साक्षात्कार | INTERVIEWS
परंपरा की जगह कभी-कभी खूँटे ले लेते हैं।
माधव हाड़ा से पीयूष पुष्पम् का संवाद
पाठ । सं. देवांशु। जुलाई-सितंबर, 2024
"हिंदी में जैसा चलन है सभी शुरुआत आधुनिक से ही करते हैं, मैंने भी वही किया, लेकिन बाद में महसूस होने लगा कि हमें अपने अतीत और विरासत को पहले समझना चाहिए। हिंदी भारतीय मध्यवर्गीय जनसाधारण की ख़ास बात यह है कि अतीत को लेकर उसमें गर्व का भाव तो बहुत है, गाहे-बगाहे वह इसका आग्रह भी बहुत उग्र प्रतिबद्धता के साथ करता है, लेकिन इसकी सार-सँभाल और पहचान की कोई सजगता उसमें नहीं है।वह अपने अतीत को अच्छी और पूरी तरह जानता ही नहीं है। स्वस्थ समाज की स्मृति हमेशा बहुत सघन और मुखर होती है। महात्मा गांधी, रबींद्रनाथ ठाकुर आदि इस बात को जानते थे, इसलिए उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन की एक प्रवृत्ति के रूप भारतीय साहित्य और ज्ञान के पुनरुत्थान की मुहिम शुरू की। उनकी इस पहल पर देशज सरोकारोंवाले क्षितिमोहन सेन, विधुशेखर शास्त्री, मुनि जिनविजय, सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या, मोतीचंद, डी.डी. कोसांबी, के एम मुंशी, हजारीप्रसाद द्विवेदी, राहुल सांकृत्यान, काशीप्रसाद जायसवाल, गौरीशंकर ओझा आदि कई विद्वान् सक्रिय हुए। शांति निकेतन, गुजरात विद्यापीठ, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, भारतीय विद्या भवन, नागरी प्रचारिणी सभा, साहित्य संस्थान, उदयपुर जैसी कई संस्थाएं इसी मुहिम के तहत अस्तित्व में आयीं। विडंबना यह है कि आज़ादी मिलते ही इस मुहिम ने भी दम तोड़ दिया। हड़बड़ी और जल्दबाजी में ‘आधुनिक’ होने वाले विद्वानों ने भारतीय ज्ञान के पुनरुत्थान में लगे इन विद्वानों को विस्थापित कर दिया और इस निमित्त बनीं संस्थाएँ धीरे-धीरे दम तोड़ गईं या उनकी प्राथमिकताएँ बदल गयीं। विडंबना यह अधिकांश हिंदी शोध कार्य वर्तमान और कभी-कभी तो तत्काल पर एकाग्र हैं। यह भी आज़ादी के बाद आए अधिकांश हिंदी साहित्य की जड़ें यूरोपीय कला और साहित्य आंदोलनों में थीं। प्राचीन भारतीय साहित्य की खोज और पहचान का अभी बहुत काम शेष है और इसमें नये लोगों की प्रवृत्ति बहुत ज़रूरी है।"
इतिहास को लेकर हमारा नज़रिया अभी भी औपनिवेश्क है
आलोचक माधव हाड़ा की चर्चित कृति ‘पचरंग चोल पहर सखी री’ (2015) मध्ययुगीन संत-भक्त कवयित्री मीरांबाई के जीवन और समाज पर एकाग्र है, जिसका अंग्रेज़ी अनुवाद ‘मीरां वर्सेज़ मीरां’ 2020 में प्रकाशित हुआ और पर्याप्त चर्चा में रहा। यह कृति 32वें बिहारी पुरस्कार से सम्मानित भी हुई । उन्होंने भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में दो वर्षीय अध्येतावृत्ति के अंतर्गत (2019-2021) ‘पदमिनी विषयक देशज ऐतिहासिक कथा-काव्य का विवेचनात्मक अध्ययन’ विषय पर शोध कार्य किया, जो ‘पद्मिनी : इतिहास और कथा-काव्य की जुगलबंदी’ (2023) नाम से प्रकाशित हुआ है। प्राच्यविद्याविद् मुनि जिनविजय के अवदान पर भी उनका शोध कार्य है, जो साहित्य अकादेमी से प्रकाशित है । हाल ही में उन्होंने ‘कालजयी कवि और उनकी कविता’ नामक एक पुस्तक शृंखला का संपादन किया है, जिसमें कबीर, रैदास, मीरां, तुलसीदास, अमीर ख़ुसरो, सूरदास, बुल्लेशाह, गुरु नानक, रहीम और जायसी शामिल हैं। उनकी अन्य प्रकाशित मौलिक कृतियों में ‘वैदहि ओखद जाणै’ ( 2023) ‘देहरी पर दीपक’ (2021), ‘सीढ़ियाँ चढ़ता मीडिया’ (2012), ‘मीडिया, साहित्य और संस्कृति’ (2006), ‘कविता का पूरा दृश्य’ (1992), ‘तनी हुई रस्सी पर’ (1987) और संपादित कृतियों में ‘एक भव अनेक नाम’ (2021) ‘सौने काट ने लागै’ (2021) ‘मीरां रचना संचयन’ (2017) ‘कथेतर’ (2016) और ‘लय’ (1996) शामिल हैं। प्रस्तुत है उनकी सद्य प्रकाशित कृति "वैदहि ओख जाणै' पर उनसे असीम अग्रवाल की बातचीत ।
नया ज्ञानोदय । जुलाई-सितंबर, 2023
क्या पद्मिनी मिथ या कल्पना है?
मध्यकालीन साहित्य और उसके इतिहास पर आधारित आलोचक माधव हाड़ा की इधर कई पुस्तकें और महत्वपूर्ण आलेख प्रकाशित हुए हैं. ‘पद्मिनी : इतिहास और कथा-काव्य की जुगलबंदी’ उनका शोध कार्य है जिसे भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला ने हाल ही में प्रकाशित किया है. सर्वांग सुंदर स्त्री पुरुष-मनोजगत की ऐसी कामना रही है जिसने मृत्यु के पश्चात भी उसका पीछा नहीं छोड़ा है. क्या ‘पद्मिनी’ ऐसी ही कोई रति-कल्पना है. पद्मिनी की कथा का क्या कोई ऐतिहासिक आधार भी है? जैसे प्रश्नों पर प्रतिष्ठित आलोचक विजयबहादुर सिंह ने यह बातचीत माधव हाड़ा से की है. यह अकादमिक संवाद है इसलिए अवसरानुकूल तथ्य भी दिए गये हैं.
समालोचन, 6 जुलाई, 2023
सांचे-खांचे के बिना देखें मीरां
माधव हाड़ा ने अपनी आरंभिक पहचान कविता के आलोचक के रूप में बनाई थी। तनी हुई रस्सी पर और कविता का पूरा दृश्य जैसी किताबों से उन्होंने इसको पुष्ट भी किया। बाद में मीरां की कविता को समझने के क्रम वे इस पर शोध में संलग्न हुए। इस पर उनकी किताब आई पचरंग चोला पहर सखी री, जिसकी हिंदी समाज ने मुक्तकंठ से सराहना की। उन्होंने साहित्य अकादेमी के लिए मीरां रचना संचयन भी तैयार किया। उनके शोध और मीरां के जीवन पर केंद्रित बातचीत।
रोहितकुमार द्वारा लिया गया दैनिक जागरण, 4 दिसंबर, 2017 को प्रकाशित
हिंदी समाज अपने वर्तमान पर एकाग्र एवं उससे अभिभूत
उदयपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के आचार्य एवं अध्यक्ष माधव हाड़ा की शुरूआती पहचान कविता के आलोचक की बनी थी। तनी हुई रस्सी पर और कविता का पूर दृश्य जैसी आलोचना पुस्तकों के साथ उन्होंने राजस्थान के महत्त्वपूर्ण हिंदी कवियों पर निबंध लिखे थे। बीच मीडिया पर दो पुस्तकों के बाद उनकी दिलचस्पी मध्यकालीन साहित्य तथा प्राच्य विद्वानों में हुई। मीरां के जीवन पर गहन शोध और विश्लेषण पर आधारित उनकी पुस्तक चर्चा में रही है.. उनसे बातचीत के अंश
पल्लव द्वारा लिया गया राजस्थान पत्रिका, 25 दिसंबर, 2016 को प्रकाशित
मीरां लोक में बनती-बिगड़ती है।
मीरां पर अपनी शोधपरक पुस्तक पचरंग चोला पहन सखी री के लिए आलोचक माधव हाड़ा इन दिनों चर्चा में हैं। उदयपुर के मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय में हिन्दी के आचार्य और विभागाध्यक्ष हाड़ा इससे पहले समकालीन कविता पर दो तथा मीडिया पर दो पुस्तकें लिख चुके हैं। उनसे मीरां के जीवन के सम्बन्ध मे बातचीत हुई। प्रस्तुत है मुख्य अंश-
गणपत तेली द्वारा लिया गया फिफ्थ फ्लोर और अक्षर पर्व में 03 नवंबर, 2015 को प्रकाशित
चेतना के उपनिवेशीकरण से मुक्त होना जरूरी है।
भक्तिकाल की प्रतिनिधि स्त्री कवयित्री मीरां का जीवन और कविता साहित्यकारों और विमर्शवादियों में उत्सुक्रता का विषय का विषय रही है। प्रो. माधव हाड़ा गत एक दशक से मीरां पर गंभीर शोध कर रहे हैं। उनकी पुस्तक पचरंग चोला पहर सखी री चर्चित रही है। उनसे उनकी पुस्तकऔर मीरां से संबंधित सवालों को लेकर पल्लव ने बातचीत की ।
पल्लव द्वारा लिया गया हरिभूमि में 06 जुलाई, 2015 को प्रकाशित