Kaljayi Kavi aur Unaka Kavya (4) | कालजयी कवि और उनका काव्य (4)
कालजयी कवि और उनका काव्य
राजपाल एंड संज़, मदरसा रोड़ दिल्ली
आंडाल । 2025। मूल्य : रु. 115 | ISBN 978-9349162112
बारह आलावरों में से एक आंडाल (आठवीं सदी) दक्षिण भारत की सबसे अधिक लोकप्रिय संत-भक्त कवयित्री हैं। ‘आंडाल’ शब्द ‘आलवार’ अर्थात् वह जो शासन करता है का स्त्रीलिंग रूप है, जिसका अर्थ ‘वह जो शासन करती है’। कहते हैं कि भगवान् आंडाल के अधीन थे- वे उसकी इच्छा और रुचि का सम्मान करते थे। वे दक्षिण भारत में इतनी लोकप्रिय हैं कि मार्गशीर्ष माह में उनकी रचना तिरुप्पावै घर-घर में गाई जाती हैं। वे साक्षात् लक्ष्मी और भूमिपुत्री के रूप में विख्यात हैं। आलवार संप्रदाय में उन्हें ‘शूडिक् कोडुत नाच्चियार’ ‘आमुक्तमाल्यदा’ भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है वह देवी जिसकी पहनी हुई पुष्पमाला भगवान् को अर्पित की गई। वे वाटिका में पुष्पों के बीच मिली थी, इसीलिए उन्हें ‘कौदे’ या ‘गोदा’ भी कहा जाता है, जिसका अर्थ पुष्पों का गुच्छा है।
आंडाल की रचनाएँ पति और प्रिय के रूप में भगवान् श्रीनारायण की कामना, उनसे विरह और संयोग की कामना पर आधारित हैं। उनकी रचनाओं के प्रेम और विरह की ऐंद्रिकता अपने चरम पर है। आंडाल ने अपने नगर श्रीविल्लिपुत्तूर को वृंदावन, वहाँ के देव वटपत्रशायी भगवान् श्रीनारायण को श्रीकृष्ण और अपने साथ अपनी सखियों को गोपियाँ मान लिया है। आंडाल की रचनाएँ रामानुजाचार्य (1017-1137 ई.) के विशिष्टाद्वैतवाद की सैद्धांतिकी का आधार हैं। आंडाल की तिरुप्पावै उनकी प्रिय रचनाओं में से थी। वे इसको डूबकर से गाते थे, इसलिए उनका नाम ‘तिरुप्पावैजियर्’ प्रसिद्ध हो गया, जिसका अर्थ तिरुप्पावै से प्रभावित संन्यासी है।
रामानुज संप्रदाय में आंडाल की मान्यता बहुत है। विशिष्टाद्वैतवाद के विख्यात मनीषी आचार्य वेदांत देशिक (1268-1369 ई.) उनसे प्रभावित थे। उन्होंने आंडाल की स्तुति में गोदास्तुति नामक कृति की रचना की। दक्षिण में उनकी लोकप्रियता का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि विजयनगर के शासक कृष्णदेवराय (1471-1529 ई.) ने उनकी स्तुति में आमुक्त माल्यदा की रचना की। आंडाल की दो रचनाएँ तिरुप्पावै और नाच्चियार तिरुमोलि आलवारों की रचनाओं के विख्यात संचयन नालायिर दिव्य प्रबंधम् में सम्मिलित हैं।
आंडाल की रचनाओं का प्रस्तुत चयन मूल तमिल के हिंदी अनुवादों पर आधारित भावरूपांतर है।
नामदेव । 2025। मूल्य : रु. 115 | ISBN 978-9349162273
नामदेव (1270-1350 ई.) मध्यकाल के पहले और सबसे अधिक मान्य और पूज्य संत-भक्त और कवि हैं। वे मध्य, पश्चिमी और उत्तरी भारत के उन आरंभिक संत-भक्तों में से एक हैं, जिनकी विरासत आधुनिक महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, उत्तरी भारत और पंजाब के क्षेत्रों में फैली। वे गुरु नानक (1469-1539 ई.) और कबीर (1398-1515 ई.) से लगभग डेढ़-दो शताब्दी पहले हुए। उनके संबंध में सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि उनका जन्म महाराष्ट्र में हुआ, लेकिन उनकी लोकप्रियता और मान्यता महाराष्ट्र के साथ मध्यकाल में पंजाब में भी थी। पंजाब में उनकी लोकप्रियता का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि उनकी वाणी को गुरुग्रंथसाहिब में सम्मिलित किया गया। महाराष्ट्र में उनकी गणना ‘संत पंचायतन’ अर्थात् पाँच प्रमुख संतों का समुदाय में होती है। उनके अलावा इस समूह में ज्ञानदेव, एकनाथ, समर्थ रामदास और तुकाराम सम्मिलित हैं। मराठी के विख्यात संत तुकाराम नामदेव को अपना आध्यात्मिक आदर्श मानते थे। लोक में प्रसिद्ध है कि एकनाथ ज्ञानदेव और तुकाराम नामदेव के अवतार थे। वे मध्यकाल में एक साथ वारकरी, दादू और सिख संप्रदाय में पूज्य और मान्य हुए। कबीर, नानक, दादू, रैदास, रज्जब, नरसी मेहता आदि संतों ने नामदेव को सम्मानपूर्वक अपने पूर्वज संत-भक्त की तरह की तरह स्मरण किया है। मध्यकालीन लगभग सभी भक्तमाल और भक्तनामावली रचनाओं में उनका उल्लेख मिलता है। नामदेव की वाणी में एक साथ नाथपंथी, वैष्णव, वारकरी आदि परंपराओं का संयोग और समन्वय है।
नामदेव के समय महाराष्ट्र में नाथ और महानुभाव पंथ प्रभावी थे, बाद में इसमें वैष्णव भक्ति भी शामिल गई, इसलिए इन तीनों का समवेत प्रभाव उन पर है। बाद में इन तीनों पंथों का समाहार महाराष्ट्र के सबसे दीर्घकालीन और लोकप्रिय पंथ वारकरी में हो गया। नामदेव इसी प्रक्रिया में वारकरी संप्रदाय के आदि संतों में मान्य हुए। नामदेव की वाणी का सगुण-निर्गुण में विभाजन संभव नहीं है। उन पर नाथपंथ का प्रभाव है, लेकिन वैष्णव चेतना उनकी वाणी में सबसे अधिक मुखर है। वे अपने परिवार के भक्ति संस्कार के कारण विट्ठलनाथ के उपासक थे। कहते हैं कि महाराष्ट्र एक और संत ज्ञानदेव नामदेव के बहुत घनिष्ठ मित्र और आत्मीय थे। माना जाता है कि दोनों ने एक साथ कई यात्राएँ कीं। वारकरी संप्रदाय की एक महिला संत बहिनाबाई के अनुसार “ज्ञानदेव रचिला पाया। उभारिले देवालय॥ / नामा त्याचै किंकर। तेणे केलासे विस्तार॥” अर्थात् ज्ञानदेव ने नींव रखी, मंदिर खड़ा किया, किंतु उसका विस्तार उनके सेवक नामदेव ने किया। उनकी वाणी बहुत सीधी-सादी और सहज संप्रेष्य है। मध्यकाल में उनके बाद के अधिकांश संत-भक्त कवियों की रचनाओं में उनकी वाणी की स्मृति और संस्कार हैं।
प्रस्तुत संचयन में नामदेव की कुछ चुनी हुई हिंदी और साधुभाषा की रचनाएँ सम्मिलित हैं। यहाँ उनकी गुरुग्रंथसाहिब में संकलित सभी रचनाएँ ली गई हैं। उनकी 179 हिंदी और साधुभाषा की रचनाएँ भी यहाँ संकलित हैं, जिनमें कुछ रचनाएँ ऐसी भी हैं, जिनमें मराठी की शब्दावली और मुहावरा साफ़ दिखता है।


