पुतली ने आकाश चुराया । Putali Ne Akasha Churaya
राजपाल एंड संज़ , 1590, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, , दिल्ली- 11006
2024 | मूल्य पेपरबैक रु. 325 | ISBN 978-9389373875
परिचय । Introduction
पंक्ति ‘पुतली ने आकाश चुराया’ महादेवी वर्मा की एक कविता से उद्धृत है, जिसका आशय यह है कि हर समय और समाज की स्त्री का अपना अलग अस्तित्व, संसार और आकाश होता है। मध्यकालीन स्त्रियों का भी अपना आकाश है, जो उन्होंने ख़ुद बुना-रचा है। संकलित रचनाएँ इसी आकाश की रचनाएँ हैं। संकलन में भारतीय कथा-आख्यान परंपरा की आठ असाधारण और लगभग दुर्लभ मध्यकालीन रचनाओं का हिंदी कथा रूपांतर है। आठवीं से सत्रहवीं सदी के बीच रचे गए इन आख्यानों में स्त्रियाँ केंद्रीय चरित्र हैं। ये स्त्रियाँ अपनी प्रकृति में एकरैखिक नहीं हैं- ये अलग-अलग प्रकृति की स्त्रियाँ हैं, जिनकी अपनी अलग आकांक्षाएँ, इच्छाएँ, संकल्प और कार्य-व्यवहार हैं। ये स्त्रियाँ सर्वथा निष्क्रिय नहीं हैं- ये कुछ हद तक सक्रिय इकाइयाँ हैं, जो खुलकर अपने सुख-दुःख, इच्छा, संकल्प और भावनाओं को व्यक्त करती हैं। अपने जीवन के निर्धारण में इनकी अपनी भूमिका निर्णायक है- ये अकसर अपने निर्णय ख़ुद लेती हैं और उनको अमल में लाने के लिए प्रयत्नशील भी रहती हैं। इन मध्यकालीन नायिकाओं को कम लोग जानते हैं। यह किताब इन नायिकाओं से पाठकों की जान-पहचान करवाएगी।
पुस्तक के लेखक माधव हाड़ा मध्यकालीन साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान् हैं। उन्होंने मध्यकालीन साहित्य को समकालीन साहित्यिक विमर्श के केद्र में लाने का महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके मीरां, पद्मिनी और मध्यकालीन संत-भक्तों संबंधी कार्य निरंतर चर्चा में रहे हैं। उनकी इस संबंध में पुस्तकें और शताधिक लेख प्रकाशित हैं।
आमुख । Preface
संकलन में भारतीय कथा-आख्यान परंपरा की आठ मध्यकालीन रचनाओं का हिंदी कथा रूपांतर है। ख़ास बात यह है आठवीं से सत्रहवीं सदी के बीच लिखे गए इन आख्यानों में स्त्रियाँ केंद्रीय चरित्र हैं। ये स्त्रियाँ अपनी प्रकृति में एकरूप और एकरैखिक नहीं हैं- ये अलग-अलग प्रकृति की स्त्रियाँ हैं, जिनकी अपनी अलग-अलग आकांक्षाएँ, इच्छाएँ, संकल्प और कार्य-व्यवहार हैं। लगभग दस शताब्दियों के दौरान अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग सामाजिक-सांस्कृतिक और ऐतिहासिक ज़रूरतों के तहत अस्तित्व में आए इन आख्यानों की स्त्रियों का यह वैविध्य बहुत स्वाभाविक है। अकसर मध्यकालीन साहित्य की स्त्रियों को निष्क्रिय इकाइयाँ मान लिया जाता है, लेकिन यह भ्रांति है। ये स्त्रियाँ सर्वथा निष्क्रिय नहीं हैं- ये कुछ हद तक सक्रिय इकाइयाँ हैं, जो खुलकर अपने सुख-दुःख, इच्छा और भावनाओं को व्यक्त करती हैं। अपने जीवन के निर्धारण में इनकी अपनी भूमिका बहुत निर्णायक है- ये अकसर अपने निर्णय ख़ुद लेती हैं और उनको अमल में लाने के लिए प्रयत्नशील भी रहती हैं। पुरुषों के साथ इनका संबंध भी एकरूप नहीं है। यहाँ वे माँ, पत्नी, बहन, प्रेयसी, रानी आदि सभी भूमिकाओं में हैं, लेकिन पुरुषों के साथ उनका संबंध सदैव समर्पण, प्रेम और निष्ठा का नहीं है। जहाँ ज़रूरत हैं, वे इनमें पुरुषों के साथ द्वंद्व के संबंध में भी हैं।
1.
भारत में कथा-आख्यान की परंपरा बहुत समृद्ध और प्राचीन है। भारतीय कविता और इतिहास का भी कई तरह से इस परंपरा के साथ हमेशा गहरा और निरंतर संबंध रहा है। अपने समय की सांस्कृतिक-धार्मिक और ऐतिहासिक ज़रूरतों के तहत इसमें कई रद्दोबदल भी हुए, लेकिन ‘चित्त विनोद’ से इनका नाता हमेशा बना रह। उपदेश की सीमा तक बदल के जाने के बावजूद भी इनमें रोचकता हमेशा बनी रही। वेदों में कथा-आख्यान की मौजूदगी नाराशंसी, आख्यान, गाथा आदि कई रूपों में मिलती है। वेदों के कथा-आख्यानों के बीज रूपों का बाद में सदियों तक भारतीय साहित्य में विस्तार और पल्ल्वन होता रहा। कथा-आख्यान ब्राह्मण ग्रंथों में आकर वैविध्यपूर्ण हुए। बाद में यह परंपरा महाभारत, रामायण आदि के रूप में स्वतंत्र रूप में विकसित हुई। ईसा पूर्व की पहले सदी में वृहत्कथा की रचना के इस परंपरा के विकास का चरमोत्कर्ष था। गुणाढ्य की पैशाची प्राकृत में लिखी गयी यह रचना सदियों तक भारतीय कथा-आख्यानों के लिए खाद-पानी का काम करती रही। यह रचना बाद में अनुपलब्ध हो गयी, लेकिन संस्कृत और परवर्ती भाषाओं में इसके कई रूपांतर हुए। क्षेमेंद्र की बृहत्कथामंजरी, सोमदेव का कथासरित्सागर और बुधस्वामी का बृहत्कथाश्लोकसंग्रह, संघदास गणि की वासुदेवहिण्डी आदि वृहत्कथा पर निर्भर रचनाएँ हैं। पंचतंत्र, हितोपदेश, वेतालपंचविंशति आदि की कथाएँ भी इसी से ली गयी हैं। वृहत्कथा ने प्राकत, अपभ्रंश और परवर्ती देश भाषाओं की कथा-आख्यान परंपरा और लोक साहित्य को भी इस रचना ने बहुत गहरे और दूर तक प्रभावित किया। गुणाढ़्य को हमारी परंपरा में व्यास और वाल्मीकि के बराबर दर्ज़ा दिया गया है। मध्यकाल में भी यह कथा-आख्यान परंपरा कई रूपों में मिलती हैं।