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परिचय । INTRODUCTION

पुस्तक में मीरां को उसकी अपनी सांस्कृतिक पारिस्थितिकी से अलग, पश्चिमी विद्वत्ता के अपने सांस्कृतिक मानकों के आधार पर समझने-परखने के प्रयासों की परख और पड़ताल है ।  जेम्स टॉड ने मीरां को ‘रहस्यवादी संत-भक्त और पवित्रात्मा कवियत्री’ की पहचान दी, जबकि जर्मन विद्वान् हरमन गोएत्ज़ ने खास पश्चिमी नजरिये से उसके जीवन की पुनर्रचना की।  फ्रांसिस टैफ़्ट सहित कुछ पश्चिमी विद्वानों ने उसके जीवन को ‘किंवदंती’ में सीमित कर दिया, जबकि स्ट्रैटन हौली उसकी कविता के विरह को भारतीय समाज की कथित लैंगिक असमानता में ले गये । विनांद कैलवर्त, स्ट्रैटन हौली आदि ने उसकी कविता को पांडुलिपीय प्रमाणों के अभाव, भाव विषयक बहुवचन और भाषा संबंधी वैविध्य के कारण कुछ हद तक अप्रामाणिक ठहरा दिया ।

मीरां की पहचान और मूल्यांकन में प्रयुक्त कसौटियाँ- ‘ऑथेंटिक’, एकरूपता, संगति आदि का भी दरअसल मीरां के जीवन और कविता की पहचान और मूल्यांकन में इस्तेमाल बहुत युक्तिसंगत नहीं है। भारतीय सांस्कृतिक बोध इस तरह के किसी अनुशासन से हमेशा बाहर, स्वतंत्र रूप से विकसित हुआ।  मीरां की कविता भी इसीलिए श्रुत और स्मृत पर निर्भर ‘जीवित’ कविता है और इसका स्वर बहुवचन है ।    

पुस्तक में मीरां संबंधी पश्चिमी विद्वता की इन धारणाओं का प्रत्याख्यान है। यह इसलिए ज़रूरी है कि आम भारतीय में अपनी ‘आत्म छवि’ को पश्चिम के नज़रिये से देखने-पहचाने का औपनिवेशिक संस्कार अब भी  है।  वह मानता ही नहीं है, इससे बहुत दूर और गहरे तक प्रभावित भी होता है । यह प्रभाव अपनी धारणाओं को बदल देने तक नहीं होता हो, तब भी इतना तो होता ही है कि वह अपनी मान्यताओं के प्रति ‘शंकालु’ हो जाता है । यह प्रत्याख्यान इसलिए है कि आम भारतीय मीरां के संबंध में अपनी सदियों से चली आ रही धारणाओं के प्रति मन में किसी संशय को जगह देने से पहले विचार करे ।

समीक्षाएँ REVIEWS

वैदहि ओखद जाणै -मीरां  और पश्चिमी ज्ञान मीमांसा  वर्ष 2023 के टॉप 10 पुस्तकों में सम्मिलित

शब्द की दुनिया समृद्ध हो और बची रहे पुस्तक-संस्कृति इसके लिए इंडिया टुडे समूह के साहित्य, कला, संस्कृति और संगीत के प्रति समर्पित डिजिटल चैनल 'साहित्य...

वैदहि ओखद जाणै -मीरां  और पश्चिमी ज्ञान मीमांसा मीरां का मर्म दर्शाती है । साहित्य तक । 6 सितंबर, 2023

वैदहि ओखद जाणै’: मीरां के काव्य की औपनिवेशिक पढ़त के विरुद्ध । यवनिका तिवारी । प्रयाग पथ ।अक्तूबर, 2023

‘वैदहि ओखद जाणै (मीरां और पश्चिमी ज्ञान-मीमांसा)’ भारतीय साहित्य, संस्कृति और इतिहास की औपनिवेशिक या प्राच्यवादी निर्मितियों के समानांतर या लगभग विरुद्ध एक ‘प्रत्याख्यान’ रचती है। यह ‘प्रख्यान’ महज सर्वस्व नकार की भावना से प्रेरित नहीं है। प्रत्याख्यान माने उत्तर औपनिवेशिक औजारों से औपनिवेशिक ज्ञानकांड को चुनौती। प्रत्याख्यान माने प्राच्यवादी इतिहास के समक्ष एक वैकल्पिक इतिहास का पुनर्लेखन। प्रत्याख्यान माने औपनिवेशिक गिरफ्त से इतिहास और साहित्य का उद्धार। आलोचक माधव हाड़ा की यह पुस्तक पश्चिमी आलोचना की मौजूदा फॉर्मूलाबद्ध पद्धति की सीमाएं दिखाते हुए अन्वेष्य विषय मीरां को उनकी जैविक पारिस्थितिकी में स्थित करती है। पुस्तक का शीर्षक कई अर्थों में पुस्तक के रचनात्मक मानियों को मुखर करता है। ‘को विरहिणी को दुख जाणे ?/जा घर विरहा सोई लखिहँ, कै/हरिजन मानै रोगी अंतर वैद वसत है, वैदहि ओखद जाणै।’ मीरां के इसी पद से शीर्षक का चयन किया गया है। उद्धरित पंक्तियों की अंतिम पंक्ति में तीसरा अर्थ भी विन्यस्त है जो विदेशी आस्था पर आधारित आलोचना पद्धति पर एक टिप्पणी है। अपने वृहत्तर संदर्भ में यह पंक्ति यह अर्थ भी देने लगती है कि जिस समाज में रोग है वहीं उसका वैद्य भी है जो रोग की प्रकृति को पहचानता है और उसी के अनुकूल औषधि जानता है। आलोचक यहाँ लगभग उसी वै़द्य की भूमिका में है जो मध्यकालीन भक्ति साहित्य के प्रतिकूल पश्चिमी ‘खोजी’ दृष्टि को बर्खास्त करते हैं तथा लोकसम्मत बहुवचनवादी आलोचना पद्धति विकसित करता है। आलोचक माधव हाड़ा मध्यकालीन भक्ति साहित्य (मीरां के विशेष संदर्भ में) की पश्चिमी पढ़त और अपव्याख्या के पीछे उनकी अनावश्यक तथ्यधर्मिता तथा गैरवाजिब सारांशीकरण और सरलीकरण को दोषी मानते हैं जो भारतीय मानस के लिए सर्वथा प्रतिकूल है। उनका सारा बल इस बात पर भी है कि आलोचकों के ‘लोकेशन’ के कारण मीरां के काव्य की व्याख्या प्रभावित हुई है। मीरां के लगभग सारे प्रारम्भिक आलोचकों को प्राच्यवादी भूमि पर ‘लोकेट’ किया जा सकता है जिन्होंने मीरां को समझा या समझाया कम है, गढ़ा अधिक है।

पश्चिमी धारणाओं से बाहर मीरां । मलय पानेरी । हंस। नवंबर, 2023

माधव हाड़ा की सद्य प्रकाशित ‘वैदहि ओखद जाणै’ मीरां और पश्चिमी ज्ञान-मीमांसा को केन्द्र में रखकर लिखी गई एक महत्त्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय पुस्तक है। इसमें लेखक ने उन कारणों की पड़ताल की है, जिससे पश्चिम में स्त्री-अस्मितायी चेतना के संदर्भ में मीरां एवं उसके काव्य के प्रतिजिज्ञासा-भाव पहले की तुलना में अब बढ़ गया है। हालाँकि यह स्पष्ट है कि उपनिवेशकाल से ही पश्चिमी ज्ञान-मीमांसा में मीरां मौजूद रही है, किंतु निरंतर बदलती वैश्विक परिस्थितियों के संदर्भ में यदि हम स्त्री-मनुष्य की दृष्टि से मीरां का आकलन करते हैं तो हमारे मूल्यांकन-मानक भी बदले हुए ही होंगें। देश, काल, परिस्थितियों आदि को हम यदि भारतीय संदर्भ में भी देखते हैं तो दक्षिण से उत्तर की ओर बढ़ती भक्ति के स्वरूप में एक धीमा अंतर दिखाई देता है। पौर्वात्य और पाश्चात्य विचारकों में यदि इतिहास नायकों के संदर्भ में मतान्तर हैं, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। यह एक प्रक्रिया का हिस्सा है, इसे समझने के लिए भक्तिकाव्य से संबद्ध जनचेतना के संबंध पर गौर करना आवश्यक है।

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