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भारतीय भक्ति-चेतना : पार्थिव चिंताएँ एवं सरोकार
तद्भव । अंक - 51 भारतीय भक्ति-चेतना में केवल लोकोत्तर सरोकार और चिंताएँ नहीं है, इसमें पार्थिव सरोकार और चिंता भी है। यह व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक और कुछ हद तक राजनीतिक चेतना भी है। भारतीय परंपरा में उपनिवेशकाल से पहले तक ‘धर्म’ शब्द बहुत व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होता था। मध्यकाल और उससे पहले तक अधिकांश सामाजिक-राजनीतिक-गतिविधियाँ धर्म के दायरे के भीतर ही होती थीं। किसी भी सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक गतिविधि की सामाजिक स्वीकार्यता लिए उसका धर्म के दायरे में होना ज़रूरी था।

Madhav Hada
2 days ago23 min read


भारत में भक्ति की चेतना
'साहित्य तक’ पर श्री जयप्रकाश पांडेय से संवाद भारत में भक्ति की चेतना प्राग्वैदिककाल से निरंतर है। देश के विभिन्न क्षेत्रों की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक ज़रूरतों के तहत इसके कई रूप और प्रवृत्तियाँ रही हैं और सदियों से इनमें अंतःक्रियाएँ और रूपांतरण होता रहा है। भक्ति अगाध अनंत’ (राजपाल एंड संज़ एवं रज़ा न्यास का सह प्रकाशन) में इस सब्को समेटने का प्रयास किया गया है। यह सीमित अवधि का कोई ‘आंदोलन’ या ‘क्रांति’ नहीं है। यह केवल परलोक-व्यग्र चेतना भी नहीं है- मनुष्य की पार्थिव चिंताएँ

Madhav Hada
3 days ago1 min read


मैंने लाख त्रिया चरित्र किए
राजमती । नरपति नाल्ह । बीसलदेवरास ‘बीसलदेवरास’ कुछ विद्वानों के अनुसार हिंदी का पहला काव्य है, लेकिन इसकी रोचक और सरस कथा के संबंध में कम...

Madhav Hada
Sep 1324 min read
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