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कथेतर | Kathetar

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कथेतर
संपादन
साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली , 2017, मूल्य : रु. 250, पृ. 240
ISBN: 978-81-260-5338-4
परिचय
हिन्दी कथेतर गद्य में सक्रियता है।  इस समय नए गद्यरूपों  की  तलाश भी हैं और पुरानों को पुनर्नवा करने का प्रयास भी। गद्य विधाओं में अंतर्क्रिया भी बढ गई है। प्रस्तुत संकलन में में इस नई सक्रियता की पहचान और पड़ताल करनेवाले अमृतलाल वेगड़, हेतु भारद्वाज, पल्लव,  दुर्गाप्रसाद अग्रवाल, रंजना अरगड़े, हनुमानप्रसाद शुक्ल, अरुणेश नीरन, भारती गोरे, प्रेमचंद गांधी, रामशंकर द्विवेदी, महावीर अग्रवाल अखिलेश, स्वयं प्रकाश, मोहनकृष्ण बोहरा और कातिकुमार जैन आलेख सम्मिलित किए किए हैं।
संकलन के आरंभिक स्वयं प्रकाश, अजितकुमार, अखिलेश, पल्लव और प्रेमचंद गांधी के आलेख हिन्दी कथेतर गद्य में इधर आई सक्रियता की पहचान और पड़ताल करते हैं। इनमें कथेतर गद्य विधाओं में होनेवाले रद्दोबदल और अंतर्क्रिया का जायज़ा लिया गया है। हेतु भारद्वाज का आलेख हिन्दी गद्य के समक्ष आई नई चुनौतियों से रूबरू करवाता है, जबकि सूर्यप्रसाद दीक्षित का आलेख हिन्दी गद्य में विकसित कतिपय नई, लेकिन गौण विधाओं की पहचान करता है। हिन्दी में इधर कई नए ढंग के यात्रावृत्तांत आए हैं। इस विधा के हिन्दी में बनते-बदलते रूप को उसकी परंपरा के परिप्रेक्ष्य में अमृतलाल वेग़ड़ और दुर्गाप्रसाद अग्रवाल ने अपने आलेखों में देखा-समझा है।
यह संस्मरण का समय है। आजकल हिन्दी में संस्मरण लिखने की होड़ लगी हुई है। इस अनुशनान के विधायी चौखटे में होने वाले बदलावों की पहचान मोहनकृष्ण बोहरा के लंबे आलेख में है। संस्मरण में विधायी रद्दोबदल सबसे अधिक हुए हैं। यह आलेख कमोबेश इन सबकी पड़ताल करता है। अन्य आत्मपरक गद्य विधाओं से संस्मरण की तुलना और संस्मरणकारों पर विचार भी लेखक ने अलग से किया है, लेकिन विस्तार भय से इसे यहाँ नहीं दिया गया है। रंजना अरगड़े के आलेख में हमारे समय में संस्मरण के नए अवतार को समझने का प्रयास है।

यह संस्मरण का समय है। आजकल हिन्दी में संस्मरण लिखने की होड़ लगी हुई है। इस अनुशनान के विधायी चौखटे में होने वाले बदलावों की पहचान मोहनकृष्ण बोहरा के लंबे आलेख में है। संस्मरण में विधायी रद्दोबदल सबसे अधिक हुए हैं। यह आलेख कमोबेश इन सबकी पड़ताल करता है। अन्य आत्मपरक गद्य विधाओं से संस्मरण की तुलना और संस्मरणकारों पर विचार भी लेखक ने अलग से किया है, लेकिन विस्तार भय से इसे यहाँ नहीं दिया गया है। रंजना अरगड़े के आलेख में हमारे समय में संस्मरण के नए अवतार को समझने का प्रयास है।

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