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भक्ति अगाध अनंत : भारतीय भक्ति कविता संचयन

राजपाल एंड सन्ज़, दिल्ली एवं रज़ा न्यास , नई दिल्ली का सह प्रकाशन । 2025

ISBN 9789349162815 । पृ. 736। मूल्य : पेपरबैक रु.1599, हार्डबाउंड रु. 2299

INTRODUCTION | परिचय

भारत में भक्ति की चेतना प्राग्वैदिककाल से निरंतर है। देश के विभिन्न क्षेत्रों की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक ज़रूरतों के तहत इसके कई रूप और प्रवृत्तियाँ रही हैं और सदियों से इनमें अंतःक्रियाएँ और रूपांतरण होता रहा है। यह सीमित अवधि का कोई ‘आंदोलन’ या ‘क्रांति’ नहीं है। यह केवल परलोक-व्यग्र चेतना भी नहीं है, मनुष्य के पार्थिव सरोकार और चिंताएँ भी इसी के माध्यम से व्यक्त हुई हैं। भक्ति-चेतना का अधिकांश साहित्य स्वतंत्रचेता संत-भक्तों का साहित्य है और स्वतंत्रता हमेशा बहुवचन में चरितार्थ होती है, इसलिए यह अपनी प्रकृति में बहुवचन भी है। देशभाषाओं में इसकी व्याप्ति ने इसको जनसाधारण के लिए सुगम बना दिया। विडंबना यह है कि संपूर्ण देश में सदियों से मौजूद इस भक्ति-चेतना की, भाषायी वैविध्य और औपनिवेशिक ज्ञानमीमांसीय पूर्वग्रह के कारण, अभी तक कोई समेकित पहचान नहीं बन पाई है। भक्ति-चेतना और उसके साहित्य को उत्तरभारत में केवल कबीर, तुलसी, सूरदास, जायस ,आदि तक सीमित समझ लिया गया है, जबकि वस्तुस्थिति इससे अलग है। भक्ति का उत्तरभारत की तुलना में व्यापक प्रसार दक्षिण में हुआ और उसकी पहुँच उत्तर-पूर्व, कश्मीर आदि क्षेत्रों में भी व्यापक थी। महाराष्ट्र में भी उसकी व्याप्ति का दायरा बहुत बड़ा था। गुजरात के जनसाधारण में भी उसकी स्वीकार्यता उत्तरभारत से किसी भी तरह कम नहीं है। बंगाल, उड़ीसा और असम के संत-भक्तों ने तो उत्तर भारतीय संत-भक्तों- अप्पर, संबंदर, सरहपाद, परकाल, सुंदरमूर्ति, आंडाल, माणिक्कवाचकर, शठकोप, गोरखनाथ, बसवण्णा, अल्लमप्रभुदेव, अक्क महादेवी, शेख़ फ़रीद, नामदेव, ज्ञानदेव, मुक्ताबाई, ललद्यद, मुल्ला दाउद, विद्यापति, पीपा, कबीर, रैदास, नरसी मेहता, शंकरदेव, गुरु नानक, बलराम दास, चैतन्य, मीरां, सूरदास, जायसी, कुतबन, तुलसीदास, रसखान, नंददास, दादू दयाल, रहीम, गुरु अर्जुनदेव, रज्जब, मलूकदास, सुंदरदास, तुकाराम, दरिया साहिब, बुल्लेशाह , चरणदास, पलटू साहिब, सहजोबाई, दयाबाई, लालन शाह फ़क़ीर, रवींद्रनाथ ठाकुर और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला को बहुत दूर तक प्रभावित किया। प्रस्तुत संचयन में पहली बार छठी से लगाकर उन्नीसवीं-बीसवीं सदी तक के, देश सभी क्षेत्रों के संत-भक्तों की रचनाएँ संकलित की गई हैं। आशा है, यह संचयन सदियों से निरंतर और देशव्यापी भक्ति चेतना और उसके साहित्य को समेकित रूप में जानने-समझने में मददगार सिद्ध होगा।

 

आमुख : अशोक वाजपेयी

भारतीय काव्य परंपरा में भक्ति काव्य को, प्रायः सभी भारतीय भाषाओं में, स्वर्ण युग कहा जाता है. इससे पहले कविता इतनी लोकप्रिय, साधारण जन में व्याप्त, उनके जीवन में लगातार उपस्थित और स्पन्दित, उनके सामान्य जीवन की इतनी विविध छबियों-बिंबों-मुहावरों-रूपकों से रसी-बसी नहीं हुई थी.

महत्वपूर्ण यह है कि भक्ति काव्य ने एक ऐसा विशद-विपुल-बहुल काव्यशास्त्र रचा कि सौंदर्य और संघर्ष, समर्पण और प्रश्नवाचकता, आस्था और संदेह के बीच जो पारंपरिक दूरी और द्वैत थे, वे ध्वस्त हो गए. सामाजिक आचार, जातिगत भेदभाव, धार्मिक अनुष्ठानपरकता, आध्यात्मिक वर्जनाएं आदिका भक्ति काव्य ने अतिक्रमण किया. उसने, भारतीय इतिहास और परंपरा में पहली बार धार्मिक सत्ता, राजनीतिक सत्ता, संपत्ति सत्ता के बरक़्स कविता की स्वतंत्र सत्ता स्थापित की.

यह कविता-सत्ता अपने सत्व में, प्रभाव में और व्याप्ति में जनतांत्रिक थी: उसने धर्म, अध्यात्म, सामाजिक आचार-विचार, व्यवस्था आदि का जनतांत्रिकीकरण किया. वह एक साथ सौंदर्य, संघर्ष, आस्‍था, अध्यात्म, प्रश्नवाचकता की विधा बनी. यह अपने आप में किसी क्रांति से कम नहीं है.

इस नई जनतांत्रिकता में व्यक्ति की इयत्ता और गरिमा का सहज स्वीकार भी था: प्रायः सभी भक्त कवि अपनी रचनाओं में निस्संकोच अपने नाम का उल्लेख करते हैं. यह भी क्रांतिकारी था कि भक्तिकाव्‍य में अनेक तथाकथित निचली जातियों को कविता में अपने को निस्संकोच व्यक्त करने का, एक तरह से, पहली बार साहित्यिक अधिकार और अवसर मिला.

यह निरा संयोग नहीं है, न ही आकस्मिक कि बाद की शताब्दियों में जब भी समता, न्याय, स्वतंत्रता, रूढ़ियों ने विरुद्ध, सामान्य भारतीय जीवन और व्यवस्था में, वृत्तियां सक्रिय हुईं तो उन्होंने, निरपवाद रूप से, भक्तिकाव्य का सहारा, अपने संदेश और अर्थशीलता को पहुंचाने के लिए, लिया है. हमारे स्वतंत्रता-संग्राम में महात्मा गांधी से लेकर बाद के दलित आन्दोलनों में, भक्त-कवियों को व्यापक रूप से उद्बुद्ध किया गया है.

इस सबके बावजूद, हिंदी में समग्र भारतीय भक्तिकाव्य का कोई संचयन नहीं है.

भक्तिकाव्य के विशेषज्ञ माधव हाड़ा ने मनोयोग और उत्साह से बहुत कम समय में, ऐसा संचयन तैयार कर दिया है. यह सुसंपादित संचयन, ‘भक्ति अगाध अनन्त’, रज़ा पुस्तकमाला के तहत राजपाल एंड संस द्वारा प्रकाशित हुआ है.

चित्रकार सैयद हैदर रज़ा भक्तिकाव्‍य के बहुत प्रेमी थे. उन्होंने कबीर, तुलसीदास, सूरदास, मीराँ, रहीम की पंक्तियों का अपने चित्रों में देवनागरी में अंकन किया है. वे होते तो इस संचयन को देखकर ज़रूर आह्लादित होते.

© 2016 by Madhav Hada

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