
एक भव-अनेक नाम । Ek Bhav Anek Nam
वाग्देवी प्रकाशन
सी-21, प्रथम तल, सेक्टर-65, नोएडा । उत्तर प्रदेश । 201301 । ISBN : 978-93-80441-74-0
परिचय | Introduction


'एक भव-अनेक नाम' अपनी जीवन यात्रा के लिए यह नाम स्वयं मुनि जिनविजय ने ही चुना। अपना आरम्भिक जीवन उन्होंने एकाधिक नामों- किशनसिंह, किशन भैरव, मुनि किशनलाल आदि के साथ जिया। मुनि जिनविजय उनके आरम्भिक जीवन की अंतिम पहचान थी, इसलिए शेष जीवन में वे इसी नाम से जाने गये। उन्होंने महात्मा गांधी के आग्रह पर मुनि जीवन छोड़ दिया और पूरी तरह प्राचीन साहित्य के अन्वेषण और संरक्षण के काम जुट गये। उनके काम की अनदेखी हुई- ऐसा एक तो यह उनके नाम से जुड़े ‘मुनि’ शब्द के कारण हुआ और दूसरे, अपने वर्तमान पर मुग्ध और उससे अभिभूत विद्वान् हमारी समृद्ध प्राचीन साहित्यिक विरासत से सम्बन्धित उनके काम की सुध लेना ही भूल गये। उनकी एक कविता की पंक्ति चलता रहा मैं सारा जीवन जैसे उनके जीवन का निचोड़ है। वे कभी और कहीं नहीं ठहरे, निरन्तर चलते रहे। उन्होंने लगभग दो सौ से अधिक प्राचीन ग्रंथों का अनुसंधान और सम्पापदन-पाठालोचन किया-करवाया, कई संस्थाएँ बनाईं- उन्हें ऊँचाई पर पहुँचाया, महात्मा गाधी के आग्रह पर असहयोग आन्दोलन मे भाग लिया और चित्तौड़गढ़ के निकट चंदेरिया में सर्वोदय साधना आश्रम की स्थापना की। वे कभी एक जगह के नहीं हुए- अहमदाबाद, पूना, बड़ौदा, शांति निकेतन, मुंबई, जोधपुर, जयपुर, चंदैरिया आदि कई जगहों को उन्होंने अपना कार्यस्थल बनाया। वे यूरोप भी गए। उन्होंने जब जो किया, पूरी निष्ठा और मनोयोग से किया और जब उसको छोड़ दिया, तो फिर उस तरफ़ मुड़ कर भी नहीं देखा।
मुनि जिनविजय ने अपने आरम्भिक जीवन का अद्भुत वृत्तान्त- जिनविजय कथा और मेरी जीवन प्रपंच कथा नाम से लिखा, लेकिन महात्मा गांधी की तरह उन्होंने भी अपने सक्रिय और उपलब्धिमूलक जीवन का वृत्तान्त नहीं लिखा। जीवन के अंतिम चरण में उन्होंने केवल अपने पत्राचार को मेरे दिवंगत मित्रों के पत्र नाम से प्रकाशित करवाया। वे अपने जीवन को लेकर बहुत निर्मम थे। उन्होंने इस सम्बन्ध में लिखा कि “मेरे जीवन के इन क्षुद्र अनुभवों में किसी के कुछ ग्रहण करने योग्य बात नहीं है।” यह उनकी विनम्रता थी, अन्यथा भारतीय इतिहास, पुरातत्त्व, संस्कृति और साहित्य की बुनियाद के लिए विपुल सामग्री जुटानेवाले इस मनीषी के
आलोचक और अध्येता माधव हाड़ा ने मुनिजी से सम्बन्धित इस सामग्री को खोजा, सहेजा और पाठकों के लिए प्रस्तुत किया है। आशा है, यह पुस्तक नयी पीढ़ी के लिए भी उपादेय सिद्ध होगी।
समीक्षाएँ | Reviews
मुनि जिनविजय और उनका आत्मवृत्तांत । रमाशंकर सिंह
समालोचन । 8 अगस्त, 2023
पुरातन जैन-साहित्य और प्राकृत-अपभ्रंश की पांडुलिपियों के अनुसंधान और संपादन में मुनि जिनविजय (1888-1976) का कार्य बहुत महत्वपूर्ण है, वह स्वाधीनता आंदोलन से भी जुड़े रहे। उनके ‘आत्म वृत्तान्त’ और पत्रों को आलोचक माधव हाड़ा ने संपादित कर इधर प्रकाशित किया है- ‘मुनि जिनविजय : एक भव-अनेक नाम’ शीर्षक से, इसके महत्व की चर्चा कर रहें हैं समाज-विज्ञानी और हिंदी के लेखक रमाशंकर सिंह।