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कालजयी कवि और उनका काव्य (2)

राजपाल एंड सज़, दिल्ली

परिचय । Introduction

गागर में सागर की तरह इस पुस्तक शृंखला में हिन्दी के कालजयी कवियों की काव्य-रचनाओं  में से श्रेष्ठ और प्रतिनिधि संकलन विस्तृत विवेचन के साथ प्रस्तुत है।अधिकांश मध्यकालीन संत-भक्तों और कवियों की की पहचान उपनिवेशकाल में बनी। उपनिवेशकालीन यूरोपीय अध्येताओं के इसमें निहित साम्राज्यवादी स्वार्थ थे। प्रजातीय श्रेष्ठता के बद्धमूल आग्रह के कारण भारतीय समाज और संस्कृति के संबंध के उनका नज़रिया अच्छा नहीं था, इसलिए इन साहित्यकारों की जो पहचान उस दौरान बनी वो आधी-अधूरी है। आरंभिक भारतीय भारतीय मनीषा भी कुछ हद तक इसी औपनिवेशक ज्ञान मीमांसा से प्रभावित थी, इसलिए इन पहचानों में कोई बड़ा रद्दोबदल नहीं हुआ। अब हमारा स्वतंत्रता का अनुभव वयस्क है और हमारी मनीषा भी धीरे-धीरे औपनिवेशिक ज्ञान मीमांसा से मुक्त हो रही है। यह शृंखला इन रचनाकारों की नयी पहचान और मूल्यांकन का प्रयास है। शृंखला में रचनाकारों की ऐसी रचानाएँ को तरजीह दी गयी, जो किसी आग्रह और स्वार्थ और उद्देश्य से अलग रचनाकार को उसकी समग्रता में प्रस्तुत करती हैं। रचनाकार और और उसकी रचनाओं परिचय भी इस तरह दिया गया है कि यह उनसे संबंधित अद्यतन शोध और विचार-विमर्श पर एकाग्र है।चयन का संपादन डॉ. माधव हाड़ा ने किया है, जिनकी ख्याति भक्तिकाल के मर्मज्ञ के रूप में है। मोहनलाल सुखाडिया विश्वविद्यालय, उदयपुर के पूर्व आचार्य एवं अध्यक्ष डॉ. हाड़ा भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में फ़ैलो रहे हैं।

गुरु नानक । ISBN : 9789393267351 | 2023 | ₹ 185

सिख धर्म की बुनियाद रखनेवाले गुरु नानक (1469-1539) मध्यकाल के महत्त्वपूर्ण संत और कवि हैं। उनकी वाणी में परमात्मा की एकता का विचार सर्वोपरि है और इसमें कविता अनायास है। ईश्वर की प्रकृति का जैसा वर्णन उन्होंने किया है, वैसा सूक्ष्म और विस्तृत वर्णन और किसी मध्यकालीन संत के यहाँ नहीं मिलता। मध्यकालीन संतों के कई मत-पंथ अस्तित्व में आए, लेकिन गुरु नानक का पंथ आज भी निरंतर और जीवंत है। प्रस्तुत चयन में गुरु नानक की श्रेष्ठ और प्रतिनिधि रचनाओं को प्रस्तुत किया गया ।

 

बुल्ले शाह | ISBN : 9789393267375 | 2023 | ₹ 185

पंजाब के सूफ़ी संत और कवि बुल्ले शाह (1680-1758) अपने असाधारण व्यक्तित्व, व्यवहार और गहरे आध्यात्मिक अनुभव से सम्पन्न वाणी के कारण हिन्दू, मुसलमान और सिखों में समान रूप से लोकप्रिय हैं। उनकी समस्त वाणी ईश्वर को पाने की कामना पर एकाग्र है और वे प्रेम को ही इसका एक मात्र साधन मानते हैं। बुल्ले शाह की वाणी पंजाबी में है और इसकी मस्ती, खुमारी, बेपरवाही पंजाब के लोक से आती है। शायद यही कारण है कि उनकी वाणी आज भी लोकप्रिय है और सिनेमा, संगीत, टीवी, इंटरनेट आदि में इसका बहुत प्रचलन है। प्रस्तुत चयन में बुल्ले शाह की रचनाओं में से श्रेष्ठ और प्रतिनिधि रचनाओं को प्रस्तुत किया गया है।

 

रहीम । ISBN 978938937677 | 2023 | ₹ 185

अब्दुर्रहीम ख़ानेख़ाना (1556-1627 ई.) के संबंध में यह प्रचलित कथन पूरी तरह सही है कि- “एक बित्ते का कद और दिल में सौ गाँठ / एक मुट्ठी हड्डी और सौ शक़्लें।” उनका व्यक्तित्व असाधारणता की सीमा तक वैविध्य और विरोधाभासों का समूह है। अकबर ने उनको ईश्वर का दिया हुआ ‘अलभ्य पदार्थ’ कहा है। योद्धा वे इतने बड़े थे कि अबुल फ़ज़ल ने उन्हें ‘पुरूष सिंह’ की संज्ञा दी। कवि भी वे इस तरह के थे कि उनके समय में उनकी जीवनी लिखने वाले अब्दुल्बाक़ी निहावंदी ने उनके संबंध में लिखा कि “अकबर के दरबारी लोगों में जितनी अधिक काव्य रचना इन्होंने की, उतनी संभवतया और किसी ने नहीं की।” रहीम एकाधिक भाषाओं के भी जानकार थे। आईन-ए-अकबरी में उल्लेख है कि “ख़ानेख़ाना रहीम उपनाम से फ़ारसी, तुर्की, अरबी, संस्कृत और हिंदी में सप्रवाह लिखता था और अपने समय का मैसनास माना जाता था। दानी के रूप उनकी ख्याति ऐसी थी कि इस संबंध में कई मिथ और कथाएँ उस समय भारत में और यहाँ तक ईरान तक में प्रचलित थीं। वे कला और सौंदर्य के भी पारखी थे- इस संबंध में भी उनके कई क़िस्से चलन में हैं।

 

जायसी । ISBN 978938937646 | 2023 | ₹ 185

मलिक मुहम्मद जायसी (1491-92 - 1575-76 ई.) हिंदी के विख्यात और लोकप्रिय सूफ़ी कवि हैं। उनकी असाधारण कवि प्रतिभा और प्रबंध काव्य कौशल ने जार्ज अब्राहम गियर्सन, रामचंद्र शुक्ल, वासुदेवशरण अग्रवाल, विजयदेवनारायण साही आदि कई विद्वानों को अपनी ओर आकृष्ट किया। मध्यकालीन अन्य संत-भक्त और सूफ़ी कवियों की तरह विद्वान् जायसी के जीवन और कविता को लेकर एक राय नहीं है। ख़ास बात यह है कि इस्लाम, सूफ़ी मत और फ़ारसी भाषा और साहित्य संबंधी अज्ञान या आधी-अधूरी जानकारियों के कारण जायसी के संबंध में कई भ्रांतियाँ हैं। यह ध्यान में रखना ज़रूरी है कि जायसी सबसे पहले सूफ़ी और इस्लाम अनुयायी थे, दूसरे, उन्होंने भारतीय देवी-देवताओं और मिथकों का इस्लामीकरण और अवधी का इस्तेमाल फ़ारसी के विकल्प के रूप में पहली बार नहीं किया, उनके समय में इसकी परंपरा थी और तीसरे, पद्मावत के अलावा भी उन्होंने उसके जैसी और उससे अलग रचनाएँ कीं। उनकी पहचान और मूल्यांकन में ये सभी तथ्य निर्णायक महत्त्व रखते हैं, लेकिन विद्वानों ने इन सभी को एक साथ अपनी निगाह में कभी नहीं लिया। जायसी मुसलमान थे, लेकिन उन्हें भारतीय धर्म, दर्शन, अध्यात्म और देवी देवताओं का पर्याप्त ज्ञान था। उनकी जानकारियों को कुछ विद्वानों ने ‘सुश्रुत‘ की श्रेणी में रखा है, जो सही है। उनकी रचनाओं में जिस तरह से इनका निवेश है, उससे साफ़ लगता है कि ये लोक से होकर उनके पास आयी हैं। जायसी कथाकार और कवि भी असाधारण हैं- कथा-कविता उनके लिए ‘ओट’ है, लेकिन इसको वे डूबकर रचते हैं। जायसी का प्रबंध विधान मसनवी और भारतीय प्रबंध काव्य परम्परा से अलग, भारतीय इस्लामी-सूफ़ी शैली का है, जिसका विकास यहाँ के सूफ़ी कवियों ने किया। यह जायसी से पहले ही सुस्थापित था और यह एकाधिक सूफ़ी मुसलमान कवियों के हाथों मँझ भी चुका था।

 

लालन शाह फ़क़ीर । ISBN 9789393267962  | 2024 | ₹ 185

बाउल साधक और कवि लालन शाह फ़क़ीर (1774-1890 ई.) भारतीय भक्ति साहित्य की अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी के प्रमुख और लोकप्रिय संत हैं। भक्ति चेतना का भारत के विभिन्न क्षेत्रों में वहाँ की ख़ास प्रकार की ऐतिहासिक-सांस्कृतिक के ज़रूरतों के तहत अलग-अलग ढंग से पल्लवन और विस्तार हुआ। अविभाजित बंगाल में इसका पल्लवन बाउल साधना के रूप में था। बाउल मध्यकाल में विकसित ऐसी साधना थी, जिसमें मनुष्य शरीर में ही स्थित परम तत्त्व या ईश्वर की खोज का आग्रह सर्वोपरि था। बाउल मध्यकालीन अविभाजित बंगाल में प्रचलित बौद्ध सहजिया, वैष्णव सहजिया, नाथ-सूफ़ी आदि परंपराओं से आनेवाले निम्नवर्गीय जनसाधरण का समूह था, जो धीरे-धीरे एक संप्रदाय के रूप में अस्तित्व में आया। बाँग्ला जनसाधारण में इस संप्रदाय को लेकर कई धारणाएँ हैं, इनकी प्रतिवादी धारणाएँ है और कई तरह की चर्चाएँ हैं। यह संप्रदाय और इसकी साधना अभी तक भी बाँग्लाभाषी जनसाधरण के लिए ‘अनसुलझी पहेली' है। लालन फक़ीर के अध्येता सुधींद्र चक्रवर्ती ने इस मुश्किल का ज़िक्र किया है। उनके अनुसार “पिछले दो दशकों से बाउल संस्कृति की रहस्यमय अवधारणा की खोज में गाँव-गाँव भटकने के बाद यह समझ आ गया था कि बाउल धर्मशास्त्र की छिपी हुई मिट्टी और पानी को खोदना इतना आसान नहीं है।” इसकी गुह्य साधनाएँ और बर्तमानवादी अर्थात भौतिकवादी आचार-विचार की भद्र बाँग्ला समाज में सराहना और निंदा, दोनों हुईं। लालन फ़क़ीर इस साधना के उत्कर्ष के जीवंत रूप हैं।

 

सहजोबाई । ISBN 9789389373820  | 2024 | ₹ 185

सहजोबाई (1725-1805 ई.) मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के अंतिम चरण की अल्पचर्चित, लेकिन बहुत महत्त्वपूर्ण संत-भक्त और कवयित्री हैं। भक्ति आंदोलन में स्त्री संत-भक्तों की संख्या ही बहुत सीमित है, इसलिए इनकी सूचियों में उनकी नाम गणना तो होती है, लेकिन हिंदी में उनके जीवन और काव्य के संबंध में जानकारियाँ नहीं के बराबर उपलब्ध हैं। सहजोबाई उच्च कोटि कवि और दार्शनिक नहीं हैं, उनकी वाणी में उनके यह सब होने का आडंबर भी नहीं है, लेकिन जिस सीधे, सरल और सहज ढंग से वे अपनी बात कहती हैं, वो उन्हें मध्यकालीन संत-भक्त कवियों में सबसे अलग और ख़ास बना देता है। सहजोबाई मध्यकालीन संत-भक्तों में अलग और ख़ास अपनी असाधारण और कुछ हद तक आश्चर्यकारी गुरु भक्ति के कारण भी है। भक्ति आंदोलन में गुरु का स्थान ईश्वर के समकक्ष मानने की तो सदियों से परंपरा है, लेकिन सहजोबाई ने उससे आगे जाकर गुरु को ईश्वर से बड़ा और गुरु के लिए ईश्वर को त्याज्य की कोटि में रख दिया। गुरु के संबंध में उनकी धारणा यह है कि ‘गुरु न तजूँ हरि को तज डारूँ” अर्थात् गुरु को नहीं छोड़ूँगी, भले ही इसके लिए ईश्वर को छोड़ना पड़े। यह एक तरह से अलौकिक ईश्वर के बरक्स मनुष्य की महिमा की स्वीकृति और प्रतिष्ठा है, जो भक्ति आंदोलन के और किसी संत-भक्त के यहाँ नहीं मिलतीं। सहजोबाई बहुत सामान्य और सरल हृदय की संत-भक्त स्त्री हैं। सादगी, सरलता और सहजता उनके जीवन और वाणी की बहुत मुखर और आकर्षक विशेषताएँ है। उनको ‘सादगी का सार’ कहा गया है।

© 2016 by Madhav Hada

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