना के कुछ रूढ आभिप्रायों के आधार पर नहीं किया जाना चाहिए। उनमें प्रतिरोध की चेतना नहीं है, यह धारणा ग़लत है। उनका प्रतिरोध परंपरा के दायरे में है और यह ढोल बजाकर किए गये प्रतिरोध से अधिक प्रभावी और स्वीकार्य है। अन्याय और उत्पीड़न का प्रतिरोध किसी भी समाज के सांस्कृतिक रूपों में बहुत ज़रूरी है, लेकिन यह किसी भी स्वस्थ समाज की असामान्य अवस्था है। ...

ऊधो! कोकिल कूजत कानन | सूरदास के भ्रमरगीत प्रसंग का पाठ–पुनः पाठ

कवि सूरदास के साहित्य में वात्सल्य और श्रृंगार के साथ-साथ सगुण और निर्गुण के द्वंद्व का तीखा बोध है, इसके साथ ही उनके काव्य-संसार में उनका समय भी बोलता है. वे अपने समाज से निरपेक्ष कवि नहीं हैं. प्रसिद्ध आलोचक प्रो. मैनेजर पाण्डेय की पुस्तक ‘भक्तिकाल और सूरदास का काव्य’ में किसान जीवन, गाँव और शहर के द्वद्व तथा राजनीतिक अभिप्रायों आदि की पहचान की गयी है. ख़ुद सूर एक जगह लिखते हैं-

‘हरि हैं राजनीति पढ़ि आए.’ या ‘राजधर्म सब भए सूर, जंह प्रजा न जाए सताए’ (भ्रमरगीत सार)

यह कितना समकालीन और प्रासंगिक  है, ज़ाहिर है सूर को शासक वर्ग की खबर थी. आलोचक माधव हाड़ा ने अपने आलेख में इस विषय का विस्तार किया है. प्रस्तुत है.

सूरदास की कविता पर विचार करते हुए हजारीप्रसाद द्विवेदी ने रवींद्रनाथ की कविता ‘वैष्णव कविता’ की कुछ पंक्तियाँ उद्धृत की हैं, जिनका आशय है यह है कि “हम जो चीज़ देवता को दे सकते हैं वही अपने प्रिय को देते हैं ‌और प्रियजन को दे सकते हैं वही देवता को देते हैं! ....

कोई निंदौ कोई बिंदौ | समय पत्रिका । फरवरी, 2021 में प्रकाशित

मीरां के जीवन और समाज पर एकाग्र पुस्तक पचरंग चोला पहर सखी री 2015 में आयी और अब 2020 में इसका प्रदीप त्रिखा द्वारा अनूदित अंग्रेजी संस्करण मीरां वर्सेस मीरां प्रकाशित हुआ है। गत पाँच वर्षों के दौरान इसके हिंदी संस्करण की तद्भव, बनास जन, जनकीपुल, इंडिया टुडे, शुक्रवार, पूर्वग्रह, पुस्तक वार्ता, साखी, विपाशा, जनसत्ता, हंस, समकालीन भारतीय साहित्य वागर्थ, नया ज्ञानोदय आदि पत्र-पत्रिकाओं में समीक्षाएँ प्रकाशित हुईं, इस पर एकाधिक कार्यक्रम हुए और इनमें इस पर सकारात्मक और नकारात्मक, दोनों प्रकार की प्रतिक्रियाएँ हुईं। यह टीप पचरंग चोला पर कोई सफ़ाई या उसका समर्थन नहीं है। यहाँ उन संकल्पों और विश्वासों का केवल ख़ुलासा है, जो मीरां को जानने-समझने की यात्रा के दौरान हमेशा मन में रहे।

मीरां की कविता की एक पंक्ति है- कोई निंदौ कोई बिंदौ, मैं तो चलूंगी चाल अपूठी। मतलब यह कि कोई निंदा करे या सराहना, मैं ‘अपूठी’ चलूंगी। ‘अपूठी’ का मतलब है उल्टा या विमुख। अपने इस निश्चय के कारण मीरां का जीवन और कविता रूढ़ि से अलग और रूपक से बाहर है। पचरंग चोला में मीरां के इस अलग और ख़ास रूप की पहचान का प्रयास है।

छायावाद, सौ साल बाद । मधुमती, फरवरी, 2021 में प्रकाशित

सौ साल बाद छायावाद पर विचार करना किसी बहुत पुराने बक्से के कपड़ों-गहनों को टटोलने-सँभालने जैसा है। जाहिर है, टटोलने-सँभालने का यह अनुभव बहुत मिलाजुला होगा- गहनों-कपड़ों को टटोलते हुए हम पाएँगे कि उनमें से कुछ सड़-गल गए हैं, कुछ का फैशन वापस आ गया है और कुछ ऐसे हैं जो चलन से बाहर हो गए हैं। छायावाद की स्थिति भी कमोबेश ऐसी ही है- उसका कुछ अब अनुपयोगी-अप्रासांगिक हो गया है, तो कुछ की चलन में वापसी हो गई है और कुछ ऐसा है, जो मूल्यवान तो बहुत है, पर अब यह चलन में नही है। छायावाद का महत्त्व निर्विवाद है। छायावाद कई मायनों में आधुनिक हिंदी कविता का प्रस्थान बिंदु है- यहाँ से कई प्रवृतियाँ शुरू हुईं, जिसमें से कुछ तो वहीं ठहर गईं  और  कुछ का आगे पल्लवन और विस्तार हुआ। सौ साल बाद छायावाद को पढ़ते-समझते हुए यह ध्यान में रखना चाहिए कि यह एक आंदोलन था और आंदोलन का अच्छा-बुरा जो होता है, वो सब इसमें भी था।.............

समालोचन में प्रकाशित गोरा-बदल-पद्मिनी चउपई  का हिंदी कथा रूपांतर

महाकवि जायसी कृत ‘पदमावत’ के ४८ वर्ष बाद 1588 ईस्वी में हेमरतन ने ‘गोरा बादल पदमिणी चउपई’ की रचना राजस्थानी भाषा में की थी. लगभग ६१६ छंदों और दस खंडों की इस कृति का हिंदी रूपान्तर मध्यकालीन साहित्य के गहरे अध्येता और इधर मीरा पर हिंदी और उसके अंग्रेजी अनुवाद (Meera vs Meera) से चर्चा में रहे प्रो. माधव हाड़ा  ने किया है.इसका महत्व निर्विवाद है, और यह महत्वपूर्ण कार्य है. माधव हाड़ा ने प्रभावशाली और प्रामाणिक अनुवाद किया है.

जायसी की पदमावत और हेमरतन की इस कृति को सामने रखकर जहाँ हम दोनों की विशेषताओं को समझ सकते हैं वहीं उस समय की शासकीय मनोवृत्ति में स्त्री और शौर्य की केन्द्रीय उपस्थिति के विभिन्न आयामों पर भी रौशनी पड़ती दिखती है.

जायसी की पदमावत में जो महाकाव्यात्मक सौन्दर्य, दार्शनिक गहराई और ट्रेजिक अंत है वह उन्हें महाकवि बनाता है, और अपने समय में विशिष्ट भी. हेमरतन के इस ‘केळवस्यू साची कथा’ को पढ़ते हुए यह अहसास बराबर बना रहता है.  

‘गोरा बादल पदमिणी चउपई’ की अपनी कुछ अलग विशेषताएं हैं. अध्ययन और विवेचन का यह अब एक नया क्षेत्र खुल रहा है........

मीरां का कैनेनाइजेशन

मीरां के समय और समाज एकाग्र पुस्तक ‘पचरंग चोला पहर सखी री’ (2015) का प्रदीप त्रिखा द्वारा अनूदित अंग्रेज़ी संस्करण ‘मीरां वर्सेज़ मीरां’ वाणी बुक कंपनी, नयी दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। यहाँ इस पुस्तक के पाँचवें अध्याय ‘कैननाइजेशन’ का मूल हिन्दी पाठ दिया गया है। विद्वान आलोचक माधव हाड़ा का यह काम मीरां के जीवन और काव्य को देखने का एक नया नज़रिया देता है और इसके अंग्रेज़ी अनुवाद से यह किताब बड़े पाठक वर्ग में मीरां की रूढ़ छवि के बरक्स उसकी एक नई छवि को लेकर जाएगी। माधव हाड़ा आजकल इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ एडवांस्ड स्टडी में फ़ेलो हैं और पद्मिनी पर शोध कर रहे हैं-

इतिहास में मीरां की रहस्यवादी और रूमानी संत-भक्त और कवयित्री छवि का बीजारोपण उपनिवेशकाल में लेफ्टिनेंट कर्नल जेम्स टॉड ने किया।....

वेब पत्रिका जानकीपुल में प्रकाशित ।

कथा और कथेतर का उस्ताद

स्वयं प्रकाश जी अब कीर्तिशेष हैं। अस्वस्थ तो वे थे, लेकिन इतने जल्दी नहीं रहेंगे, यह किसी को पता नहीं था। वे खुद भी अपने स्वस्थ हो जाने के संबंध में आश्वस्त थे। उनकी ख्याति कथाकार के रूप में है, लेकिन वे अपने बातचीतवाले लयदार अनोखे रचनात्मक गद्य के लिए भी जाने जाएंगे। उनकी कथा और कथेतर रचानाओं का गद्य हिंदी का अपना सहज जातीय गदय है। उनकी सोच आम हिंदी लेखकों से कुछ तक अलग थी – उनके यहां  तकनीक, ग्लॉबलाइजेशन और अन्य नए बदालावों को लेकर कोई रोना-धोना नहीं है। उन्होंने न तो इनसे परहेज किया और न ही इनकी अनदेखी की, जैसा अक्सर हिंदीवाले करते हैं- उन्होंने आमने–सामने होकर इन पर गंभीरता से विचार किया।    

​हंस, जनवरी - मार्च, 2020 में प्रकाशित।

भक्ति आंदोलन की पह्चान पर पुर्विचार 

हिन्दीभाषी समाज और अकादमिक जगत में भक्ति आंदोलन की जो पहचान और समझ बनी हुई है, वो कुछ हद तक अधूरी है। यह ऐसी पहचान है जो इस देशव्यायी और यह आठ-दस शताब्दियों के विस्तार में फैले हुए बहुभाषिक आंदोलन के वैविध्य को अपने भीतर नहीं समेटती। एक तो यह आंदोलन केवल कबीर, सूर, तुलसी और जायसी तक ही सीमित नही था, जैसाकि हिंदीभाषी समाज जानता है और दूसरे, यह केवल धर्म और लोकोत्तर की ही चिंता नहीं करता, जैसाकि इसके संबंध में प्रचारित है और तीसरे, इस आंदोलन ने सांस्थानिक रूप भी लिया और इसके पंथों-मार्गों ने सामाजिक विकास की प्रक्रिया में सकारात्मक भूमिका निभाई, लेकिन इसको सही अर्थ में पहचानने के उपक्रम बहुत कम हुए। भक्ति आंदोलन बहुत व्यापक, दीर्घकालीन और अनेक विविधताओं वाला आंदोलन था और पार्थिव सरोकारों के साथ इसमें सामाजिक और राजनीतिक चिंताएँ भी खूब और निरंतर रहीं। यही नहीं, मार्गों के रूप में इसके संस्थानीकरण ने सदियों तक सामाजिक परिवर्तन को सकारात्मक दिशा देने का काम भी किया। भक्ति आंदोलन की कोई समग्र पहचान इसके वैविध्य को इसके स्थानिक और पार्थिव सरोकारों के साथ अलग से पहचान कर ही हो सकती है....

​बनास जन , जनवरी - मार्च, 2019 में प्रकाशित।

खुले में खड़े पेड़ पर कब्जे के खिलाफ

अज्ञेय ने अपने चिंतन में धर्म, संस्कृति और परंपरा पर विस्तार से विचार किया। वे भारतीय समाज को मूलतः एक धार्मिक समाज मानते थे और इस कारण धर्मनिपेक्षता के प्रचलित सतही अर्थ के साथ उनकी कुछ असहमतियां भी थीं। कुछ लोग इसको आधार बनाकर इधर उनके धर्म और संस्कृति संबंधी चिंतन को एक विशेष अर्थ में सीमित करने प्रयास कर रहे रहे हैं, जो ठीक नहीं हैं। दरअसल अज्ञेय की धर्म, परंपरा और संस्कृति संबंधी समझ बहुत व्यापक और उदार थी। वे भारतीय समाज की बहुकेंद्रिक संरचना और स्वतंत्रता के प्रति उसकी पारंपरिक प्रतिश्रुति को गहराई से समझते थे। वे उन कुछ लोगों में से हैं, जिन्होंने भारतीय संस्कृति को पश्चिम के बरक्स रखकर सहानुभूति और गहराई के साथ समझा। धर्म और संस्कृति संबंधी उनके विचार उन प्रतिगामियों से बिल्कुल अलग हैं, जो इधर उनको अपने बगलगीर करने की मुहिम में जुटे हुए हैं।

नया ज्ञानोदय , फरवरी, 2019 में प्रकाशित

हिंदी की साहित्यिक सक्रियता, 2018

 वर्ष 2018 के दौरान हुई किताबों की आमद और उन पर हुई चर्चा से लगता है कि हिंदी की रचनात्मक सक्रियता का चरित्र बहुत तेजी से बदल रहा है। संचार क्रांति, मीड़िया विस्फोट, ग्लॉबलाइजेशन और औपनिवेशिक पहचान से मुक्त होने के बढते आग्रह से उसमें कई बदलाव आ रहे हैं। एक तो यह कथा-कविता के सीमित दायरे से बाहर निकल रही है, दूसरे, इसमें विधायी अनुशासन का आग्रह कम हो रहा और तीसरे, इसका अंग्रेजी सहित अन्य भारतीय भाषाओं के साथ मेलजोल बढ़ रहा है।

प्रभात खबर, 30 दिसंबर, 2018 में प्रकाशित

लोक का सांवरा सेठ

राजस्थान-गुजरात में प्रचलित नरसीजी रो माहेरो  का साँवरा सेठ लोक द्वारा अपने सपनों और कामनाओं के अनुसार गढ़ा गया भगवान कृष्ण का लोकप्रिय मनुष्य रूप है। कृष्ण के लोक और शास्त्र में बालक, योद्धा, प्रेमी, परमेश्वर, मुक्तिदाता आदि कई रूप मिलते हैं, लेकिन उनके इस रूप का ग्रामीण जनसाधाराण से अपनापा सबसे अधिक है। यों कृष्ण के इस रूप पर फिल्म भी बनी,  कई वीडियो-ओडियो कैसेट्स भी आए, लेकिन गंभीर विमर्श में इसकी चर्चा बहुत कम हुई। कृष्ण का यह रूप बहुत अद्भुत है- यह लोक द्वारा अपनी इच्छा और ज‌रूरत के अनुसार अपने जैसा मनुष्य भगवान गढ़ने और उसको बराबर माँजते रहने का सबसे जीवंत उदाहरण है।

कादंबिनी, सितंबर, 2018  में प्रकाशित

भाषा में भाषा और भाषा से भाषा

विदेशी या बाहरी नज़रिये के अनुसार हमारा भाषायी परिदृश्य बहुत विचित्र है। यहाँ कहते हैं कि बारह कोस पर बोली बदलती है और यह सच है। हमारे यहाँ एक बोली के ही कई क्षेत्रीय रूप हैं। यहाँ बोलियाँ और भाषाएँ एक दूसरे से जुड़ी हुई भी हैं और कुछ मामलों में ये अलग भी हो जाती हैं। असमिया बंगला की एक बोली भी है और अलग भाषा भी है। हमारे प्राचीन और मध्यकालीन कवियों की रचनाएँ भी एकाधिक भाषाओं में मिलती हैं। ये गुजराती में हैं, तो इनके राजस्थानी और ब्रज रूपांतरण भी मिलते हैं और यदि ये मराठी में हैं, तो ये गुजराती और अन्य भाषाओं में भी उपलब्ध हैं। स्थिति यह है कि इन कवियों की रचनाओं पर एकाधिक भाषाओं के लोग अपनी होने का दावा करते हैं...........

वागर्थ , फरवरी, 2018 में प्रकाशित

इतिहास का ईंट-चूना

प्रसाद अन्वेषी या ‘शव साधक’ कोटि के इतिहासकार नहीं थे, लेकिन उन्हें इतिहास का ज्ञान था और इसमें उनकी गहरी दिलचस्पी थी। वे मूलतः साहित्यकर्मी थे और पुनरुत्थान संबंधी सजगता के कारण उन्होंने उपने साहित्य में अपने इतिहास संबंधी ज्ञान का उपयोग किया। अपने समकालीनों में वे साहित्य में इतिहास के अधिक और निरंतर उपयोग के कारण गड़े मुर्दे उखाड़ने वाले के रूप में जाने गए।प्रसाद का इतिहास बोध अलग मसला है। उनका इतिहासबोध भी कमोबेश उनके समकालीन नवजागरणकालीन साहित्यिकों की तरह का ही ।

वागर्थ, मई, 2016  में प्रकाशित

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