top of page
PHOTO-2024-12-06-09-15-03_edited.jpg

SAHJOBAI |  सहजोबाई

राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत , नई दिल्ली

संस्करण, 2024, मूल्य । रु. 190 | ISBN 978-93-6719-639-7

परिचय । INTORODUCTION

मध्यकाल के अंतिम चरण की अल्पचर्चित, लेकिन बहुत महत्त्वपूर्ण संत-भक्त और कवयित्री सहजोबाई (1725-1805 ई.) के संबंध में लोग बहुत कम जानते हैं। मध्यकाल में स्त्री संत-भक्तों की संख्या ही बहुत सीमित है, इसलिए इसकी सूचियों में सहजोबाई की नाम गणना तो होती है, लेकिन हिंदी में उनके जीवन और उनकी वाणी के संबंध में जानकारियाँ नहीं के बराबर उपलब्ध हैं। सहजोबाई उच्च कोटि की कवयित्री और दार्शनिक नहीं थीं, उनकी वाणी में उनके यह सब होने का आडंबर भी नहीं है, लेकिन जिस सीधे, सरल और सहज ढंग से वे अपनी बात कहती हैं, वह उन्हें मध्यकालीन संत-भक्त कवियों में सबसे अलग और ख़ास बना देता है।

 

सहजोबाई मध्यकालीन संत-भक्तों में अलग और ख़ास अपनी असाधारण और कुछ हद तक आश्चर्यकारी गुरु भक्ति के कारण भी हैं। उनकी पहचान उनके अपने समय और बाद में असाधारण ‘गुरु भक्ता’ की ही रही है। भक्ति में गुरु का स्थान ईश्वर के समकक्ष मानने की परंपरा तो सदियों से है, लेकिन सहजोबाई ने उससे आगे जाकर गुरु को ईश्वर से बड़ा और गुरु के लिए ईश्वर को त्याज्य की कोटि में रख दिया।

 

गुरु के संबंध में उनकी धारणा यह है कि ‘गुरु न तजूँ हरि को तज डारूँ” अर्थात् गुरु को नहीं छोड़ूँगी, भले ही इसके लिए ईश्वर को छोड़ना पड़े। यह एक तरह से अलौकिक ईश्वर के बरक्स मनुष्य की महिमा की स्वीकृति और प्रतिष्ठा है, जो भक्ति चेतना के और किसी संत-भक्त के यहाँ नहीं मिलती। सहजोबाई बहुत सामान्य और सरल हृदय की संत-भक्त स्त्री हैं। सादगी, सरलता और सहजता उनके जीवन और वाणी की बहुत मुखर और आकर्षक विशेषताएँ हैं। उनको इसीलिए ‘सादगी का सार’ कहा गया है।

 

सहजोबाई की वाणी में दुर्लभ क़िस्म का सहज विश्वास है- उनके स्वर में कोई विचलन नहीं है, उसमें कोई द्वंद्व और दुविधा नहीं है और यह बहुत सीधा और साफ़ है। हिंदी की मध्यकालीन कवयित्रियों में वे इस मायने में भी अलग और ख़ास हैं कि उनकी वाणी में कहीं भी उनके स्त्री होने का दैन्य और उसकी शिकायत नहीं है। मध्यकाल का बहुचर्चित सगुण-निर्गुण विवाद उनके यहाँ आकर पूरी तरह संशयरहित हो गया है। उनका सीधा और निर्द्वंद्व विश्वास है कि- “नेत नेत कहि वेद पुकारे। सो अधरन पर मुरली धारे।” अर्थात नेति-नेति कहकर वेद, जिसकी सराहना करते हैं, वह अपने होठों पर मुरली धारण करता है। स्वर्ग, नरक, कर्मफल, मृत्यु, माया, विषय-वासना, आवागमन, यम आदि हिंदू धार्मिक विश्वासों और कुछ हद तक मिथकीय धारणाओं को सहजोबाई अपने अनुभव से अर्जित सहज और संशयरहित विश्वास के साथ कहती हैं। उनकी यह ‘सादगी’ और ‘सहज’ विश्वास ही उनको सबसे बड़ी ताक़त है।

 

ख़ास बात यह उनकी यह वाणी उनके जीवन की उस अवस्था में, जब वे केवल 18 वर्ष की थीं और अपने गुरु चरणदास के साथ रहते हुए उन्हें केवल छह या सात वर्ष ही हुए थे, तब अस्तित्व में आई। सहजोबाई को कम लोग जानते हैं- गत सदी आठवें दशक में ओशो ने उनकी वाणी की सादगी और सरलता की ओर पहली बार ध्यान आकृष्ट किया और कहा कि वे हिंदी के कुछ ‘जाग्रत’ और ‘पहुँचे हुए’ महत्त्वपूर्ण संत-भक्त कवियों में से एक हैं।

bottom of page