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मीरां रचना सचयन

चयन एवं संपादन

साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, 2017 मूल्य : रु. 200, पृ. 208  | ISBN :  978-81-260-5346-9

परिचय । Introduction

मीरां की कविता ठहरी हुई और दस्तावेज़ी कविता नहीं है। यह लोक में निरंतर बनती-बिगड़ती हुई जीवंत कविता है। यह लोक में रही, यहीं पली-बढ़ी और बदली, इसलिए मूल, प्राचीन और हस्तलिखित का आग्रह करने वाले ‘आधुनिकों’ को यह किसी अजूबे जैसी लगती है। उसका एक पद एक जगह अलग तरह से और दूसरी जगह अलग तरह से है। लोक के साथ उठने-बैठने के कारण यह इतनी समावेशी, लचीली और उदार है कि सदियों से लोक इसे अपना मानकर इसमें अपनी भावनाओं और कामनाओं की जोड़-बाकी भी कर रहा है। यह इस तरह की है कि लोक की स्मृति से हस्तलिखित होती है और फिर हस्तलिखित से एक लोक की स्मृति में जा चढ़ती है।

 

लोक स्मृति में मीरां के नाम से प्रसिद्ध और मीरां की छापवाली हजारों पद मिलते हैं और ये आज के हिसाब से एकाधिक भाषाओं में भी हैं।मीरां की रचनाओं का निरंतर रूपांतरण हुआ है और यह ज़्यादातर इधर-उधर, संवर्धन और सरलीकरण के रूप में है और अपने ‘असल’ से ज़्यादा दूर नहीं है। मीरां के पदों के उपलब्ध प्राचीनतम हस्तलिखित रूप सोलहवीं सदी के हैं और कुछ बाद में भी मिलते हैं। इनमें से कुछ राजस्थान, गुजरात और उत्तरप्रदेश के ग्रंथागारों और निजी संग्रहों उपलब्ध हैं और कुछ के अब केवल मुद्रित रूप ही मिलते हैं। 

 

यहाँ संकलित पद उपलब्ध सभी स्रोतों से लिए गए हैं और ऐसे पदों को प्राथमिकता दी गई है, जिनमें मीरां की घटना संकुल जीवन यात्रा, मनुष्य अनुभव, जीवन संघर्ष और अलग भक्ति का पता-ठिकाना है।

 

अधिकांश धारणाओं के अनुसार मीरां का जन्म 1498 ई. के आसपास मेड़ता (राजस्थान) और निधन 1546 ई में द्वारिका (गुजरात) में हुआ। मीरां मेड़ता के संस्थापक राव दूदा के चौथे बेटे रत्नसिंह की पुत्री थी। उसका लालन-पालन दूदा की देखरेख में उसके बड़े बेटे वीरमदेव के परिवार में हुआ। कृष्ण भक्ति के संस्कार उसको अपने कुटुम्ब से विरासत में मिले। उसका विवाह मेवाड़ (राजस्थान) के महाराणा सांगा के बेटे भोजराज से 1516 ई. के आसपास हुआ।

 

विवाह के कुछ समय बाद ही 1518-523 ई. के बीच कभी भोजराज का निधन हो गया। यह समय मेवाड़-मेड़ता में अंतःकलह, सत्ता संघर्ष और बाह्य आक्रमणों का था। मीरां को उसकी भक्ति संबंधी रीति-नीति के कारण मेवाड़ में सांगा के बाद सतारूढ़ विक्रमादित्य (1528-1531 ई.) और रत्नसिंह (1531-1536 ई.) की नाराज़गी, निंदा और प्रताड़ना झेलनी पड़ी।

 

मेवाड़-मेड़ता में असुरक्षित और निराश्रय मीरां यहाँ से द्वारिका चली गई और कहते हैं यहीं उसका निधन हुआ। कुछ लोगों की धाराणा है कि वह यहां से तीर्थ यात्रा पर दक्षिण में निकल गई और उसकी मृत्यु 1563-65 ई. के आसपास हुई।

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© 2016 by Madhav Hada

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