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आलोचना के नये क्षितिज । माधव हाड़ा

शृंखला संपादक: पल्लव

कौटिल्य बुक्स , ई-2/59 सेक्टर-11, रोहिणी, नई दिल्ली-110 08

ISBN: 978-936063775-0, 2025, मूल्य रु. 399

INTRODUCTION | परिचय

पिछली शताब्दी के अंतिम दशकों में जिन आलोचकों ने अपनी प्रतिभा और अध्यवसाय से साहित्य जगत को आकृष्ट किया था उनमें माधव हाड़ा का नाम भी था। कविता के आलोचक के रूप में अपनी प्रारम्भिक पहचान बनाने वाले माधव हाड़ा ने पहले समकालीन कविता को अपने आलोचना लेखन का विषय बनाया। उनकी प्रारम्भिक दो पुस्तकें समकालीन कविता पर केंद्रित थीं। इसके बाद वे मीडिया की तरफ मुड़े और भूमंडलीकरण के बाद आए बदलावों में मीडिया के नए रूप रंग को समझने लगे। इस दौर के मीडिया पर उनकी किताब 'सीढ़ियाँ चढ़ता मीडिया' पर्याप्त प्रशंसित और पुरस्कृत भी हुई। फिर उन्होंने अपने अध्ययन की दिशा कविता की तरफ मोड़ दी और इस बार वे समकालीन कविता के स्थान पर मध्यकालीन कविता के क्षेत्र में चले गए।

 

यहाँ कविता के साथ साथ इतिहास की पुनर्व्याख्या करते हुए कवियों को उनके सही स्थान पर रखते हुए उनका सटीक मूल्यांकन उन्हें बड़ा आलोचक बनाता है। उन्होंने मीरां के समय, समाज और साहित्य का ऐतिहासिक विश्लेषण करते हुए नए दृष्टिकोण से अपना अध्ययन प्रस्तुत किया। असल में वे औपनिवेशिक आग्रहों और अस्मिताई संकुचनों से मुक्त होकर साहित्य का स्थान निर्धारण करने का जोखिम उठाते हैं। उनकी पुस्तकें 'पचरंग चोला पहर सखी री : मीरां का जीवन और समाज' तथा 'वैदहि ओखद जाणै : मीरां और पश्चिमी ज्ञान मीमांसा' मीरां के जीवन और साहित्य को सर्वथा नए आलोक में पाठकों के सामने रख देती हैं। इन पुस्तकों में हाड़ा मीरां के जीवन से जुड़े प्रवादों, जनश्रुतियों और ऐतिहासिक सच्चाइयों का विशद विवेचन करते हैं। उन्होंने लिखा है, 'इतिहास में उल्लेख नहीं होने के कारण जनश्रुतियां मीरां को जानने- समझने के आधार हैं। विडम्बना यह है कि इन जनश्रुतियों को अभी ठीक से पढ़ा नहीं गया है। मीरां को समझने -समझाने वाले लोगों ने या तो इनको पूरी तरह सच मान लिया है या फिर झूठ मानकर  दरकिनार करदिया है। जनश्रुतियां मिथ्या नहीं होती-ये समाज की सांस्कृतिक भाषा है। गत सदी के पूर्वार्ध में हमारे यहाँ यूरोपीय ढंग का आधुनिक होने की इतनी जल्दी और हड़बड़ी थी कि हमने अपने समाज की अधिसंख्य जनश्रुतियों को युक्ति और तर्क की कसौटी पर कसकर खारिज कर दिया।' प्रो हाड़ा इन जनश्रुतियों और ऐतिहासिक स्रोतों के विवेकपूर्ण उपयोग से मीरां के जीवन के कुछ अंधकारपूर्ण हिस्सों की पुनर्रचना करते हैं। 

इन पुस्तकों ने बताया कि हाड़ा अपने गहन अध्ययन और मौलिक विश्लेषण से किस तरह साहित्य का पुनर्मूल्यांकन और पुनर्स्थापन कर सकते हैं। वस्तुत: कवियों या साहित्यकारों को बहुधा यह शिकायत रहती है कि उन्हें साहित्य में उनके उचित स्थान से वंचित रखा गया।

 

यह शिकायत कई बार साहित्यिक आन्दोलनों, प्रवृत्तियों और कालखंडों की भी होती है और आलोचना के लिए यह सचमुच जटिल उपक्रम है कि वह हजार साल के साहित्य में किसी लेखक, प्रवृत्ति या आंदोलन को सही स्थान पर विश्लेषित कर सके। अस्मिताई आग्रहों ने यह संभव किया कि हाशिये पर रह गए लेखकों और प्रवृत्तियों को फिर देखा समझा जाए लेकिन साहित्य के व्यापक परिदृश्य में संकुचित दृष्टियों से किया गया मूल्यांकन देर तक काम नहीं आ सकता। ऐसे में उसी आलोचना दृष्टि को स्वीकार्यता मिलती है जो साहित्य की विराट परम्परा को ठीक से समझ देखकर नए अथवा पुराने लेखक / प्रवृत्ति /आंदोलन को विश्लेषित कर सके। हाड़ा ने अपने महत्त्वाकांक्षी शोध प्रबंध 'पदमिनी : इतिहास और कथा-काव्य की जुगलबंदी' में यह कठिन कार्य किया। प्रसिद्ध इतिहासकार प्रो कृष्ण मोहन श्रीमाली ने इस शोध पर अपनी सम्मति देते हुए लिखा है, 'प्रोफ़ेसर माधव हाड़ा का यह आलोचनाधीन शोध-प्रबन्ध निस्संदेह 14वीं सदी के पद्मिनी-रत्नसेन प्रकरण को कोरी कल्पना के दायरे से बहुत ऊपर उठाकर साहित्यकारों, इतिहासज्ञों एवं मिथकविज्ञानियों के लिए चुनौती बनाकर प्रस्तुत करता है । यह भी निर्विवादित रूप से कहा जा सकता है कि इस जोख़िम भरी रचना ने भारतीय इतिहास के गठन के लिए देशज स्रोतों की उपयोगिता को रेखांकित कर ‘ऐतिहासिकता’ के नए बोध की ओर भी कदम बढ़ाए हैं । हमें इस बात का भी विश्वास है कि लेखक अपनी इस अपेक्षा पर खरे उतरेंगें कि उनका यह प्रयास मध्यकालीन ‘साहित्य’ कि हमारी समझ को भी विस्तृत और समृद्ध करेगा।'

 

कहना न होगा कि इसके बाद कालजयी कवि और उनका काव्य शृंखला की लगभग दो दर्जन पुस्तकों ने मध्यकाल और प्रारम्भिक आधुनिक काल के अनेक कवियों और उनके काव्य के सम्बन्ध में मौलिक और नवोन्मेषी अध्ययन प्रस्तुत किया है।

समकालीन लेखन पर भी उनकी निगाह अलक्षित पक्षों पर गई है जैसे कथेतर गद्य और मीडिया व साहित्य के सम्बन्ध। इसी तरह वे जब कविता के सम्बन्ध में वस्तु और रूप के अन्तर्सम्बन्धों पर चर्चा करते हैं तो कुछ महत्त्वपूर्ण बातें स्पष्ट होती हैं। 'बीसवीं सदी में हिंदी साहित्य' एक सिंहावलोकन है जो पिछली शताब्दी के साहित्य के सम्बन्ध में पाठकों को बढ़िया विवेचन देता है। जयशंकर प्रसाद, मुक्तिबोध और भवानीप्रसाद मिश्र के लेखन के कुछ आयाम भी यहाँ देखे जा सकेंगे। इस पुस्तक में उनकी आलोचना के और भी रंग हैं जिनसे प्रो हाड़ा की आलोचना की व्यापकता और गहराई का सहज अनुमान हो सकता है। 

पल्लव  

© 2016 by Madhav Hada

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