भारतीय भक्ति-चेतना : पार्थिव चिंताएँ एवं सरोकार
- Madhav Hada

- 1 hour ago
- 23 min read

तद्भव । अंक - 51
भारतीय भक्ति-चेतना में केवल लोकोत्तर सरोकार और चिंताएँ नहीं है, इसमें पार्थिव सरोकार और चिंता भी है। यह व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक और कुछ हद तक राजनीतिक चेतना भी है। भारतीय परंपरा में उपनिवेशकाल से पहले तक ‘धर्म’ शब्द बहुत व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होता था। मध्यकाल और उससे पहले तक अधिकांश सामाजिक-राजनीतिक-गतिविधियाँ धर्म के दायरे के भीतर ही होती थीं। किसी भी सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक गतिविधि की सामाजिक स्वीकार्यता लिए उसका धर्म के दायरे में होना ज़रूरी था। ‘धर्म’ शब्द का अर्थ भी हमारी परंपरा में यूरोपीय अर्थ में ‘मत’ या ‘विश्वास’ (Religion) नहीं है।[1] मत या विश्वास में इधर-उधर होना हेरेसी या कुफ़्र समझा जाता है, जो हमारे यहाँ धर्म में नहीं है। भारतीय समाज के बारे में इसीलिए कहा जाता है कि “ए रिलिजियस सोसायटी विदाआउट रिलिजन।” ‘संस्कृति’ शब्द हमारी परंपरा में नहीं है- बल्कि संस्कृति के दायरे में आज, जो भी सम्मिलित है, वह उपनिवेशकाल से पहले तक हमारे यहाँ धर्म की व्यापक संज्ञा में शामिल था। यही कारण है कि भक्ति की चेतना धार्मिक चेतना है, लेकिन समाज सुधार, अन्याय-उत्पीड़न का प्रतिरोध, वैयक्तिक कामनाओं की अभिव्यक्ति आदि सब इसके व्यापक दायरे के भीतर थे और इसमें होने के कारण ही स्वीकार्य और मान्य थे। राजनीतिक गतिविधियाँ– सत्ता-परिर्वतन, विद्रोह आदि को मान्यता भी भक्ति की व्यापक परिधि में ही थीं। कुछ सूफ़ी संतों ने सल्तनतकाल में सत्ता-परिवर्तन में निर्णायक भूमिका निभाई। महाराष्ट्र, पंजाब और दक्षिण भारत में कुछ क्षेत्रीय शासकों को सामाजिक वैधता-मान्यता देने में भी संत-भक्तों की निर्णायक भूमिका रही है। वर्ण और जाति की अमानवीय व्यवस्था का समर्थन करने वाली राजनीतिक सत्ताओं के अधीन मनुष्य के साथ होने वाले अन्याय और उत्पीड़न का प्रतिरोध भी संत-भक्तों ने ही किया।
1.
भारतीय भक्ति-चेतना और उसके साहित्य के संबंध में यह भ्रांति है कि लोकोत्तर की चिंता की अधिकता के कारण इसमें पार्थिव की चिंता और देह के ऐंद्रिक सरोकर नहीं के बराबर हैं। यह सही है कि भक्ति-चेतना में लोकोत्तर की चिंता है, लेकिन लोक और पार्थिव भी इसमें प्राथमिक सरोकार की तरह सब जगह है और इसमें इनकी अनदेखी नहीं हैं। जीवन में जो भी सुंदर और प्रिय है, वह सब मिथ्या और असत्य है, इस धारणा की जनसाधारण में प्रतिक्रिया हुई। यह प्रतिक्रिया बहुत व्यापक और तीव्र थी और इसने कई रूप लिए। इस प्रतिक्रिया की निरंतरता और व्यापकता का नतीजा यह हुआ कि इसको वैचारिक और दार्शनिक आधार देने की ज़रूरत महसूस हुई। यह बहुत मुश्किल काम था- कर्मफल और नियतिवाद ने लोकोत्तर की धारणा को बहुत मजबूत कर दिया था। इस धारणा के व्यापक दायरे के भीतर रहकर कई किंतु-परंतु के साथ रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, वल्लभाचार्य आदि ने इस प्रतिक्रिया को विशिष्टाद्वैतवाद, द्वैतवाद, द्वैताद्वैतवाद आदि के रूप में दार्शनिक आधार दिया। वैष्णव धर्म में इसी प्रतिक्रिया के दबाव में लोक के मह्त्त्व की प्रतिष्ठा के लिए लीला की धारणा भी अस्तित्व में आई। लीला का ईश्वर मनुष्य से अलग या ऊपर नहीं, उसका ही विस्तार है। इस तरह धीरे-धीरे दर्शन में भी निर्गुण और निराकार के बरक्स सगुण और साकार की मान्यता हो गई।
भक्ति-चेतना और उसका साहित्य कुछ हद तक पार्थिव सरोकारों चिंताओं का उदात्त विस्तार भी है। रवींद्रनाथ ठाकुर ने अपनी कविता में लिखा है -
“देवतारे याहा दिते पारि, दिइ ताई
प्रिय जने, प्रिय जने याहा दिते पाई
ताई दिइ देवतारे आर पाबो कोथा ?
देवतारे प्रिय करि, प्रियेर देवता!”[2]
अर्थात् हम जो चीज़ देवता को दे सकते हैं वही अपने प्रिय को देते हैं और प्रियजन को दे सकते हैं वही देवता को देते हैं! और हम पाएँगे कहाँ? देवता को हम प्रिय कर देते हैं और प्रिय को देवता!” आशय यह है कि जो भी है वह ‘मानवीय’ और ‘पार्थिव’ की सीमा में है और जो ‘लोकोत्तर’ है वह भी अंततः ‘पार्थिव’ और ‘मानवीय’ का विस्तार है। मध्यकालीन कृष्णभक्त कवियों के यहाँ जो लीला-भाव है, दरअसल वह लोक या पार्थिव का ही विस्तार है। सूरदास का समस्त काव्य पार्थिव और लोक का ही उदात्त विस्तार है। उनके यहाँ भ्रमरगीत में तो पार्थिव की महिमा के साथ ‘अपार्थिव’ और ‘लोकोत्तर’ का उपहास भी है। सूरदास ने भ्रमरगीत में निर्गुण और निराकार को पूरी तरह ख़ारिज कर दिया। अपार्थिव और लोकोत्तर की खिल्ली उड़ाने और उसका मजाक बनाने में सूरदास ने जैसे अपनी समस्त वाग्विदग्धता झौंक दी। ऐंद्रिक और पार्थिव का जैसा आग्रह और समर्थन सूरदास की कविता में है उससे यह तो साफ़ लगता है कि उन्हें लौकिक जीवन का व्यापक और गहरा अनुभव था। उनकी कविता में प्रेम और दांपत्य जीवन के जो दैनंदिन ऐंद्रिक रूप मिलते हैं उनके अनुभव के बिना इनका उनकी कविता में होना संभव ही नहीं है। रवींद्रनाथ ठाकुर सूरदास की कविता में प्रेम और उसके दुःख की अंतर्वृत्तियों की सघन और ऐंद्रिक मौजूदगी पर अभिभूत और आश्चर्यचकित थे और मानते थे कि यह सब उनके अपने निजी जीवन के अनुभवों से आया है। उन्होंने सूरदास के किसी सुंदर युवती के सौंदर्य पर मुग्ध-अभिभूत होकर उससे अपनी आँखें फोड़ देने का आग्रह करने संबंधी जनश्रुति को आधार बनाकर ‘सूरदासेर प्रार्थना’ नामक कविता लिखी। इसमें उन्होंने लिखा कि लिखा कि “सच बताओ वैष्णव कवि, तुमने यह प्रेम चित्र कहाँ पाया? यह विरहतप्त गान तुमने कहाँ सीखा था? किसकी आँखें देखकर राधिका की आँसूभरी आँखें याद आ गई थीं? निर्जन वसंत रात्रि की मिलन-शय्या पर किसने तुम्हें भुजपाशों में बाँध रखा था; और अपने हृदय के अगाध समुद्र में मग्न कर रखा था? इतनी प्रेमकथा, राधिका की चित्त विदीर्ण करने कर देने वाली तीव्र व्याकुलता तुमने किसके मुँह और किसकी आँखों से चुरा ली थी? आज क्या इस संगीत पर उसका (कुछ भी) अधिकार नहीं? क्या तुम उसी के नारी हृदय की संचित भाषा से उसी को सदा के लिए वंचित कर दोगे?"[3]
केवल सूरदास के भ्रमरगीत में नहीं, भक्तिसाहित्य के कई रूपों में पार्थिव की चिंता और उसका उत्सव है। मीराँ सहित कुछ कृष्णभक्त कवियों की कविता में पार्थिव बहुत सघन और मूर्त है। मीरां की कविता में तो पार्थिव का सौंदर्य भी है- वर्षा उनके हर दूसरे-तीसरे पद में है। होली, जो मनोवेगों के स्वछंद अभिव्यक्ति का त्योहार है, उनकी कविता में ख़ूब है। पार्थिव का सौंदर्य रसखान के यहाँ भी हैं। मीराँ सहित कुछ कृष्णभक्त कवियाँ के यहाँ वैयक्तिक कामनाओं की अकुंठ अभिव्यक्ति और ऐंद्रिक का मुखर-सजग आग्रह भी है। है। भक्ति के वल्लभ संप्रदाय में राग-भोग-शृंगार का आग्रह है, जो अष्टछाप के उसके भक्त कवियों की रचनाओं में साफ झाँकता है, कुछ हद तक मानवीय इच्छाओं और कामनाओं का उदात्तीकरण ही है।
2.
समता, स्वतंत्रता और न्याय पर आधारित समाज का विचार भक्ति-चेतना और उसके साहित्य के अधिकांश संत-भक्तों की वाणी में है। यहाँ बसवण्णा और (1106-1167-68 ई.), रैदास (1410-1500 ई.) की वाणी के दो इसकी मौजूदगी पर विचार किया गया है। दक्षिण भारत में बसवण्णा के नेतृत्व में अल्लमप्रभुदेव, चेन्नबसवण्णा और सिद्धरामेशवर, अक्क महादेवी आदि ने एक वर्गहीन समाज का स्वप्न देखा। उन्होंने इसके लिए दक्षिण भारत में शिवभक्ति के सर्वथा नए और क्रांतिकारी रूप की रचना की। शिवभक्ति की यह चेतना पहले शरण, फिर लिंगायत और वीरशैव में पर्यवसित होती है। शिवभक्ति की इस चेतना के विकास और प्रसार में इन सभी का योगदान है, लेकिन अपनी भक्ति-चेतना में ये एक-दूसरे से अलग भी हैं और इनमें मतभेद भी हैं। शरणों की सक्रियता मुख्यतः बारहवीं सदी में है और इसकी बुनियाद कलचुरी सम्राट बिज्जल (1130-1167 ई.) के प्रधानमंत्री बसवण्णा ने रखी। पाँचवीं से सातवीं सदी में दक्षिण भारत में व्यापक राजनीतिक और धार्मिक उथल-पुथल हुई। एक तो इस दौरान कलाभ्र (कलवार) राजवंश ने चोल और पाँड्य शासकों को उखाड़ फेंका और दूसरे, उन्होंने ब्राह्मण धर्म की जगह बौद्ध और जैन धर्म को व्यापक समर्थन दिया। कलाभ्र ब्राह्मण धर्म और संस्थाओं के विरोधी थे, इसलिए उनके शासन में बौद्ध और जैन धर्मों को दक्षिण भारत में फलने-फूलने का मौका मिल गया। सातवीं सदी में बदलाव हुआ- पल्लवों और चालुक्यों ने कलाभ्रों को पराजित कर दिया और उन्होंने ब्राह्मण धर्म और इसकी संस्थाओं- जाति, वर्णाश्रम आदि को फिर से प्रतिष्ठापित किया। चालुक्यों में विक्रमादित्य, षष्ठ (1076-1126 ई.) सबसे पराक्रमी था। उसने अपने साम्राज्य का दूर तक विस्तार किया, लेकिन उसकी स्थिति बाद में बिगड़ती गई। धीरे-धीरे उसके अधीन चालुक्य सामंतों ने अपने को स्वतंत्र घोषित कर दिया। कलचुरीवंशीय बिज्जल भी उनमें से एक था, जिसने तैलप तृतीय (1151-1156 ई.) का हटाकर अपने को कल्याण का चक्रवर्ती सम्राट घोषित किया। बसवण्णा इसी बिज्जल के यहाँ प्रधानमंत्री थे। बौद्ध और जैन धर्म धीरे-धीरे दक्षिण भारत में हाशिए पर चले गए और चोलों, पल्लवों और कलचुरियों के शासन में वर्णाश्रम धर्म और इसके ब्राह्मण रीति-रिवाज़ों का वर्चस्व बहुत बढ़ गया। चार वर्णों के साथ एक पाँचवा वर्ण अंत्यज या पंचम भी इस दौरान अस्तित्व में आ गया, जिससे निम्नवर्गीय समाज की स्थिति बहुत कमज़ोर हो गई। स्त्रियों की स्थिति भी बदतर होती चली गई- उनका धर्म के नाम पर शोषण बढ़ गया। दक्षिण में इस दौरान मंदिर-संस्कृति का विकास हुआ- मंदिर धर्म और संस्कृति के साथ वैभव के केंद्र बन गए। मंदिरों का वैभव शासकों की हैसियत से संबद्ध हो गया। ब्राह्मण और वर्णाश्रम धर्म दृढ़ होते गए और इस व्यवस्था में अंत्यजों और स्त्रियों के साथ अन्याय और शोषण अपने चरम पर पहुँच गया। शरण-आंदोलन की शुरुआत इसकी प्रतिक्रिया में हुई। यह मुख्यतः वर्ग, वर्ण और लिंगभेद के विरुद्ध दलित और शोषित वर्ग का आंदोलन था। बसवण्णा ने इसकी शुरुआत की। बसवण्णा का जन्म 1106 ई. में कर्नाटक का बालाकोट जिले के गाँव बागवेड़ी में हुआ। उन्होंने आरंभिक पारंपरिक शिक्षा के बाद गाँव बागवेड़ी छोड़ दिया और कुडालसंगमा चले गए। यहाँ उन्होंने वेदों और शास्त्रों का अध्ययन किया। कुडालसंगमा मंदिर के देव उनके आराध्य हो गए। उनके वचनों में ‘कुडालसंगमादेव’ का उल्लेख हस्ताक्षर या छाप की तरह है। बसवण्णा ने अपनी तरह के अलग शैववाद की प्रतिष्ठा की, जो पारंपरिक ब्राह्मण शैववाद से अलग था और जिसमें ब्राह्मण धर्म, वर्णव्यवस्था और लिंगभेद के लिए कोई जगह नहीं थी। पंद्रहवीं सदी में इस शैववाद का रूपांतर वीरशैववाद के रूप में हुआ हुआ। बसवण्णा ने कल्याण में एक अनुभवमंडप क़ायम किया, जिसमें 300 से अधिक शरण रहते थे, जिनमें से 28 स्त्रियाँ थीं। यहाँ गंभीर आध्यात्मिक विचार-विमर्श, चर्चाएँ और साधनाएँ होती थीं। अल्लमप्रभुदेव इस मंडप के अध्यक्ष थे और चेन्नबसवण्णा, सिद्धरामेशवर और अक्क महादेवी सहित कई प्रमुख शिवशरण यहाँ साधनारत थे। बसवण्णा की तीन रचनाएँ- षट्स्थलवचन, कालज्ञानवचन और मंत्रगोप्य मिलती हैं। उनकी कायिक, दासोह और जंगम की अवधारणाएँ बहुत मौलिक हैं और इस वर्गहीन समाज के स्वप्न की बुनियाद की तरह हैं।
‘कायक’ शब्द की व्युत्पति काया से हुई है, जिसका अर्थ है काया द्वारा किया गया। शिव शरणों ने काया के श्रम को बहुत महत्व दिया। उनके लिए कायक ही कैलास है। कायक छोड़कर इसके बदले कोई साधना उन्हें मान्य नहीं है। सिद्धरामेश्वर ने कहा है कि “शिवयोगी का शरीर वृथा नहीं जाना चाहिए; कायिक में निरत रहना चाहिए।”[4] शिवशरणों का कायक अपने लिए नहीं है, यह समाज के लिए है। कायक और दासोह, एक-दूसरे संबंधित हैं। दासोह का अर्थ है मैं समाज का दास हूँ और जो भी कायक से अर्जित करता हूँ, वह समस्त समाज का है। कायक इसी भावना और आदर्श के तहत अपनी समस्त अर्जित संपत्ति समाज को अर्पित करता है।[5] “कुलमिलाकर कायक दासोह का सूत्र है श्रम मेरे लिए, श्रम का फल हम सब के लिए।”[6] कायक और दासोह की धारणा विश्व के किसी और धर्म नहीं मिलती। आत्मा-परमात्मा या जीव-शिव को शिवशरणों ने अंग-लिंग कहा है। यह संबंध परंपरा में द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत आदि कई तरह व्याख्यायित हुआ। शरणों ने लिंगैक्य या अंग-लिंग के सामरस्य का प्रतिपादन किया है, लेकिन उनके यहाँ ख़ास बात यह है कि केवल अंग-लिंग का ऐक्य पर्याप्त नहीं है- उनके यहाँ लिंग और जंगम अर्थात् व्यक्ति और समाज में ऐक्य या सामरस्य ज़रूरी है। एम.एम. कुलबुर्गी के शब्दों में “अंग व्यक्तित्व का शुद्धिकरण ही लिंग-व्यक्तित्व और लिंग-व्यक्तित्व का समाजीकरण ही जंगम व्यक्तित्व है।”[7] शरण या लिंगायत विचार के अनुसार लिंगैक्य तो अपूर्ण व्यक्तित्व है, इससे आगे बढ़कर जंगमैक्य होना ही पूर्ण व्यक्तित्व है। कुलबुर्गी ने इसको शब्द, पद और वाक्य के अर्थ संदर्भ में समझाया है। उनके अनुसार लिंग होने का अर्थ व्यक्ति का सिर्फ़ शब्द बनना, जंगम होने का अर्थ वाक्य के लिए योग्य शब्द (पद) बनना है।[8] प्रभुलिंगलिले में उल्लेख है कि “बसव के करने से हुआ गुरु आधार, बसव के करने से हुआ लिंग, बसव के करने से हुआ जंगम।”[9] मंदिर के बढ़ते वर्चस्व के विरुद्ध शरणों ने स्थावर लिंग की जगह इष्टलिंग का विधान किया, जिसे शिवभक्त सदैव अपने साथ रख सकते थे, इसीलिए इष्टलिंग अपने पास रखने वाले ‘लिंगायत’ कहलाए। शरणों की स्त्री को लेकर धारणा भी परंपरा से अलग थी। उनका मत था कि स्त्री और पुरुष की शारीरिक संरचना भिन्न है, लेकिन दोनों में मौजूद आत्मा एक ही है, यह स्त्री-पुरुष में अलग-अलग नहीं है। एक वचनकार कहा है कि “भार्या के प्राणों को थे, कैसा जूड़ा, कैसे स्तन?” उन्होंने स्त्री को माया नहीं माना। उनके अनुसार ‘स्त्री साक्षात् कपिलसिद्ध मल्लिकार्जुन’ है। स्त्री के प्रति यदि आकर्षण है, तो शरण उससे विवाह कर लेने का आग्रह करते हैं। एक वचनकार ने कहा है कि “भक्त का यदि ललना के लिए मन ललचाए / ब्याह करके मिल ले।”
रैदास ने अपनी इस तरह के समाज की कल्पना को ‘बेग़मपुर’ कहा है। अपने एक पद में उन्होंने बेग़मपुरा की अपनी कल्पना का वर्णन करते हुए कहा है कि अब मुझे खूब अच्छा देश और घर मिल गया है। शहर का नाम बेग़मपुरा है और इस स्थान पर कोई दुःख और आशंका नहीं है। यहाँ कोई जाँच-पड़ताल नहीं होती, माल-कर नहीं लगता, कोई भय नहीं है और कोई अपराध नहीं करता। यहाँ की बादशाहत हमेशा क़ायम रहती है और साम और दाम, सभी एक से हैं। यहाँ आप जहाँ जाना चाहें जा सकते हैं- कहीं कोई रोकने वाला नहीं है। इस आबाद शहर में सभी लोग संतुष्ट हैं। रैदास अपने इस बेग़मपुर के संबंध में पद के अंत में कहते हैं कि “कह रैदास खलास चमारा, जो उस सहर सों मीत हमारा।” अर्थात् चमार रैदास कहते हैं कि जो इस शहर में है, वह हमारा मित्र है।[10] रैदास की इच्छा यह है कि इस बेग़मपुरा में कोई दुःख के बंधन में नहीं पड़े और सब सुखी रहे। उन्होंने एक जगह लिखा है कि “माधवे! पारस मनि लै जाऊ, मोहिं सोने का नहिं चाऊ। / जउ मों पै राम दयाला, देउ चून लून घीउ दाला। / मैं रूखी सूखी खाऊं, औरन की भूख मिटाऊं। / कोई परै ना दुःख की पासा, सब सुखी बसे रैदासा।”[11] अर्थात् हे माधव! अपनी पारस मणि ले जाओ, मुझे सोने का चाह नहीं है। जो यदि आप मुझ पर कृपालु हैं, तो मुझे आटा, नमक, घी और दाल दीजिए। मैं रूखी-सूखी खाऊँगा और दूसरों की भी भूख मिटाऊँगा। मेरी इच्छा तो यह है कि कोई दुःख के बंधन में नहीं पड़ें और सब सुखी रहें।
3.
भक्तिसाहित्य के कुछ रूपों में ईश्वर अतिमानवीय अस्तित्व होने के बजाय सखा या मित्र के रूप में मनुष्य है। यह संत-भक्तों या मनुष्य की इच्छा और ज़रूरत के अनुसार ग़ढा हुआ ईश्वर है। सही मायने में तो लोक में प्रचलित ईश्वर का रूप लोक की कामनाओं और ज़रूरतों का ही रूपांतरण है। भक्तिसाहित्य में कृष्ण के जितने रूप हैं कमोबेश वे सभी मनुष्य की इच्छाओं और ज़रूरतों के ही रूपांतरण हैं। राजस्थान-गुजरात में लोकप्रिय नरसी मेहता के श्रीकृष्ण लोक की ज़रूरत के अनुसार बने हुए “संपूर्ण और अबाध मनुष्य हैं।” “कृष्ण परम ब्रह्म हैं, वे तीनों लोकों के स्वामी हैं, वे देवाधिदेव हैं। उनके और भी कई रूप हैं– वे एक साथ योद्धा, प्रेमी, परमेश्वर, मुतिदाता आदि सब हैं। होंगे। लोक का इससे क्या बनता-बिगड़ता है। लोक का इनसे लेना-देना भी क्या है। लोक को तो चाहिए ऐसा कृष्ण, जो जात-बिरादरी और समाज में उसकी इज़्जत रखे और वक़्त-ज़रूरत कंधे से कंधा मिलाकर किसी सगे-संबंधी की तरह उसके साथ खड़ा हो।”[12] नरसी मेहता के श्रीकृष्ण इसी प्रकार के सखा या मित्र मनुष्य हैं। यह संबंध दास्य से आगे सख्य या मैत्री का संबंध है। भगवान् श्रीकृष्ण के साथ उनका संवाद भी बराबरी का है। वे भक्त हैं, इसलिए याचक और दास की तरह गिड़गिड़ाते तो हैं, लेकिन जैसे ही उन्हें लगता है कि उनकी सुनवाई नहीं हो रही है, तो वे बराबरी की हैसियत पर आकर ईश्वर को खरी-खेटी सुनाने में नहीं हिचकते। हार-प्रकरण में वे श्रीकृष्ण से कहते हैं- “तुं किशा ठाकुरा? हुं किशा सेवका? जो कर्मचा लेख भूस्या न जाये, / मंडळिक हारने माटे मने बहु दमे, छबीला विना दुःख केने कहाये? / को कहे लंपटी, को कहे लोभियो, को कहे तालकुटियो रे खोटो / सार कर माहरी दीन जाणी, हरि! हार आपो तो कहुं नाथ मोटो।”[13] अर्थात् तू कैसा ठाकुर? मै कैसा सेवक! जो कर्म का लेख मिटा नहीं पाता। मंडलिक मेरा दमन करता है। आप छबीले के बिना मैं अपना दुःख किसको कहूँ? कोई मुझे लंपट कहता है, कोई लालची और कोई बुरा और तालकुटिया कहता है। कृपा कर मेरी दीनता को समझें और मुझे हार दें, तो मैं आपको बड़ा मानूँगा। वे और कहते हैं कि “अमो खळभळतां तमो खळभळशो, वैकुंठे एकला केम रहेशो? / वृंदावनमां राधिका संग, मुंने एकलो मूकी केम विनोद करशो?”[14] अर्थात् मैं व्याकुल हुआ, तो तुम भी व्याकुल होओगे, बैकुंठ में अकले कैसे रहोगे? वृंदावन में मुझे अकेला छोडकर राधा के साथ के साथ कैसे विनोद करोगे? नरसी मेहता श्रीकृष्ण से अपनी नाराज़गी व्यक्त करने में संकोच नहीं करते। एक जगह वे कहते हैं कि “शामळिया! शुं सूतो छे सोड ताणी? में तारी दूमण कांई न जाणी, / समोवड साथे शोभीए, देवा [तुं तो ] छे जगदीश।”[15] अर्थात् हे श्रीकृष्ण! तू तो चादर तान कर सो रहा है। मैं तेरे मन की दुविधा नहीं समझ पाया। समवयस्क के साथ मैत्री अच्छी लगती है और तू तो जगदीश है। वे अपना प्रयोजन सिद्ध नहीं होने पर अपने बराबरी के मित्र श्रीकृष्ण की बुराई भी करने से नहीं चूकते। हार मिलने पर देरी होने पर वे श्रीकृष्ण को कहते हैं कि “आपने हार, कपटी तुं कानुडा! आ गोकुळमां कपट घणां रे कीधां, / व्रज-वनिता-शुं प्रीत जोडी-करी, तें रे आहीरडांनां दाण लीधां। / कपट करीने दहीं-दूध तें चोरिया: सुर-असुर-मुनि सरव जोतां, / कपट करीने रंगे रास रमाडियां, पछे मूक्यां बापडां वंन रोतां। / पहेले प्रीत करी तिहां कपटी न जाणियो, हवे शुं कहुं तुंने अवर वाणी? / भणे नरसैंयो: कर जोडीने वीनवुः राखने लाज, सारंपगाणि!”[16] अर्थात् हे कपटी श्रीकृष्ण! मुझे हार दे। तूने गोकुल में बहुत कपट किए। ब्रज की स्त्रियों से प्रेम किया। तूने अहीरों से दान भी बहुत लिया। कपटपूर्वक तूने दूध और दही की चोरी की और सभी सुर-असुर इसको देखते रहे। कपट से तूने रासलीला की और बेचारों को वन में रोता हुआ छोड़ गया। प्रेम करने में मैंने तुझे कपटी नहीं समझा। अब क्या करूँ? तेरे वचन झूठे हैं। व्याभिचारी से कैसा प्रेम, जो स्त्री में अनुरक्त है। मंडलिक को हार चाहिए और तू मदमस्त है!
नरसी मेहता ईश्वर श्रीकृष्ण को जिस तरह फटकारते हैं, खरी-खोटी सुनाते हैं, वैसा किसी भारतीय भाषा के किसी भक्त कवि ने नहीं किया। एक जगह तो उनका स्वर बहुत उग्र हो गया है। रात भर प्रार्थना पर भी जब उन्हें हार नहीं मिलता, तो वे कहते हैं कि “नरसैंयाने रे हार एक आपतां ताहरा बापनुं शुं रे जाये? / हारने काज तुं मौन ग्रहे, माधवा! बोलतो शें नथी? माग्या माटे?”[17] अर्थात् एक हार देने में तेरे बाप का क्या जाता है? हार के कारण तूने मौन धारण कर लिया। मैंने माँगा, इसलिए तू बोलता नहीं है? यह संबंध बराबरी का है। अंततः नाराज़ नरसी मेहता कहते हैं कि यदि राधिका इसमें बाधा बन रही हैं और वह हार नहीं देने दे रही है। वे कहते हैं- “रोकी रही राधिका कह्यं रे जेहनुं करो? के शुं प्राण लैश करुणा न आण्ये? / हठ करे तेह शुं हठ करो, शामळा! त्रूटशे स्नेह, त्रिकम! ताण्ये।”[18] अर्थात् राधा रोक रही है। उसका कहा क्यों नहीं करोगे? वह हठ कर रही है और तुम भी हठ कर रहे हो। हे त्रिकम श्रीकृष्ण! इस तरह खींचने से प्रेम टूट जायेगा। यह संबंध कुछ हद तक बराबरी का मतलब आदान-प्रदान का भी है। यहाँ ईश्वर कोई अतिमानवीय अस्तित्व नहीं है। आगे वे सीधे राधा को संबोधित हुए कहते हैं कि “ताहरुं चलण दीसे घणुं घर विशे, समुद्रतनया हींडे अंक भरतां। / पुरुषने पुरुषनो स्नेह शा कामनो? नारीने पुरुषनो संग रूडो, / जेनी माया विशे विश्व बूडी रह्यं, तेह हरि राधिका-संग बूड्यो। / छेल चंचळ, अहंकार नव कीजिये, जाय अहंकार ते जोत-जोतां, / भणे नरसैंयो : मेल मम नाथने, नीकळशे कादव कोठी धोतां।"[19] अर्थात् घर में मेरे तेरा वर्चस्व ज़्यादा है। हे समुद्रतनया! तुम उनको अंक भर कर झूलती हो। पुरुष-पुरुष के बीच प्रेम व्यर्थ है। स्त्री की शोभा पुरुष के साथ है। जिसकी माया से विश्व बँधा हुआ है, वे श्रीकृष्ण राधा में डूबे हुए हैं। हे छैल चंचला! अहंकार मत कर। अहंकार देखेते-देखते चला जाता है। नरसी कहता है कि मेरे नाथ को छोड़ दे। कोठी धोकर कीचड़ क्यों निकालती हो। नरसी मेहता साफ़ कहते हैं कि मेरी भक्ति और पूजा-अर्चन के कारण तुम ईश्वर हो। एक पद में वे कहते हैं कि “भणै नरसैयोः हूं रे हळॅवो पड्यो, ताहरा गुण पछे कोण गाशे?”[20] अर्थात् नरसी कहता है कि मैं यदि धीमा पड गया, तो फिर तुम्हारे गुण कौन गाएगा? एक जगह वे फिर कहते हैं कि- “नरसैंयाने एकहार आपी नव शक्यो चौद लोकमां गुण कोण गाशे?”[21] अर्थात् हे श्रीकृष्ण नरसी एक हार नहीं दे सके, तो चौदह लोक में तुम्हारे गुण कौन गाएगा?”
नरसी मेहता लोकसचेत भक्त कवि हैं और उन्होंने अपने लिए ईश्वर भी ऐसा गढा है, जो लोकसजग है और लोक की चिंता करता है। संत-भक्त कवियों में अधिकांश ऐेसे हैं, जिनके सरोकारों और चिंताओं में लोक नहीं है और उनमें लोक परंपराओं, रीति-रिवाज़ों के प्रति उदासीनता या अवहेलना का भाव है। नरसी मेहता इस दृष्टि से अलग और ख़ास हैं कि लोक उनकी चिंताओं और सरोकारों में बहुत मुखर और सघन है। उन्हें अपनी नात-जात की चिंता है। वे लोक में अपने उपहास से चिंतित हैं। एक जगह वे कहते हैं कि “लोक मांहे हवे थाशे हसारथ, नागरी नातमां थाशे महेणं। / रंक पासे केम रायजी शोभशे? कोडी साटे थयुं रतन देणुं।”[22] अर्थात् लोक हँसी होगी। नागर नात-जात में ताने दिए जाएँगे। रंक के साथ राजा नहीं शोभित होगा और कोड़ी के साथ रत्न कैस दिया जाएगा? मामेरा लेकर आने में विलंब करने पर श्रीकृष्ण से कहते हैं कि “वार थई, विठ्ठला! वहारे वेगे चडो, रखे नागरी नातमां हांसी थाये, / आगे भक्त तमे अनेक उद्घारिया, तमने तजी, नाथजी ! कोने ध्याये?।”[23] अर्थात् हे श्रीकृष्ण! विलंब हो गया है। जल्दी आओ, अन्यथा नागर जाति में मेरी हँसी होगी। पहले भी तुमने कई भक्तों का उद्धार किया। तुमको छोडकर मैं और किसका ध्यान करूँ। हुंडी-प्रकरण में भी उनको चिंता लोक की है। वे श्रीकृष्ण से हुंडी स्वीकार करने का अनुरोध करते हुए कहते हैं कि “जो नकारशो तमो दासनी हूंडी तो लोक मांहे उपहास थाशे, / मारुं तो एहमां कांई नहीं वणसशे, पण ताहरा भक्तनी लाज जाशे।”[24] अर्थात् हुंडी नकारागे, तो दास का लोक में उपहास होगा। मेरा इससे कुछ नहीं बिगड़ेगा, पर आपके भक्त की लज्जा जाएगी। पुत्र-विवाह के प्रकरण में भी उनका आग्रह जाति के परंपरा के अनुसार सभी रीति-रिवाज़ निभाने का है। वे श्रीकृष्ण से बारात में आने का अनुरोध करते हुए कहते हैं कि “विप्र हुं दुर्बल लोक लजामणो, जो जो रे जुगजीवन! हांसी थाये।”[25] अर्थात् मैं लोक में लज्जित और निर्धन हूँ, आप देखना, कहीं मेरी हँसी नहीं हो जाए।”
नरसी मेहता के भगवान् श्रीकृष्ण भी ऐसे है, जो लोक में नरसी के मान-सम्मान के लिए चिंतित हैं। लोक यहाँ भगवान् के सरोकारों और चिंताओं में भी है। मामेरा के प्रकरण में अपने भक्त के उसके परिजनों में मान-सम्मान के लिए भगवान् श्रीकृष्ण बहुत व्यग्र और चिंतित हैं। वे अपने भक्त के आसन्न उपहास से चिंतित होकर नींद में उठ पड़ते हैं। कवि कहता है -
“'उधडकी, ऊठिया वेगे विठ्ठल हरि, 'गरुड क्या? गरुड क्या?' वदत वाणी,
'चाल, चतुरा!' चतुर्भुज भणे : 'भामिनी ! नेष्ट नागरे मारी गत न जाणी।
चीर-छायल घणां, वस्त्र विधविध तणां, एकपें एक अधिक जाणो,
स्वप्ने जे नव चडे, नाम जेनुं नव जडे, अंग आळस तजीने रे आणो।
हेम-हाथ-सांकळों, नंग बहु निर्मळो, सुभग शणगार अंग सोहे सारो,
रीत ने भातमां रोकड रखे वीसरो, दीन थई करगरे दास मारो'।”
इन्द्र-ब्रह्मा जेने स्वप्ने देखे नहीं, ते 'माग रे माग' मुख वदत वाणी,
नरसैंनो नाथ लक्ष्मी सहित आवियो, अणगणी गांठडी अनेक आणी।”[26]
अर्थात् चौंकते हुए त्वरित वेग से विठ्ठल श्रीकृष्ण उठ खड़े हुए और कहा कि गरूड़ कहाँ है? उन्होंने राधा से कहा कि चलो! बुरे नागर मेरे बारे में नहीं जानते। वस्त्र विविध प्रकार के बहुत हैं- एक से एक अधिक सुंदर वस्त्र हैं, जो किसी ने स्वप्न में भी नहीं देखे। आलस्य छोड़ो! नग बहुत हैं, जो शृंगार में शोभित होते हैं। रीति-रिवाज़ के लिए नकद भी रखो। मेरा दास गिड़गिड़ा रहा है। इंद्र और ब्रह्मा, जिसे सपने में भी नहीं देखते, वह उससे माँग रहा है। श्रीकृष्ण सभी- सास, ससुर, भाभी, ननद, अड़ोसी-पड़ोसी, ब्राह्मण, परिजन आदि को वस्त्राभूषण देते हैं और रिवाज़ के अनुसार नक़द भी रखते हैं। वे नरसी मेहता की बेटी कुँवरबाई से कहते हैं कि “पुत्री! आ ताहरु काज अमे साधवा आविया आंहीं निज धाम मेली।”[27] अर्थात् हे पुत्री! यह तेरे काम के लिए ही हम अपना घर-बार छोड़कर आए हैं।
आलवारों ने भी अपने लिए ऐसे भगवान् की सृष्टि की जो भक्तों का सम्मान करता है। बारह आलवारों एक परकाल (तिरुमंगैयाळवार) ने अपनी प्रण की रक्षा के लिए विष्णु को ही लूट लिया। परकाल विष्णुभक्तों का प्रतिदिन भोजन करवाने लगे। कुछ ही समय में परकाल की सभी संपत्ति व्यय हो गई। वे विष्णुभक्तों भोजन कराने के लिए अपने पास जमा राजस्व को व्यय करने लगे। उन्होंने इसके लिए लूटपाट भी शुरु कर दी। चोलनरेश ने सेना भेजी, लेकिन परकाल ने उसे पराजित कर दिया। चोलनरेश ने संधि के बहाने परकाल को बुलाकर बंदी बना लिया और कारागार में डाल दिया। कारागार में तीसरे दिन स्वयं कांची के भगवान् वरदराज ने परकाल के स्वप्न में आकर कहा कि राजा को कहो कि “मैं काँची जाकर राजस्व अदा करूँगा।” परकाल राजा की आज्ञा लेकर काँची गए और भगवान् द्वारा निर्दिष्ट स्थान से धन प्राप्त कर राजस्व अदा कर दिया। भक्तों को भोजन करवाने का संकल्प परकाल ने जारी रखा, ज़रूरत पड़ी तो इसके लिए लूटपाट भी करने लगे। परकाल की लूटपाट की प्रवृत्ति के संबंध में एक रोचक जनश्रुति प्रचलित है। कहते हैं कि एक बार लूटपाट के लिए परकाल अपने साथियों के साथ पेड़ों की आड़ में छिपे हुए थे कि उन्हें एक बारात आती हुई दिखी। बारात में वर-वधू रत्नजटित स्वर्णाभूषणों से लदे हुए थे। बारातियों के पास भी आभूषण और धनसंपदा थी। परकाल और उनके साथियों ने पहले बारातियों को लूटा और उन्होंने वर-वधू को लूटना शुरू किया। परकाल ने वर के पाँव के आभूषण को नीचे झुककर अपने मुँह से तोड़ा। सब आभूषणों की गठरी बाँधकर जब वे उठाने लगे, तो यह नहीं उठी। वर, जो भगवान् विष्णु थे, उन्होंने परकाल को अपने पास बुलाकर मंत्रोपदेश दिया। परकाल के हृदय से अज्ञानांधकार दूर हुआ और ज्ञान चमक उठा। उन्होंने ध्यान से देखा, तो वर-वधू और कोई नहीं साक्षात् विष्णु और लक्ष्मी थे।[28]
4.
भक्तिसाहित्य में पार्थिव मनुष्य की महिमा का आग्रह गुरु के रूप में भी है। भक्ति-चेतना के साहित्य के अधिकांश रूपों में मनुष्य गुरु की महिमा बहुत है। कहीं इसमें गुरु ईश्वर के समकक्ष है, तो कहीं वह ईश्वर से बड़ा हो गया है और कहीं भक्त की कामना में उसने ईश्वर को विस्थापित उसकी जगह उसने ख़ुद ले ली है। गुरु की ईश्वर के समकक्ष हैसियत तो भक्ति के सभी मत-मतांतरों में है। कबीर का बहुत विख्यात कथन है कि “गुरु गोबिंद दोऊ खड़े काके लागूँ पाँव / बलिहारी गुरु आपकी गोबिंद दियो बताय।” दादू ने भी कहा है कि “गैब माहि गुरुदेव मिल्या, पाया हम परसाद। / मस्तकि मेरे कर धर्या, देख्या अगम अगाध॥” यह बात सुंदरदास ने भी यही बात दोहरायी है कि- “प्रथम बंदि परमब्रह्म परमं आनंद स्वरूपं। दुतिय बंदि गुरुदेव दियौ जिह ज्ञान अनूपं।” ईश्वर के समकक्ष गुरु की महिमा सूफ़ियों के यहाँ भी है। यहाँ गुरु को मुर्शिद कहा गया है और वह ईश्वर के समकक्ष है। बुल्लेशाह का पूरा जीवन अपने मुर्शिद इनायतशाह की नाराज़गी दूर करने में लग गया। बुल्लेशाह के लिए यही भक्ति थी। कहते हैं कि एक बार बुल्लेशाह की इच्छा हुई कि मदीना शरीफ़ की ज़ियारत को जाएँ। उन्होंने अपनी इच्छा गुरु इनायतशाह को बताई, तो उन्होंने वहाँ जाने का कारण पूछा। बुल्लेशाह ने कहा कि "वहाँ हज़रत मुहम्मद का रोज़ा शरीफ़ है और स्वयं रसूल अल्ला ने फ़रमाया है कि जिसने मेरी क़ब्र की ज़ियारत की, गोया उसने मुझे जीवित देख लिया।" गुरु ने कहा कि इसका जवाब मैं तीन दिन बाद दूँगा। बुल्लेशाह ने अपने मदीने की रवानगी स्थगित कर दी। तीसरे दिन बुल्लेशाह ने सपने में हज़रत रसूल के दर्शन किए। रसूल अल्लाह ने बुल्लेशाह से कहा, "तेरा मुर्शिद कहाँ है, उसे बुला लाओ।" रसूल ने इनायतशाह को अपनी दाईं ओर बिठा लिया। बुल्लेशाह नज़र झुकाकर खड़े रहे। जब नज़र उठी तो उनको लगा कि रसूल और मुर्शिद की सूरत बिल्कुल एक जैसी है। वे पहचान ही नहीं पाए कि दोनों में से रसूल कौन हैं और मुर्शिद कौन हैं। लालन फ़क़ीर के यहाँ भी ईश्वर और गुरु एक है। उन्होंने ‘साँई’ शब्द का प्रयोग ईश्वर और गुरु, दोनों के लिए किया है। उन्होंने कहा भी है - “कोई धन नहीं है गुरु के बिना / क्या धन खोज रहा है पागल / किसके पास है वह?” एक और जगह उन्होंने कहा, “मनुष्य-गुरु में है जिसकी निष्ठा / उसकी सभी साधनाएँ होती हैं सिद्ध।” इसी तरह एक और गीत में वे कहते हैं कि “गुरु-वस्तु को पहचान लो / अपार के खेवैया हैं गुरु / उनके बिना नहीं पाओगे किनारा।”[29]
उत्तरमध्यकाल में सहजोबाई के यहाँ गुरु ईश्वर से बड़ा हो गया है। सहजोबाई की पहचान ‘गुरु भक्ता’ के रूप में है। वे बहुत साफ़ और दो-टूक शब्दों में कहती हैं कि “राम तजूँ पै गुरु न बिसारूँ। गुरु के सम हरि कूँ न निहारूँ॥” अर्थात् राम को छोड़ सकती हूँ, लेकिन गुरु का विस्मरण नहीं करूँगी। गुरु के समान ईश्वर को नहीं देख सकती। ईश्वर की तुलना में मनुष्य जीवन में गुरु की भूमिका और महत्त्व पर उन्होंने विस्तार से विचार किया है। वे लिखती हैं -
“हरि ने जन्म दियौ जग माहिं। गुरु ने आवागवन छुटाहीं॥
हरि ले पाँच चोर दिये साथा। गुरु ने लई छुटाय अनाथा॥
हरि ले कुटुँब जाल में गेरो। गुरु ने काटी ममता बेरी॥
हरि ने रोग भोग उरझायो। गुरु जोगी कर सबै छुटायौ॥
हरि ने कर्म भर्म भरमायौ। गुरु ने आतम रूप लखायौ॥
हरि ने मों सूँ आप छिपायौ। गुरू दीपक दें ताहि दिखायौ॥
फिर हरिबंधमुक्ति गति लाये। गुरु ने सबही भर्म मिटाये॥
चरनदास पर तन-मन वारूँ। गुरु न तजूँ हरि कूँ तजि डारूँ॥“[30]
5.
लोक और पार्थिव की चिंता सूफ़ियों के यहाँ भी बहुत है। दरअसल सूफ़ियों का रहस्यवाद अपनी चरम अवस्था और कुछ नही, मनुष्यता की सेवा है। शेख़ फ़रीद का जीवन और और उनकी वाणी इसका अच्छा उदाहरण है। उन्होंने अपनी वाणी और कार्यों से आजीवन मनुष्यता की सेवा की। उन्होंने एक बार अपने शिष्यों को कहा था कि- “जब तक दरवाज़े एक भी ज़रूरतमंद खड़़ा हो, इबादत में मन नहीं लगता।”[31] मनुष्यता की यह चिंता और सरोकार ही उनको महान् बनाता है। वे लोगों के लिए दुःख और धूप में छाया की तरह थे। उनके पास सत्ता और ताक़त नहीं थी, लेकिन अपने प्रेम और सद्भाव से लाखों लोगों के उन्होंने अपने अधीन कर लिया था। शेख़ फ़रीद ने सख़्त नैतिक मर्यादाओं में रहकर ऐसा जीवन व्यतीत किया, जो आदर्श बन गया और सदियों तक सूफ़ी संतों के लिए रोशनी काम करता रहा। उनके एक अध्येता बलवंतसिंह आनंद ने लिखा है कि- “फ़रीद ने कोई फ़िलसफ़ा जैसा प्रस्तुत नहीं किया; उन्होंने तो जीवन के एक रूप और आचरण की एक पद्धति पर ज़ोर दिया। अपने यहाँ दीक्षित होने वालों से उन्होने पहले ‘शरीअत के नियमों का यथावत् पालन करवाया, उसके बाद पग-पग करके ‘तरीक़त’, फिर ‘मारफ़त’ और अंत में ‘हक़ीक़त’ की ओर ले गए।”[32] शेख़ फ़रीद बहुत कम खाते और प्रायः उपवास करते थे। अपने लिए बनी दो रोटियों में से एक रोटी उपस्थित लोगों में वितरित कर दिया करते थे। कभी-कभी तो वे बची हुई एक रोटी का आधा हिस्सा भी उपस्थित लोगों को वितरित कर देते थे। उन्होंने अपने एक श्लोक में लिखा है कि “रोटी मेरी काठ की लावणु मेरी भूख। / जिन खाधी चोपड़ी घणे सुहागिने दुख।”[33] यह भी कहा जाता है कि गौंस आजम का दिया हुआ जैतून की लकड़ी के एक ठूँठ वे अपने पास पेट पर बाँधकर रखते थे और भूख लगने पर उसको घिसकर पी लेते थे। जनसाधारण में प्रचलित काठ की रोटी यह जैतून की लकड़ी का टुकड़ा था। अधोजन में होने वाले जंगली फल पीलू और बेर भी प्रायः उनका भोजन थे। शेख़ फ़रीद आजीवन फटे-पुराने कपड़ों में रहे। उनके पास एक ही कंबल था, जिसे वे रात के ओढ़ लेते थे और दिन में बिछा लेते थे। शेख़ फ़रीद को अपने जमाअतख़ाने के लिए आने वाले लोगों फ़तूह (भेंट) आदि लेनी पड़ती थी, लेकिन वे इस राशि या सामग्री का निजी उपयोग नहीं करते थे। फ़तूह के संबंध में उन्होंने यह नियम बना रखा था कि यह उसी दिन व्यय या उपयोग में आ जाना चाहिए। वे फ़तूह में से कुछ भी बचाकर रखने के विरुद्ध थे। कहते हैं कि एक दिन बादशाह बलबन ने उनको सोने के सिक्कों की तश्तरी भेंट की। उस समय सूर्यास्त हो चुका था, इसलिए उन्होंने सुबह की प्रतीक्षा किए बग़ैर तमाम राशि ज़रूरतमंदों में वितरित कर दी। इसी तरह एक बार उनके भक्त बादशाह नसीरुद्दीन उनके लिए धन और चार गाँवों का पट्टा भेजा। उन्होंने धन तत्काल उपस्थित लोगों में बाँट दिया और पट्टा यह कहते हुए वापस भेज दिया कि यह स्वीकार करके हम सूफ़ी के बजाय जागीरदार हो जाएँगे।[34] उन्होंने कभी किसी से कोई याचना नहीं की। तंगहाली में भी बहुत निश्चिंत भाव से इबादत में लगे रहे। उन्होंने अपने एक श्लोक में लिखा है कि “फरीदा बारि पराइऐ बैसणा सांई न देहि। / जे ते एवै राखसी जोई सरीरहु लेहु।”[35] अर्थात् हे फ़रीद! ईश्वर किसी के बाहर आसन नहीं दे। वो जैसा रखेगा, मैं वैसे ही रह लूँगा। उनके जमाअतख़ाने व्यवस्थाएँ उनके शिष्यों के हाथ में थीं। वे सभी मिलकर इसमें मेहनत करते थे। कुछ जंगल में जाकर ईंधन, तो कुछ वहाँ से फल-फूल तोड़कर लाते। सभी मिलकर, जो रूखा-सूखा होता, उसे पकाते-खाते थे।
यह धारणा निराधार है कि भक्ति-साहित्य केवल लोकोत्तर सरोकारों और चिंता का साहित्य है। यह सही है इस साहित्य में लोकोत्तर की चिंता है, लेकिन यह लोकोत्तर पार्थिव और लोक का ही विस्तार है। रवींद्रनाथ ठाकुर नें सही कहा है कि “और यह कहाँ से आएगा?” पार्थिव लोक इसके कई रूपों में बहुत सघन है, लेकिन यह इसमें उदात्तीकृत होकर आता है, इसलिए कभी-कभी लोकोत्तर जैसा लगता है। भक्तिसाहित्य के कुछ रूपों में पार्थिव की चिंता समाज की आलोचना के रूप में भी है। संत-भक्तों ने जीवन को कठिन और जटिल बनाने वाली सामाजिक रूढ़ियों और निरर्थक बाह्याचारों की खुलकर आलोचना की है। यह भक्तिसाहित्य में सिद्धों से शुरू हुई हुई बहुत प्राचीन परंपरा है। कुछ संत-भक्तों के यहाँ पार्थिव लोक की चिंता अन्याय, उत्पीड़न और भेदभाव से मुक्त संसार की कल्पना या युटोपिया के रूप में भी है। भक्तिसाहित्य के कई रूपों में गुरु को ईश्वर के बराबर और कभी-कभी उससे बड़ा माना गया है। यह भी एक तरह से ईश्वर के बराबर पार्थिव मनुष्य की महिमा का विस्तार और प्रतिष्ठा है। भक्ति-साहित्य में ईश्वर सभी रूपों में ईश्वर केवल लोकोत्तर अस्तित्व नहीं है। इसके कुछ रूपों में वह मनुष्य जैसा ही मित्र और सखा है। उसके साथ संत-भक्तों के साथ संवाद और व्यवहार में मनुष्य और मनुष्य के बीच के सभी द्वंद्व और तनाव भी आए हैं।
संदर्भ और टिप्पणियाँ:
[1] अज्ञेय, खुले में खड़ा पेड़, संपा नंदकिशोर आचार्य, वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर, 1999, पृ. 69
[2] रवींद्रनाथ ठाकुर, एकोत्तरशती, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, 1958, पृ. 144.
[3] रवींद्रनाथ ठाकुर की इस बाँग्ला कविता का अनुवाद हज़ारीप्रसाद द्विवेदी ने किया है और उन्होंने इसे अपनी पुस्तक सूर-साहित्य (हिंदी ग्रंथ रत्नाकर लि., मुम्बई, 1956) में पृ. 70 पर उद्धृत किया है।
[4] एम.एम. कलबुर्गी (संपा.), ‘माणिक्य दीप्ति’ (भूमिका), वचन, हिंदी अनुवाद टी.जी प्रभाशंकर, बसव समिति, बेंगळूरु, द्वितीय संस्करण 2017, पृ. xx
[5] भालचंद जयशेट्टी (संपा.) ‘भूमिका’, वचन, बसव भारती हिंदी प्रतिष्ठान, भालकी (कर्नाटक), द्वितीय संस्करण 2015, पृ. 26
[6] एम.एम. कलबुर्गी (संपा.), ‘माणिक्य दीप्ति’ (भूमिका), वचन, पृ. xxiii
[7] वही, पृ. xii
[8] एम.एम. कलबुर्गी (संपा.), ‘माणिक्य दीप्ति’ (भूमिका), वचन, पृ. xvii
[9] एम.एम. कलबुर्गी (संपा.) द्वारा वचन की भूमिका ‘माणिक्य दीप्ति’ में पृ. xvii पर उद्धृत
[10] रैदास, रैदास बानी, संपा. शुकदेव सिंह, राधाकृष्ण प्रकाशन,नई दिल्ली, 2003, पृ. 44
[11] वही, पृ. 182
[12] माधव हाडा, ‘लोक साँवरा सेठ’, देहरी पर दीपक, सेतु प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 43
[13] नरसी मेहता, वैष्णवजन नरसिंह मेहता, संपा. चद्रकांत मेहता, गुजरात साहित्य अकादेमी, गांधीनगर, 2016, पृ. 52
[14] वही, पृ. 54
[15] वही, पृ. 58
[16] वही, पृ. 86
[17] वही, पृ. 72
[18] वही, पृ. 78
[19] वही, पृ. 12
[20] वही, पृ.74
[21] वही, पृ. 72
[22] वही, पृ.170
[23] वही, पृ. 10
[24] वही, पृ. 38
[25] वही, पृ. 18
[26] वही, पृ. 324
[27] वही, पृ. 326
[28] श्रीनिवास राघवन (संपा. एवं अनु.), ‘श्री परकाल की जीवन चरित्र’, दिव्य प्रबंध, भाग-3, विश्वभारती हिंदी भवन, शांतिनिकेतन, 1983, पृ. 2
[29] लालन फ़क़ीर, लालन फ़कीर के गीत, पृ. 84
[30] सहजोबाई, सहजप्रकाश, बेलवेडियर प्रेस, प्रयाग, 1915, पृ. 3
[31] ख़लिक अहमद निज़ामी, लाइफ़ एंड टाइम्स ऑफ़, शेख फ़रीदुद्दीन मसउद गंजं-ए-शकर, डिपार्टमेंट ऑफ़ हिस्ट्री, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़, 1955, पृ. 42
[32] बलवंतसिंह आनंद, बाबा फ़रीद, हिंदी अनु. जगदीश, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, 1987, पृ. 36
[33] शेख़ फ़रीद, शेख़ फ़रीद (कालजयी कवि और उनका काव्य), संपा. माधव हाड़ा, राजपाल एंड संज़, दिल्ली, 2024, पृ. 85
[34] ख़ालिक अहमद निज़ामी, लाइफ एंड टाइम्स ऑफ़, शेख फ़रीदुद्दीन मसउद गंजं-ए-शकर, पृ. 20
[35] शेख़ फ़रीद, शेख़ फ़रीद (कालजयी कवि और उनका काव्य), पृ. 89



Comments