पद्मिनी : इतिहास और मिथ
- Madhav Hada

- Sep 7
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अकसर पद्मिनी-रत्नसेन विषयक देशज ऐतिहासिक कथा-काव्यों को ‘मिथ’ कहा जाता है।1 यहाँ ‘मिथ’ शब्द का यह प्रयोग व्यापक रूप से मान्य और प्रचारित झूठ के लिए हुआ है। आशय यह है कि चित्तौड़ के राजा रत्नसेन ने सिंघल द्वीप की राजकुमारी पद्मिनी से विवाह किया और इसको पाने के लिए दिल्ली के अलाउद्दीन ख़लजी ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया, यह धारणा या विश्वास लोकप्रिय और मान्य तो है, लेकिन यह ग़लत है और इतिहास में ऐसा कुछ नहीं हुआ। ‘मिथ’ का यह अर्थ ‘इतिहास’ की अठारहवीं सदी में बनी धारणा के बाद व्यापक रूप में चलन में आया। दरअसल इतिहास में प्रत्यक्ष, आनुभविक और दस्तावेज़ी का आग्रह इतना बढ़ गया कि इतिहास और मिथ एक-दूसरे के विपरीतार्थक समझे जाने लगे।2 यह तथ्य लगभग हाशिए पर ही चला गया कि विश्व की सभी मानवीय सभ्यताओं में बहुत आरंभ से ही मिथ उनके सांस्कृतिक रूपों और अभिव्यक्तियों में सम्मिलित रहा है और यह पूरी तरह अर्थहीन और मिथ्या नहीं है। मिथ यथार्थ का ही प्रतिबिंबन है और पूर्व और पश्चिम, सभी जगह उसका यही सही अर्थ भी है। ‘मिथ’ और उसके गठन और विकास में सम्मिलित अभिप्राय और कथा रूढ़ियाँ केवल कल्पना नहीं हैं। दरअसल ये मानवीय स्वभाव और उसकी सांस्कृतिक ज़रूरतों के अंतर्गत हुआ यथार्थ का रचनात्मक विस्तार हैं। पद्मिनी-रत्नसेन प्रकरण में नियोजित इतिहास को उसके रचनात्मक विस्तार के लिए उसमें प्रयुक्त अभिप्रायों और कवि-कथा रूढ़ियों के बीच ही समझा जा सकता है। अच्छी बात यह है कि पद्मिनी-रत्नसेन प्रकरण बहुत पुराना नहीं है और इसमें यथार्थ के मिथकीकरण और इसमें जुड़ गए अभिप्रायों और कथा-रूढ़ियों के बनने-बदलने की यात्रा के मोड़-पड़ाव अभी पूरी तरह अदृश्य नहीं हुए हैं। यह यात्रा ऐसी है, जिसको समझने के लिए इतिहास के आधुनिक औज़ार- तर्क, युक्ति आदि का इस्तेमाल बहुत सावधानी से करने की ज़रूरत है, क्योंकि इन रचनाओं का विकास एक समय और स्थान पर नहीं हुआ और ये अपनी प्रकृति में किसी एक रचनाकार की कृतियाँ भी नहीं हैं। इसी तरह इन रचनाओं में नियोजित अभिप्रायों और कवि-कथा रूढ़ियों में भी कोई एकरूपता नहीं है। यहाँ देशज ऐतिहासिक कथा-काव्यों में वर्णित घटनाओं उनसे संबंधित प्रमुख चरित्रों की दूसरे उपलब्ध पुरालेखीय और साहित्यिक साक्ष्यों से पहचान-परख की गयी है और इस्लामी वृत्तांतकारों के इस प्रकरण से संबंधित मौन या उनके अनुल्लेख के कारणों पर भी विचार किया गया है।
1.
पद्मिनी विषयक देशज ऐतिहासिक कथा-काव्यों में नियोजित इतिहास को जानने-समझने के लिए मिथ, अभिप्राय और कथारूढ़ि को समझ लेना ज़रूरी है। हिंदी में ‘मिथ’ शब्द ही चलन में है, क्योंकि इसके लिए प्रस्तावित हुए पुराण, आद्यकथा आदि शब्द न तो इसके समानार्थी थे और न ये चलन में ही आए।3 ‘मिथ’ ग्रीक शब्द ‘muthos’ से बना है। पहले यह लेटिन में ‘mythus’ हुआ और उन्नीसवीं सदी के मध्य में यह ‘मिथ’ (myth) के रूप में प्रचलित हुआ।4. सामान्यतः यह दो अर्थों- एक तो मनुष्य के आरंभिक इतिहास की प्राकृतिक-सामाजिक धारणा और दूसरे, व्यापक रूप में प्रचारित और मान्य ग़लत धारणा, विचार या विश्वास के लिए प्रयुक्त होता है। उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में जिस तरह से कला, साहित्य, इतिहास, समाजशास्त्र आदि अनुशासनों में आधुनिकता- मतलब युक्ति, तर्क, प्रत्यक्ष और आनुभविक का आग्रह बढ़ा, उससे मिथ को प्रायः ‘झूठ’ और ‘कल्पित’ का समानार्थी मान लिया गया। इस तरह पौराणिक या अतीत से संबंधित अधिकांश घटनाओं और चरित्रों को मिथ मानकर ख़ारिज करने की प्रवृत्ति बढ़ गई। ‘मिथ’ का व्यापक अर्थ ‘पारंपरिक कथा’ है।5 ‘मिथ’ में सामान्यतः कथानक और चरित्र के साथ आरंभ, मध्य और अंत होता है और यह हमारे वर्तमान या निकट अतीत के बजाय दूरस्थ अतीत से संबंधित होता है। मिथ अकसर एक से दूसरे कथाकार को मौखिक हस्तांतरित होता है और इस दौरान कथाकार के उद्देश्य, रुचि और आग्रह के अनुसार इसमें संशोधन-संवर्धन भी होते हैं। मिथ को आमतौर पर दैवीय, निजंधरी (legend) और लोक कथा में वर्गीकृत किया जाता है, लेकिन इनको साफ़-साफ़ एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। इनमें आवाजाही होती रहती है- कभी लोक और निजंधरी कथा दैवीय कथा का रूप लेती है, तो कभी अलौकिक तत्त्व निजंधरी और लोक कथा में भी आ जाते हैं। दैवीय कथाओं में घटनाएँ और चरित्र प्रायः अलौकिक होते हैं, जबकि निजंधरी कथाओं में नायक असाधारण योद्धा और महापुरुष भी होते हैं। लोककथाएँ इनसे कुछ हद तक अलग हैं- इनमें नायक सामान्य मनुष्य भी हो सकते हैं। निजंधरी और लोक कथाओं में अतिमानवीय तत्त्वों की भी निर्णायक भूमिका होती है और इनके चरित्र भी अलौकिक हो सकते हैं। अकसर मिथ और उसमें भी ख़ासतौर पर निजंधरी और लोक कथाओं का गठन अभिप्रायों से होता है।6 अभिप्राय धीरे-धीरे कथा रूढ़ि बन जाते हैं। मिथ पूरी तरह मिथ्या या मनगढंत नहीं होते- उनमें सच्चाई भी रहती है। विख्यात अमरीकन नाट्यशास्त्री और साहित्य मर्मज्ञ जोसफ़ टी. शिप्ले ने मिथ का अर्थ करते हुए लिखा है कि “मिथ अनिवार्य रूप से एक धार्मिक शब्द है: यह आनुष्ठानिक कर्मकाण्डों से भिन्न समझा जाता है। यद्यपि यह शब्द आधुनिक प्रयोगों में अर्थहीन, उपहासास्पद या असुंदर के अर्थों में आने लगा है, लेकिन कोई भी वास्तविक मिथ इस प्रकार का नहीं होता। यह अपने प्राथमिक और शुद्धतम स्वरूप में तत्त्वमीमांसा से सम्बन्धित होता है। यह यथार्थ के प्रातिभ ज्ञान को शब्दों में बाँधने का सदृशतम प्रयास है। यह देवशास्त्र का पूर्वरूप है, क्योंकि मिथ के नियम और कथन उनकी व्याख्याओं से पहले के होते हैं।”7 कला मर्मज्ञ और चिंतक आनंद के. कुमारस्वामी ने अपनी पुस्तक हिंदुइज्म एंड बुद्धिइज्म में मिथ को अधिक समावेशी और पौर्वात्य नज़रिये से समझने की कोशिश की। ख़ास बात यह है कि उन्होंने ‘मिथ’ को ‘इतिहास’ का समानार्थी माना है। उन्होंने ‘मिथ’ के आगे कोष्ठक में ‘इतिहास’ शब्द का उल्लेख किया। उन्होंने इस संबंध में लिखा कि “स्वयं श्रुति की ही भाँति, हमें शुरुआत उस उपांत्य (अंत से पहले) सत्य, मिथ (इतिहास) से करनी चाहिए जिसका सारा अनुभव पार्थिव का प्रतिबिम्बन है। यह मिथकीय आख्यान समयातीत और कालातीत वैधतावाला और कहीं भी सत्य नहीं तथा हर कहीं सत्य वाला है: ठीक वैसे ही जैसे ईसाइयत में बावज़ूद उन सहस्राब्दियों के जो इन अंकन योग्य शब्दों के बीच आती है, “प्रारम्भ में प्रभु ने सिरजा” और “उसी के द्वारा सब कुछ रचा गया” का अभिप्राय यह होता है कि सृजन ईसा मसीह के “शाश्वत जन्म” के समय हुआ. “अग्रे” या “सर्वोपरि” का अर्थ होता है “सर्वप्रथम”: ठीक वैसे ही जैसे अब भी सुनाई जाने वाली हमारी मिथकों में “एक बार की बात है” का अर्थ केवल “एक बार नहीं” बल्कि “सदा सर्वदा” होता है। आज जिन अर्थों में इसे समझा जाता है, उस अर्थ में मिथ एक “काव्यात्मक आविष्कार” नहीं है, बल्कि अपनी वैश्विकता के कारण, इसे समान अधिकार के साथ अनेक कोणों से व्यक्त किया जा सकता है।”8 मिथ की ये व्याख्याएँ उस प्रचलित धारणा को निर्मूल सिद्ध करती हैं, जो इसको पूरी तरह कल्पित और झूठ मानती हैं। कुमारस्वामी की स्पष्ट धारणा है कि मिथ मनगढंत नहीं है- यह पार्थिव अनुभव का प्रतिबिंबन है। ज़ाहिर है, वे मिथ को यथार्थ नहीं, यथार्थ का प्रतिबिंबन मानते हैं। यथार्थ का प्रतिबिंब यथार्थ जैसा ही हो, यह ज़रूरी नहीं है। अकसर प्रतिबिंबन के दौरान लौकिक या पार्थिव का रूप बदल जाता है, लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि यह झूठ है। शिप्ले के अनुसार भी मिथ प्रातिभ ज्ञान को शब्दों में बाँधने का सदृशतम प्रयास है। कुमारस्वामी यह भी मानते हैं कि निरंतर व्यवहार के कारण मिथ का सत्य किसी समय और स्थान तक सीमित नहीं रहता। यह सार्वकालिक और सार्वदेशिक हो जाता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि यह अपने मूल से सर्वथा अलग हो जाता है। कुमारस्वामी ने संकेत किया है कि कथाओं में अकसर प्रयुक्त ‘एक बार की बात है’ इसीलिए ‘हमेशा की बात है’ की तरह प्रयुक्त किया जाता है। कुमारस्वामी यह भी मानते हैं कि मिथ को किसी एक अर्थ में भी सीमित नहीं किया जा सकता। मिथ का सच अपने निरंतर और वैविध्यपूर्ण व्यवहार के कारण अनेकार्थी हो जाता है। भारतीय परंपरा के महाकाव्य- रामायण और महाभारत मिथ के सबसे अच्छे उदाहरण हैं। ये पार्थिव का प्रतिबिम्बन भी हैं और साथ ही स्थान और समय की सीमा से ऊपर और अनेकार्थी भी हैं।
‘अभिप्राय’ और ‘कथा रूढ़ि’ मिथ की संरचना का ज़रूरी हिस्सा हैं, इसलिए मिथ को समझने में इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। ‘अभिप्राय’ का आशय स्पष्ट करते हुए जोसफ़ टी. शिप्ले ने लिखा है कि "एक शब्द या निश्चित साँचे में ढले हुए विचार, जो समान स्थिति का बोध कराने या समान भाव जगाने के लिए किसी एक ही कृति अथवा एक ही जाति की विभिन्न कृतियों में बार-बार प्रयुक्त हों, अभिप्राय कहलाते हैं।"9 हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार (i) संभावनाओं पर बल देने के कारण कथा अभिप्रायों का जन्म होता है, (ii) कथानक को गति और घुमाव देने के लिए इन अभिप्रायों का प्रयोग होता है और (iii) दीर्घकाल से व्यवहृत होने वाले ये अभिप्राय थोड़ी दूर तक यथार्थ होते हैं और आगे चलकर कथानक रूढ़ियों में बदल जाते हैं।10 भारतीय कथा-काव्यों में इनकी निरंतरता का नतीजा यह हुआ कि युद्ध, ऋतु, विवाह, नगर, दुर्ग आदि से संबंधित अभिप्राय और रूढ़ियाँ कवि शिक्षा में भी सम्मिलित कर ली गयीं। “बारहवीं सदी की रचना कविकल्पलता और चौदहवीं सदी की रचना वर्णरत्नाकर में ये नुस्खे पाए जा सकते हैं।”11 दरअसल भारतीय ऐतिहासिक कथा-काव्य इतिहास का कवि-कथाकार वर्णित रूप है। हजारीप्रसाद द्विवेदी ने विद्यापति की रचना कीर्त्तिलता को ‘इतिहास का कविदृष्ट जीवंत रूप’ कहा है।12
भारतीय ऐतिहासिक कथा-काव्य रचनाओं में कई अभिप्रायों और कवि-कथा रूढ़ियों का प्रयोग होता आया है। आमतौर पर प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय कवि-कथाकर का आग्रह वस्तु वर्णन में यथार्थ के बजाय यथार्थ की संभावना पर ज़्यादा होता था, इसलिए धीरे-धीरे कई अभिप्राय और कथा रूढ़ियाँ चलन में आ गईं। कथा वाचक तोता, स्वप्न में देखकर किसी स्त्री से प्रेम, चित्र देखकर स्त्री से प्रेम, याचक या चारण-भाट से कीर्ति सुनकर प्रेम, मुनि शाप, रूप परिवर्तन, परकाया प्रवेश, आकाशवाणी, परिचारिका से राजा का प्रेम और फिर उसका राजकन्या के रूप में अभिज्ञान, षड्ऋतु या बारहमासा के रूप में विरह वर्णन, हंस-कपोत आदि द्वारा संदेश प्रेषण, आखेट के समय घोड़े का निर्जन वन में पहुँचना और वहाँ सुंदर स्त्री से भेंट और उससे प्रेम और विवाह, समुद्र मध्य सिंघल द्वीप की मौजूदगी, सिंघल द्वीप में सुंदर पद्मिनी स्त्रियों की मौजूदगी, पद्मिनी स्त्री के शरीर से कमल गंध आना और उस पर भँवरों का मँडराना, युद्ध या किसी खेल में पराजित कर स्त्री को जीतना, युद्ध में योगिनियों द्वारा रक्तपान, शिव का मुंडमाल पहनकर युद्ध स्थल में भ्रमण, बिना सिर के धड़ का तलवार चलाना, असाध्य साधन संकल्प आदि कई कवि-कथा अभिप्राय और रूढ़ियाँ भारतीय ऐतिहासिक कथा-काव्यों में आमतौर पर मिलती हैं।13 कोमल कोठारी ने भी राजस्थान की लोक कथाओं में प्रयुक्त होने वाले कई अभिप्रायों की सूची दी है, जिनमें सौतेली माँ, सूर्य के प्रतिबिम्ब से सूरजमुखी घोड़े का जन्म, जनशून्य नगर, दैत्य और दैत्य कन्या का बावड़ी में निवास, काठ का हंस, पशु-पक्षियों द्वारा नायक-नायिका का सहयोग, विद्यालय में प्रेमी युगल का साथ पढ़ना, वस्तुओं का जादुई प्रभाव, लोभ बढ़ाने वाला तोता, हीरों-पन्नों से युक्त चीर, परियाँ, पुरुष या स्त्री का पत्थर की प्रतिमा में बदल जाना, दिव्यलोक के प्राणी का मनुष्य लोक में आगमन, नायिका के विवाह के लिए शर्तों का प्रावधान आदि प्रमुख हैं।14
2.
पदमिनी-रत्नसेन प्रकरण सभी विवेच्य ऐतिहासिक कथा-काव्यों का प्रतिपाद्य है। मलिक मुहम्मद जायसी सहित सभी इस प्रकरण पर निर्भर पांरपरिक देशज कथा-काव्य रचनाओं की कथा के मोड-पड़ाव कुछ ‘आधुनिक’ इतिहास से मिलते हैं और कुछ नहीं मिलते हैं। आधुनिक इतिहासकारों की निर्भरता अलाउद्दीन के समकालीन इस्लामी वृत्तांतों- अमीर ख़ुसरो कृत ख़जाइन-उल-फ़ुतूह (1311-12 ई.) और दिबलरानी तथा ख़िज़्र ख़ाँ (1318-19 ई.), ज़ियाउद्दीन बरनी कृत तारीख़-ए-फ़िरोजशाही (1357 ई.) तथा अब्दुल मलिक एसामी कृत फ़ुतूह-उस-सलातीन (1350 ई.) पर है, जिनमें इस प्रकरण का हवाला तो है, लेकिन इनमें पद्मिनी, गोरा-बादल आदि नहीं है और इनमें विजय अलाउद्दीन की हुई है।15 अलाउद्दीन ने 1303 ई. में चित्तौड़ पर आक्रमण किया और विजय के पश्चात दुर्ग अपने बेटे ख़िज्रख़ाँ को सौंपकर वह वापस दिल्ली चला गया। इस आक्रमण में चित्तौड़ का राजा रत्नसिंह बंदी बनाया गया और तीस हजार हिंदू क़त्ल किए गए। यह प्रकरण तिथियों की कुछ इधर-उधर के साथ सभी इस्लामी स्रोतों में कमोबेश मौजूद है। अलाउद्दीन के समकालीन जैन आचार्य कक्क सूरि का इस प्रकरण का उल्लेख भी इसकी पुष्टि करता है। कक्क सूरि पाटन के विख्यात धनाढ्य समरसाह के गुरु थे और पाटन उस समय गुजरात का बहुत समृद्ध नगर होने के साथ राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र भी था। उलुग ख़ान ने पाटन पर आक्रमण कर उसको नष्ट कर दिया था। समरशाह अलाउद्दीन और उलुग ख़ान के निकट संपर्क में भी आया था। कक्क सूरि समरसाह के गुरु होने के कारण तत्कालीन राजनीतिक उठापटक से अच्छी तरह परिचित रहे होंगे। उन्होंने अपने प्रबंध नाभिनंदनजिनोद्धारप्रबंध की रचना घटना के कुछ वर्ष बाद 1336 ई. (वि.सं.1393) में राजस्थान के कांजरोटपुर नामक स्थान पर की। अलाउद्दीन के देवगीर और रणथंभोर के युद्ध अभियानों के साथ उन्होंने उसके चित्तौड़ पर आक्रमण का भी उल्लेख किया हैं। उन्होंने इस संबंध में लिखा कि-श्रीचित्रकूट दुर्गेशं बद्ध्वा लात्वा च तद्धनम्। / कंठबद्धै कपिमिवाभ्रामयत्तं पुरे-पुरे॥ आशय यह है कि अलाउद्दीन ने चित्रकूट के राजा को भी क़ैद करके उसका धन ले लिया था और गले से बँधे बंदर के समान उस राजा को गाँव-गाँव घुमाया।16 परवर्ती इस्लामी और देशज अधिकांश स्रोतों में पद्मिनी और गोरा-बादल आ गए। अबुल फ़ज़ल (1551-1602 ई.) ने आईन-ए-अकबरी में राजा रतनसी की बहुत ख़ूबसूरत स्त्री, जिसकी अलाउद्दीन ने माँग की थी, का उल्लेख किया है।17 मोहम्मद क़ासिम फ़रिश्ता (1560-1620 ई.) का तारीख़-ए-फ़रिश्ता का विवरण भ्रामक है- उसने अलौकिक सौंदर्य और गुणोंवाली स्त्री को राजा रत्नसेन सेन की बेटी लिखा है।18 परवर्ती देशज स्रोत मुँहता नैणसीरी ख्यात (1610-1670 ई.) में भी उल्लेख है कि पदमणीरै मामले लखमसी नै अलावदीसूं लड़ काम आया।19 ख्यात में जौहर का भी उल्लेख है। लिखा गया है कि- तेरमै दिन जुहर कर रांणों लखमसी रतनसी कांम आया।20 इसी तरह सत्रहवीं सदी के अंतिम चरण में हुई रचना रावल राणारी बात (1680-1689 ई.) में भी इस प्रकरण का उल्लेख मिलता है। लिखा गया है कि- राणा रतनसीघ जी रे पदमणी थी पातस्याह अलावदीन गोरी पठान दली दिली रो चित्रकोट ऊपरे चढ़ आयो। ब्रह्मचवदा सुदी लड्यो ने रांणा जी रा बेटा बारा, भाइ पाँच, काका बाबा ओर प्रगेही रजपुत कामदार वेपारी, ब्राहम्ण कस ओर के ही तरवारिया ऊतरया। लुगायां झमर चढी। गढ भागो, पछे पातशाह तो दिल्ली गयो ने सोनीगरा मालदे गढ़ दीधो। गढ़ ब्रस पेतीस सोनीगराँ रो राज रह्यो। अर्थात् रत्नसेन के घर पद्मिनी थी, जिसके लिए दिल्ली का बादशाह उलाउद्दीन गढ़ पर चढ़ आया। रत्नसेन के बारह पुत्र, पाँच भाई, काका व बाबा, कई सगे-संबंधी, ब्राह्मण और अन्य जातियों के लोग मारे गए, स्त्रियों ने जौहर किया। चित्तौड़ परास्त हुआ। फिर बादशाह दिल्ली गया और उसने मालदेव सोनगरा का क़िला दे दिया। गढ़ पर पैंतीस बरस तक सोनगरा का राज्य रहा।21
सभी विवेच्य देशज ऐतिहासिक कथा-काव्यों में घटना का वृत्तांत कमोबेश एक जैसा है। इनमें से अधिकांश में रत्नसिंह के पद्मिनी से विवाह, राघव चेतन का नाराज़ होकर दिल्ली जाना, वहाँ जाकर पद्मिनी के रूप-सौंदर्य की सराहना कर अलाउद्दीन को युद्ध के लिए उकसाना, अलाउद्दीन का आक्रमण, गोरा-बादल का युक्तिपूर्वक रत्नसिंह को छुड़ाना आदि प्रसंग आए हैं। यही सही है कि समकालीन स्रोतों में प्रकरण का विवरण पूरा नहीं है, लेकिन लोक स्मृति में यह पूरा है और लोक स्मृति के आधार पर ही परवर्ती इस्लामी स्रोतों- अबुल फ़ज़ल (1551-1602), फ़रिश्ता (1560-1520 ई.) और हाज़ी उद्दबीर (1540-1605 ई.) के यहाँ आया। और लोकस्मृति से ही यह प्रकरण जायसी के पद्मावत (1540 ई.) में रूपांतरित हुआ। यह धारणा सही नहीं है कि जायसी ने सर्वप्रथम इसकी कल्पना की, क्योंकि परवर्ती इस्लामी स्रोतों से जायसी की कथा के मोड़-पड़ाव मेल ही नहीं खाते।
3.
रत्नसेन के अस्तित्व को लेकर आरंभिक कुछ इतिहासकारों ने संदेह व्यक्त किया, लेकिन ऐतिहासिक देशज कथा-काव्यों में इस संबंध में कोई संदेह कभी नहीं रहा। रत्नसेन इन सभी ऐतिहासिक कथा-काव्यों का निर्विवाद नायक है। वह चित्तौड़ का शासक है और पद्मिनी उसकी विवाहिता है, यह उल्लेख भी सभी रचनाओं में है। जटमल नाहर कृत गोरा-बादल कथा को छोड़कर सभी रचनाओं में वह गुहिलवंशी है। गोरा-बादल कवित्त में कहा गया है कि- चित्रकोट कैलास, वास वसुधा विख्यातह, रत्नसेन गहलोत, राय तिहाँ राज करंतह।22 हेमरतन ने भी लिखा है कि तिणि गढि राज करइ गहिलोत रतनसेन राजा जस-जोत्त।23 इसी तरह लब्धोदय भी लिखता है कि- रतनसेन राणो तिहां, जा सम भूपन ओर।24 खुम्माणरासो में स्पष्ट उल्लेख है कि- राणो रतन सेन गहिलोत देसपति मोटो देसोत।25 राणारासो में भी कहा गया है कि- वसै वास चीतोर राना रयन्नं।26 समिओकार ने राजा रत्नसेन के लिए ‘खुंमान’ शब्द का प्रयोग किया है। ‘खुम्माण’ मेवाड़ का नवीं सदी का यशस्वी शासक था, इसलिए यह संज्ञा मेवाड़ के शासकों के लिए प्रयुक्त होती आयी है। समिओकार लिखता है कि- राजा रतनसेन खुंमान तव गढ़ चित्रकोट केरा धनी।27 पाटनामा के रत्नसेन के परिचय में चित्तौड़ और गुहिल के साथ उसके सूर्यवंशी होने का उल्लेख भी है। पाटनामाकार लिखता है कि “देस तो मेवाड़ कला को चत्रकोट राजा को नाम रतनसेण जात को सूरजबंसी गहलोत....।”28 जटमल नाहर ने इन सबसे अलग जायसी की तरह रत्नसेन को चौहान लिखा है- रतनसेन तिहाँ राय... चतुर पुरुस चहुवाँन।29
रत्नसिंह ऐतिहासिक चरित्र है, इसकी पुष्टि शिलालेख, पारंपरिक इतिहास और लोक स्मृति से होती है, लेकिन आधुनिक भारतीय इतिहासकारों ने पद्मिनी के साथ उसकी ऐतिहासिकता पर भी संदेह किया है। इस संदेह का आधार इस्लामी स्रोतों और कुछ पारंपरिक अभिलेखों में अलाउद्दीन के समय चित्तौड़ के राजा के रूप में उसका नामोलेख नहीं होना है। समकालीन इस्लामी वृत्तांतकार अमीर ख़ुसरो और अब्दुल मालिक एसामी ने चित्तौड़ के राजा के लिए ‘राय‘ शब्द का इस्तेमाल किया है। ज़ियाउद्दीन बरनी का चित्तौड़ आक्रमण का वर्णन ही दो पंक्तियों में है और वह चित्तौड़ के किसी राजा या राय का उल्लेख ही नहीं करता। ज़ियाउद्दीन बरनी ने तारीख़-ए-फ़िरोजशाही में केवल इतना लिखा कि “सुल्तान अलाउद्दीन ने पुनः शहरे देहली से सेना लेकर चित्तौड़ पर चढाई कर दी। चित्तौड़ को घेर लिया और शीघ्रातिशीघ्र किले पर विजय प्राप्त करके शहर लौट आया।”30 अबुल मलिक एसामी का वर्णन भी बहुत संक्षिप्त है, लेकिन वह चित्तौड़ के राजा को ‘राय’ लिखता है। उसके शब्दो में “इसके उपरांत सुल्तान ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया। राय 8 मास तक युद्ध करता रहा, किंतु 8 मास के उपरांत राय ने क्षमा याचना की और सुल्तान ने ख़िलअत देकर सम्मानित किया।”31 अमीर ख़ुसरो का घटना का वर्णन अपेक्षाकृत विस्तृत है, लेकिन उसने भी चित्तौड़ के शासक के रूप रत्नसिंह का नामोल्लेख नहीं किया।32 अलाउद्दीन के समय चित्तौड़ में सत्तारूढ़ शासक के संबंध में पारंपरिक वंशावली अभिलेखों में से कुछ में रत्नसिंह का उल्लेख है, जबकि कुछ में नहीं है। दरअसल अधिकांश वंशावली अभिलेख महाराणा कुंभा (1433-1468 ई.) के समय के हैं और घटना के सदियों बाद पारंपरिक कथा-काव्यों और लोक स्मृति के आधार पर तैयार किए गये हैं। कुंभा हम्मीर का वंशज था और हम्मीर गुहिलवंश की राणा शाखा से संबंधित था। गुहिलवंश की रावल शाखा रत्नसिंह की मृत्यु के साथ समाप्त हो गई। मेवाड़ के वंशानुक्रम से संबंधित अधिकांश शिलालेख और कथा-काव्य कुंभा के समय और उसके बाद बने, इसलिए इनमें हम्मीर के राणा शाखा के पूर्वजों के भी नामोल्लेख हैं, लेकिन इनमें से कोई सत्तारूढ़ नहीं हुआ। ये सभी मेवाड़ की एक जागीर सिसोदा के सामंत थे। हम्मीर और उसके परवर्ती सभी शासक सिसोदा की राणा शाखा से संबंधित थे, इसलिए सिसोदिया कहलाए। रणकपुर (1439 ई.)33, जगदीश मंदिर (1651 ई.)34 और एकलिंगजी (1652 ई.)35 के शिलालेखों में रत्नसिंह का उल्लेख नहीं है, जबकि राजसिंहकालीन राजप्रशस्तिमहाकाव्य (1675 ई.)36 में रत्नसिंह का नामोल्लेख सत्तारूढ़ लक्ष्मसिंह के छोटे भाई के रूप में है, जिसने पद्मिनी से विवाह किया। यह सही है कि इस्लामी स्रोतों और कुछ पारंपरिक वंश रचनाओं और शिलालेखों में रत्नसिंह का नामोल्लेख नहीं है, लेकिन केवल इस आधार पर रत्नसिंह की ऐतिहासिकता संदिग्ध नहीं हो जाती। दरअसल इस्लामी इतिहासकारों में नामोल्लेख करने की कोई एकरूप परंपरा नहीं मिलती। वे कभी बहुत ज़रूरी और महत्त्वपूर्ण नाम नहीं लिखते और कभी-कभी बहुत ग़ैरज़रूरी और मामूली नामों की चर्चा करते हैं। परवर्ती इस्लामी इतिहासकार अबुल फ़ज़ल ने ‘राय रतनसी’37 और मोहम्मद कासिम फ़रिश्ता ने ‘राय रत्नसेन’38 के रूप में रत्नसिंह का नामोल्लेख किया है। कुछ शिलालेखों और वंश रचनाओं में रत्नसिंह नामोल्लेख नहीं होने का कारण उसके साथ ही उससे संबंधित रावल शाखा समाप्त हो जाना है। उसके बाद चित्तौड़ पर फिर अधिपत्य कायम करनेवाला हम्मीर गुहिलवंश की सिसोदा राणा शाखा से संबंधित था, इसलिए वंशावलियों में हम्मीर के पूर्वजों में रत्नसिंह का नामोल्लेख सब जगह नहीं है।
रत्नसिंह गुहिलवंश की रावल शाखा के समरसिंह का पुत्र था और अलाउद्दीन ख़लजी के आक्रमण के समय वह चित्तौड़ में सत्तारूढ़ था, यह अन्य कई प्रमाणों से सिद्ध है। रत्नसिंह के समय का एक शिलालेख दरीबा के पास स्थित एक मंदिर के स्तंभ पर वि.सं. 1869 माघ सुदी 5 बुधवार (शनिवार 24 जनवरी, 1303 ई.) का खुदा हुआ है और इसमें स्पष्ट उल्लेख है कि संवत् 1359 वर्ष माघ सुदि 5 बुधवार दिने अद्येह श्रीमेदपाट मंडले समस्त राजावलि समलंकृत महाराज कुल श्री रतनसिंह देव का कल्याण विजय राज्ये तन्नियुक्त महं, श्री महणसीह समस्त मुद्रा व्यापारान् परिपांथियति......। अर्थात् समस्त राजगुणों से समलंकृत महाराज कुल अर्थात् महारावल श्री रत्नसिंह देव का कल्याणकारी राज्य प्रर्वतमान था और उनका समस्त राज्य कार्य भार वहन करने वाला अर्थात् मुख्य प्रधान महं (महत्तम-महेता) महणसिह था।39 दरीबा शिलालेख के उत्कीर्ण होने के चार दिन बाद 28 जनवरी,1303 ई. को उल्लाउद्दीन ख़लजी ने चित्तौड़ पर आक्रमण करने के लिए दिल्ली से प्रस्थान किया और 26 अगस्त, 1303 ई. को उसने दुर्ग जीत लिया। इसकी पुष्टि अमीर ख़ुसरो अपने आक्रमण के विवरण में भी करता है।40 कुंभा के समय विशेष शोध और परिश्रम से तैयार किए गए कुंभलगढ़ के शिलालेख वि.सं.1517 (1460 ई.) में भी स्पष्ट उल्लेख है कि समरसिंह के बाद उसका पुत्र रत्नसिंह (श्लोक-176) सतारूढ़ हुआ। मेवाड़ की कनिष्ठ राणा शाखा का लक्ष्मसिंह (श्लोक-180) जागीर सिसोदा का शासक था, जो 1303 ई. में रत्नसिंह के शासनकाल में अलाउद्दीन के विरुद्ध लड़ाई में अपने सात पुत्रों सहित मारा गया।41 यही प्रशस्ति महाराणा इन कुंभाकालीन (1433-1468 ई.) एकलिंगमाहात्म्य में भी मिलती है।42 स्पष्ट है कि अलाउद्दीन ख़लजी की चित्तौड़ पर चढ़ाई के समय गुहिलवंश की रावल शाखा के समरसिंह का पुत्र रत्नसिंह चित्तौड़ का शासक था।
4.
पद्मिनी-रत्नसेन प्रकरण पर निर्भर सभी काव्यों में पद्मिनी नायिका है। ख़ास बात यह है कि इन सभी में यह उल्लेख है कि वह चार कोटि की- शंखिनी, चित्रिणी हस्तिनी और पद्मिनी में से एक सर्वश्रेष्ठ पद्मिनी स्त्री के लक्षणोंवाली स्त्री है। यों इन सभी रचनाओं में विस्तार या संक्षेप में स्त्री की इन कोटियों का वर्णन आया है। गोरा-बादल कवित्त में रत्नसेन की स्त्री को सिंघल की पद्मिनी (रत्नसेन घरि नारि, नारि सिंघली सुणिज्जइ)43 कहा गया है। हेमरतन ने यह संकेत किया है कि सिंघल द्वीप के राजा की बहन ‘प्रत्यक्ष पद्मिनी’ (तासु बहिनी परतिख पदमिणी)44 है। दलपति विजय का उल्लेख (बहिन अछें सींघल पति तणी, परतिख आप अछें पदमणी)45 भी ठीक हेमरतन की तरह ही है। लब्धोदय ने इसको कुछ अधिक स्पष्ट किया है। उसके अनुसार सिंघल द्वीप के राजा की बहन पद्मिनी है और वह रूप में रंभा के समान है (तास बहिन पदमणी रे, रूपें रंभ समान रे)।46 जटमल नाहर47 के यहाँ और पद्मिनीसमिओ48 में यह उल्लेख (पद्मपुत्री सुखदायक) इसी तरह का है। पाटनामा में यह उल्लेख बहुत स्पष्ट है। यहाँ वह सिंघल द्वीप के राजा की पुत्री है और उसका नाम मदनकुँवर है और वह पद्मिनी कोटि की स्त्री है। पाटनामाकार उसका परिचय देता हुआ साफ़ लिखता है कि- गाम मनोहरगढ़ का राजा की बेटी राजा को नाम समनसी पुवार। राजा समनसी की बेटी नाम मदन कुवरी असत्री की जात पदमणी..। अर्थात् मनोहरगढ़ के राजा की बेटी। राजा का नाम समरसिंह पंवार। राजा की बेटी का नाम मदनकुंवरी। स्त्री की जाति पदमिनी...।”49 पाटनामाकार यह स्पष्ट उल्लेख करता है कि कि मदन कुंवर स्त्रियों की चार कोटियों में से एक पद्मिनी कोटि की स्त्री है। वह लिखता है कि- परंत एके अरज मारी सांमलो असत्री जात की चारु बरण हुवे है। पदमणी, हस्तणी, चत्रणी संखणी, ए च्यार ही बरण माहे पदमणी को बरण राजा है। च्यार जात महे अणा बाई हे लोग संसार कहे है क या पदमणी हे। अणी हे आप परणिया हो। अर्थात् मेरा एक निवेदन सुनिए। स्त्री चार प्रकार की- पद्मिनी, हस्तिनी, चित्रणी और शंखिनी होती है और इनमें राजा मतलब सर्वोपरि पद्मिनी है। संसार और लोग कहते हैं कि जिससे आपने विवाह किया है, वह पद्मिनी है।50 स्पष्ट है कि इन कथा-काव्यों में रत्नसेन की विवाहिता स्त्री को पद्मिनी इसलिए कहा गया हैं, क्योंकि उसमें शास्त्र वर्णित पद्मिनी स्त्री के लक्षण हैं। पाटनामा में उसका नाम मदनकुँवर है।
लोक स्मृति और पारंपरिक देशज ऐतिहासिक कथा-काव्यों में पद्मिनी इस प्रकरण का केंद्रीय चरित्र है, लेकिन अधिसंख्य आधुनिक इतिहासकारों की निगाह में इतिहास में इस तरह का कोई चरित्र नहीं हुआ। अलाउद्दीन ख़लजी के समकालीन इस्लामी वृत्तांतकार चित्तौड़ पर आक्रमण का उल्लेख तो करते हैं, लेकिन वे वहाँ किसी रानी या पद्मिनी का उल्लेख नहीं करते। अमीर ख़ुसरो, अब्दुल मलिक एसामी और ज़ियाउद्दीन बरनी, तीनों हो इस्लामी वृत्तांतकार रानी या पद्मिनी का नाम नहीं लेते। अलबत्ता कुछ इतिहासकारों ने अमीर ख़ुसरो के प्रकरण के वृत्तांत में पद्मिनी या रत्नसेन की रानी के सांकेतिक उल्लेख की बात स्वीकार की है। अमीर ख़ुसरो अलाउद्दीन का समकालीन था। ख़ास बात यह है कि वह चित्तौड़ पर आक्रमण के दौरान अलाउद्दीन ख़लजी के साथ था, इसलिए इतिहासकारों की राय में उसका वृत्तांत प्रत्यक्ष और आनुभाविक है। अमीर ख़ुसरो के वृत्तांत के संबंध में ख़ास बात यह है कि यह बहुत अतिरंजित और अलंकरणप्रधान है, इसलिए फ़ारसी के जानकारों ने इसके एकाधिक रूपांतरण किए हैं और ये सभी इस कारण एक-दूसरे से मिलते नहीं हैं। एच.एम. इलियट ने हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया, एज टोल्ड बाई इट्स ऑन हिस्टोरियन में ख़जाइन-उल-फ़ुतूह को इतिहास की अपेक्षा काव्य अधिक माना है और उन्होंने इसका केवल सार-संक्षेप प्रस्तुत किया है।51 सैयद अतहर अब्बास रिज़वी ने भी ख़लजी कालीन भारत में ख़जाइन-उल-फ़ुतूह का सार ही प्रस्तुत किया है। पहली बार ख़जाइन-उल-फ़ुतूह का शब्दशः अंग्रेज़ी भाषांतर इतिहास और फ़ारसी के विद्वान् प्रो. मुहम्मद हबीब ने किया। इलियट और रिज़वी के प्रकरण के सार-संक्षेप में अलाउद्दीन ख़लजी की चित्तौड़ के विरुद्ध चढ़ाई में किसी स्त्री का ज़िक्र नहीं है, लेकिन प्रो. हबीब के इस प्रकरण के शब्दशः अंग्रेजी रूपांतरण में आए ‘हुद-हुद’ का संबंध कुछ इतिहासकारों और विद्वानों ने पद्मिनी से जोड़ा है। यह उल्लेख इस तरह है –
“11 मुहर्रम हिजरी सन् 703 सोमवार के दिन इस युग का सुलेमान (अलाउद्दीन) अपने ऊँचे सिंहासन पर बैठकर उस किले में दाख़िल हुआ, जिसकी बुलंदी तक परिंदे भी उड़ान नहीं भर सकते थे। ख़ाकसार (अमीर ख़ुसरो), जो इस सुलेमान (अलाउद्दीन) का पक्षी है, उसके साथ था। वे बार-बार “हुद हुद! हुदहुद!” चिल्ला रहे थे, किंतु मैं (अमीर ख़ुसरो) हाज़िर नहीं हुआ, क्योंकि मुझे भय था कि शायद सुल्तान गुस्से में पूछ बैठे, ‘‘क्या बात है, हुदहुद क्यों नहीं दिखाई पड़ा। क्या वह भी अनुपस्थितों में है? और यदि मेरी अनुपस्थिति की ‘ठीक कैफ़ियत माँगे’, तो मैं क्या बहाना बनाऊँगा? यदि गुस्से में आकर बादशाह कह दे “मैं तुझे दंड दूँगा” तो बेचारा यह पक्षी उसको सहन करने का हौंसला कर सकेगा?”52
दरअसल कुरान में ‘हुदहुद’ का उल्लेख एक पक्षी के रूप में है, जो सुलेमान के पास शेबा की रानी बिलक़ीस के समाचार लाता था। कुछ इतिहासकारों और विद्वानों की राय है कि अमीर ख़ुसरो इस प्रकरण में ख़ुद को हुदहुद और अलाउद्दीन ख़लजी को सुलेमान मानता है। उसके अनुसार अलाउद्दीन ख़लजी चित्तौड़ के क़िले में प्रविष्ट होने के बाद पद्मिनी को नहीं पाकर अमीर ख़ुसरो को उसका संदेशवाहक ‘हुदहुद’ मानते हुए उससे पद्मिनी की अनुपस्थिति की क़ैफ़ियत माँग रहा है। ‘हुदहुद’ का उल्लेख पद्मिनी के संदेशवाहक के लिए हुआ है, इसकी पुष्टि करते हुए इतिहासकर आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव ने लिखा है कि “अमीर ख़ुसरव अवश्य इस घटना की ओर संकेत करता है, जबकि वह अलाउद्दीन की सुलेमान से तुलना करता है, सेबा को चित्तौड़ के क़िले के भीतर बताता है और अपनी उपमा उस ‘हुदहुद’ पक्षी से देता है, जिसने युथोपिया के राजा सुलेमान को सेबा की सुंदर रानी बिलक़ीस का समाचार दिया था।”53 ख़जाइन-उल-फ़ुतूह का शब्दशः अनुवाद करने वाले मोहम्मद हबीब का भी यही मानना है कि ‘”हुदहुद (और ज़ाहिर है, इससे संबंधित सेबा की रानी से भी) से ख़ुसरो का आशय अपने लिए है, जिसे अलाउदीन को सुंदर पद्मिनी का समाचार देना है।”54 विख्यात पुरातत्त्वविद् मुनि जिनविजय की धारणा भी यही है। उनकी स्पष्ट धारणा है कि यह उल्लेख पद्मिनी से संबंधित है और “अमीर ख़ुसरो के उक्त कथन का इसके सिवा और कोई अर्थ नहीं घट सकता, और न ही सुलेमान और सेबा की रानी बिलक़ीस के साथ ‘हुदहुद‘ पक्षी की उपमा का ज़िक्र इस, संदर्भ में अन्य रूप में सार्थक हो सकता है।”55 एक और इतिहासकार सुबीमलचंद्रा दत्ता ने भी अमीर ख़ुसरो के हुदहुद संबंधी उल्लेख का निहितार्थ पद्मिनी ही माना है। उन्होंने इसे अधिक स्पष्ट करते हुए लिखा कि- “कहानी इससे संबंधित है कि कैसे डेविड के बेटे सुलेमान ने सैनिकों, जानवरों और पक्षियों सहित विशाल सेवकों के दल सहित एक अभियान किया, जिनमें से 'हुदहुद' भी एक था। जब उन्होंने रेगिस्तान के पास डेरा डाला, तो 'हुदुहुद' को याद किया और घोषणा की कि वे इसे कड़ी से कड़ी सज़ा देंगे, जब तक कि पक्षी संतोषजनक ढंग से अपनी अनुपस्थिति का कारण स्पष्ट नहीं करता। 'हुदहुद' तुरंत प्रकट हुआ और उसने सूचित किया कि वह सेबा और उसकी रानी बिलक़ीस की ख़बर लाया है, जो सूर्य की पूजा करती थी। सुलेमान ने तुरंत हुदहुद को पत्र के साथ बिलक़ीस को ख़ुद को समर्पित करने के लिए संदेश भेजा। उसने अपने सलाहकारों को इकट्ठा किया और अपने दूत को सुलेमान के पास उपहारों के साथ भेजा, जिसने हालाँकि घोषणा की कि वह बिलक़ीस की व्यक्तिगत अधीनता के अलावा किसी और चीज़ से संतुष्ट नहीं होगा। चित्तौड़ के ख़िलाफ़ अलाउद्दीन के अभियान और सेबा की भूमि के ख़िलाफ़ सोलोमन के कार्यों के बीच समानता उचित होगी, क्योंकि चित्तौड़ में सेबा की प्रतिकृति थी। ज़ाहिर है, इसलिए ख़ुसरो का तात्पर्य है कि अलाउद्दीन ने चित्तौड में शासक परिवार की महिला पद्मिनी के आत्मसमर्पण पर ज़ोर दिया।”56 यह सही है कि इस्लामी समकालीन स्रोतों में पद्मिनी का उल्लेख नहीं है, लेकिन केवल इस आधार पर उसे अनैतिहासिक और कल्पित चरित्र मान लेना ग़लत होगा। पद्मिनी पारंपरिक देशज कथा-काव्यों और लोक स्मृति में है और उसके अस्तित्व का सांकेतिक उल्लेख अमीर ख़ुसरो के ख़जाइन-उल-फ़ुतूह में भी है।
5.
अलाउद्दीन ख़लजी का ऐतिहासिक अस्तित्व असंदिध है और वह इन देशज ऐतिहासिक कथा-काव्यों में खलनायक की हैसियत में है। उल्लेखनीय और आश्चर्यकारी तथ्य यह भी है कि सल्तनत और मुग़लकाल के सभी शासकों में से वही एक ऐसा शासक है, जिसकी लोक स्मृति में मौजूदगी बहुत निंरतर और सघन है। वह संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और देश भाषा काव्यों में वर्णित है और उससे संबंधित कुछ लोक कथाएँ भी मिलती हैं।57 देशज ऐतिहासिक कथा-काव्यों में वह खलनायक है और यह जानकर कि रत्नसेन की विवाहिता स्त्री पद्मिनी है, वह उसको पाने के लिए चित्तौड़ पर आक्रमण करता है। गोरा-बादल कवित्त में उसको ‘आलिमशाह अलावदी’ कहा गया।58 उसकी प्रशस्ति में भाट कहता है कि- एक छत्र जिण प्रथीय, धरीय निश्चल धरणि पर, आंण किद्ध नव खंड ,अदल किद्धु दुनि भीतर। अर्थात् जिसका संपूर्ण पृथ्वी पर एक छत्र साम्राज्य है और जिसने दुनिया के नौखंडों में न्याय क़ायम किया है।59 हेमरतन ने भी उसका वर्णन इसी तरह किया है। वह लिखता है कि- डिल्लीपति पतिसाह प्रचंड अवनि एक तसु आंण अखंड। / अलावदीन नव खंडे नाम, नृप सहु तेहनइँ करइ सिलाँम॥ अर्थात् दिल्ली का बादशाह बहुत प्रचंड है और उसने संपूर्ण पृथ्वी को अविभाजित एक कर दिया है। उसका नाम नौ खंडों में है और सभी राजा उसको सलाम करते हैं।60 जटमल नाहर के अनुसार पातसाह तिहाँ अलावदी करै राज सिर नर सुथिर अर्थात् वहाँ (दिल्ली का) का बादशाह अलाउद्दीन है और वह देवताओं और मनुष्यों पर अच्छी तरह शासन करता है।61 खुम्माणरासो उसे ‘आलम’ “असपति’ आदि62 और राणारासो में ‘अलावदी’ और समिओ में उसे ‘साहि’, ‘पतिसाहि’ आदि63 कहा गया है। उसके सैन्य बल का इन सभी कवि-कथाकारों ने अतिरंजनापूर्ण वर्णन किया है। उसकी सेना में सम्मिलित हाथियों, घोड़ों, पैदल सैनिकों आदि का विवरण अपनी तरह से ये सभी कवि-कथाकर देते हैं।
अधिकांश इतिहासकर यह मानते हैं कि अलाउद्दीन ने चित्तौड़ पर आक्रमण राजनीतिक प्रयोजन- साम्राज्य विस्तार के लिए किया64, लेकिन सभी देशज कथा-काव्यों के अनुसार चित्तौड़ पर उसके आक्रमण का एक मात्र प्रयोजन पद्मिनी पाना था। इन रचनाओं में उसके स्त्री लोलुप स्वभाव और कामांधता का वर्णन है। गोरा-बादल कवित्त में अलाउद्दीन कहता है कि मारुउ देस हिंदुआण कूं, त्रीया एक जीवित धरउं अर्थात् हिंदू देश की ख़त्म कर स्त्री (पद्मिनी) को जीवित पकड़ लूँगा।65 गोरा-बादल पदममिणी चउपई में पद्मिनी के लिए अलाउद्दीन की व्याकुलता का विस्तृत वर्णन है। वह राघव व्यास से कहता है कि-एहनउ रूप अनोपम एह रूप तणी इण लाधी रेह। एहना एक अँगूठा जिसी अवर नारि नहु दीसइ इसी। अर्थात् इसका रूप अनुपम है, इसके जैसी और कोई नहीं है। यहाँ इसके अँगूठे जैसी भी कोई नहीं है।66आगे कवि कहता है कि- पद्मिणी नारि हिया महि वसी और मूर्च्छित चित्त हुए पातसाहि अर्थात् पद्मिनी स्त्री उसके हृदय में बस गई और वह मूर्च्छित हो गया।67पाटनामा में भी उल्लेख है कि-पातसाह पद्मिणी जी देखेर सुध भूल ही गीयो अर्थात् बादशाह पद्मिनी देखकर सुध भूल गया।68
इतिहास में अलाउद्दीन के संबंध में परस्पर विरोधी धारणाएँ मिलती हैं। अफ़्रीकी यात्री इब्न बतूता के अनुसार वह सबसे अच्छा सुल्तान था69, जबकि उसके अपने समकालीन वृत्तांतकार ज़ियाउद्दीन बरनी के अनुसार वह बहुत क्रूर और नृशंस शासक था।70 बरनी उसकी अत्यधिक मदिरापान की आदत और उसके अंतःपुर में स्त्रियों पर होने वाले भारी व्यय का ज़िक्र भी करता है।71 यों उसके समकालीन वृत्तांतकारों ने साफ़ उल्लेख नहीं किया है, लेकिन पारिस्थितिक साक्ष्य इस तरह के हैं, जो उसके स्त्री लोलुप और कामांध होने की ओर संकेत करते हैं। अलाउद्दीन स्त्री लोलुप और कामांध था, यह अन्य इस्लामी स्रोतों से भी सिद्ध है। गुजरात के अरबी इतिहास के लेखक हाजी उद्द्बीर (1605 ई.) ने अलाउद्दीन के चरित्र का जो विवरण दिया है, वह इसी तरह का है। विवरण के अनुसार उसके विवाहेतर संबंधों के कारण उसकी धर्मपत्नी उससे खिन्न और रुष्ट रहती थी।72 पारंपरिक देशज आख्यानों से यह भी सिद्ध है कि उसने स्त्रियाँ पाने के लिए ही युद्ध अभियान किए। उसने गुजरात पर कमला, रणथंभोर पर देवलदेवी और देवगीर पर छिताई के लिए चढ़ाई की। छिताईचरित्र में अल्लाउद्दीन राघवचेतन से कहता है कि “वह न बेटी देता है और न स्थान छोड़ता है। “मैं देवल (देवी) के लिए रणथंभोर गया; किंतु मेरा एक भी काम सिद्ध नहीं हुआ।” दिल्ली के स्वामी ने कहा, “मैंने चित्तौड़ में पद्मिनी के संबंध में सुना। मैंने जाकर रत्नसेन को बाँध लिया, किंतु बादल उसे छुडा ले गया। जो अबकी बार मैंने छिताई को न लिया, तो यह सिर मैं देवगीर को अर्पित करूँगा।”73 नयचंद्र सूरि ने भी अपने हम्मीरमहाकाव्य (1390 ई.) में स्पष्ट उल्लेख किया है कि अलाउद्द्दीन का दूत हम्मीर से कहता है कि- “हे हम्मीर! यदि राज्य को भोगने की तुम्हारी इच्छा है तो एक लाख स्वर्ण मुद्रा, चार मदमत्त हाथी, तीन सौ घोड़े और भेड़ें तथा अपनी पुत्री को हमें देकर हमारे आदेश को सिर आँखों पर चढ़ा लो।74 नयचंद सूरि के इस उल्लेख पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है। इतिहासकार दशरथ शर्मा का मानना है कि “उनका सब वर्णन इतना ब्यौरेवार है कि उन्हें असत्य मानना संभवतः केवल धृष्टता मात्र या हिंदू इतिहासकारों के प्रति व्यर्थ अश्रद्धा का सूचक होगा।”75 भांडा व्यास की 1481 ई. की रचना हम्मीरायण में भी उल्लेख है कि “ख़लज़ी ने हम्मीर को दूत भेज कर कहलवाया कि “वह राजकुमारी देवल दे, धारू-वारू (दो वेश्याओं के नाम) और अनेक गढ़ों और हाथियों को बादशाह को नज़र कर दे।”76 आश्चर्यजनक यह है कि देशज आख्यानों में अलाउद्दीन के युद्ध अभियानों में उसकी स्त्रियाँ पाने की लालसा प्रमुख है, लेकिन समकालीन इस्लामी वृत्तांतकार इस संबंध में मौन हैं। अमीर ख़ुसरो ने रणथंभोर, चित्तौड़ और देवगीर पर अलाउद्दीन ख़लजी के अभियान के पीछे अलाउद्दीन ख़लजी की स्त्री पाने की इच्छा का ज़िक्र नहीं किया, जबकि पारंपरिक सभी आख्यानों मे यही सर्वोपरि है। उसने तो चित्तौड़ में स्त्रियों के जौहर का भी उल्लेख नहीं किया। अलबत्ता अपने रणथंभोर पर चढ़ाई के दौरान राय द्वारा किले में आग लगवाकर अपनी स्त्रियों को आग में जलवाने का उल्लेख किया है।77 देवगीर अभियान में अमीर ख़ुसरो ने छिताई का उल्लेख तो कहीं नहीं किया, लेकिन आक्रमण के बाद राय तथा उसके परिवार की रक्षा के विशेष प्रबंध करने संबंधी सुल्तान के आदेश का ज़रूर हवाला दिया है।78
6.
गोरा और बादल, रत्नसेन के ये दो योद्धा सामंत पदमिनी-रत्नसेन प्रकरण पर निर्भर इन अधिकांश रचनाओं में हैं। ख़ास बात यह है कि उलाउद्दीन के साथ युद्ध और उसके कब्ज़े से रत्नसेन को मुक्त करवाने में इनकी निर्णायक भूमिका है और अपने स्वामिधर्म के निर्वाह के कारण इन अधिकांश काव्यों में ये नायक की हैसियत में भी हैं। इन अधिकांश कथा-काव्यों में यह उल्लेख कि ये दोनों रत्नसेन के ग्रास (जागीर) से वंचित सामंत थे और इनकी किसी कारणवश रत्नसेन से अनबन थी। गोरा-बादल कवित्त के अनुसार दोनों काका-भतीजा थे और बादल के पिता का नाम गाज्जन था।79 हेमरतन के यहाँ यह उल्लेख इसी प्रकार से है। वह गोरा के संबंध में लिखता है कि- तिणि पुरि गोरउ रावत रहइ, खित्रवट रीति खरी निरवबइ।80 फिर आगे वह बादल के संबंध में कहता है कि- तासु भत्रीजउ बादिल बाल वेरी कंद तणउ कुद्दाल।81 लब्धोदय का उल्लेख भी इसी प्रकार का है। वह लिखता है कि- गोरो रावत तिन गढै, वादल तस भत्रीज।82 खुम्माणरासो में भी इन दोनों का परिचय इसी प्रकार दिया गया है।83 पाटनामा में यह परिचय कुछ अलग है। पाटनामाकार के अनुसार ये दोनों योद्धा सिंघल द्वीप के राजा और पद्मिनी के पिता समरसिंह पंवार के सामंत थे और पद्मिनी के राखीबंध भाई थे। विवाह के बाद ये दोनों पद्मिनी के आग्रह पर उसके साथ चित्तौड़ आए।84
पद्मिनी की तरह समकालीन इस्लामी वृत्तांतकार गोरा और बादल का भी उल्लेख नहीं करते, लेकिन परवर्ती कुछ मुस्लिम वृत्तांतों और आधुनिक इतिहासकारों के यहाँ इन दोनों योद्धाओं का रत्नसेन को मुक्त करवानेवाले योद्धाओं के रूप में उल्लेख आता है। अबुल फ़ज़ल (1551-1602 ई.) के अनुसार “अंत में, गोरा और बादल चौहानों ने मृत्यु पर्यन्त युद्ध किया, जिससे सर्वत्र जय-जयकार के बीच रावल सकुशल चित्तौड़ पहुँच गया।”85 बाद में जेम्स टॉड (1829 ई) ने भी लिखा कि “गोरा और बादल के नेतृत्व में राजपूत वीरों ने अपने राजा और रानी के सम्मान की रक्षा के लिए अद्भुत वीरता के साथ शत्रुओं का सामना किया।”86 टॉड भी देशज कथा-काव्यों की तरह मानता है कि युद्ध में गोरा खेत रहा और बादल जीवित लौटकर आया। वीरविनोद (1886 ई.) में श्यामलदास ने इस गोरा-बादल को चौहानवंशी बताकर उनकी वीरता का अपेक्षाकृत विस्तृत विवरण दिया। उनके अनुसार “क़िलेवालों ने बहुतेरी कोशिश की, कि रावल को छुड़ा लेवें, लेकिन बादशाह ने उनको यही जवाब दिया, कि बगैर पद्मावती देने के रत्नसिंह का छुटकारा न होगा, तब तमाम राजपूतों ने एकत्र होकर अपनी अपनी बुद्धि के मुवाफ़िक सलाह ज़ाहिर की, लेकिन पद्मावती के भाई गोरा व बादल ने कहा, कि बादशाह ने हमारे साथ दग़ाबाज़ी की है, इसलिये हमको भी चाहिये, कि उसी तरह अपने मालिक को निकाल लावें; और इस बात को सबों ने कुबूल किया। तब इन दोनों बहादुरों ने बादशाह से कहलाया, कि पद्मिनी इस शर्त पर आपके पास आती है कि पहिले वह रत्नसिंह से आख़री मुलाक़ात कर लेवे। बादशाह ने क़स्म खाकर इस बात को कुबूल किया। इस पर गोरा व बादल ने एक महाजान और 800 डोलियों में शस्त्र रखकर हर एक डोली के उठाने के लिये सोलह-सोलह बहादुर राजपूतों को कहारों के भेस में मुकर्रर कर दिया, और थोड़ी सी जमइयत लेकर आप भी उन डोलियों के साथ हो लिये। बादशाह की इज़ाजत से ये सब लोग पहिले रावल रत्नसिंह के पास पहुँचे; जनानह बन्दोबस्त देखकर शाही मुलाज़िम हट गये। किसी को दग़ाबाज़ी का ख़्याल न हुआ, और इस हलचल में राजपूत लोगों ने रत्नसिंह को घोड़े पर सवार करके बादशाही लश्कर से बाहिर निकाला। जब वह बहादुर लश्कर से निकल गया, तो वे बनावटी कहार याने बहादुर राजपूत डोलियों से अपने-अपने शस्त्र निकालकर लड़ाई के लिये तय्यार हो गये। बादशाह ने भी अपनी दग़ाबाज़ी से राजपूतों की दग़ाबाज़ी को बढ़ी हुई देखकर अफ़सोस के साथ फ़ौज को लड़ाई का हुक्म दिया। गोरा व बादल, दोनों भाई अपने साथी बहादुर राजपूतों समेत मरते-मारते किले में पहुँच गये। कई एक लोग कहते हैं, कि गोरा रास्ते में मारा गया, और बादल क़िले में पहुँचा; और बाजों का कौल है, कि दोनों इस लड़ाई में मारे गये, परन्तु तात्पर्य यह कि इन ख़ैरख़्वाह राजपूतों ने अपने मालिक को बादशाह की क़ैद से छुड़ाकर किले में पहुँचा दिया, और फिर लड़ाई शुरू हो गई।”87 गोरा और बादल की स्मृति लोक में सदियों से है। चित्तौड़ दुर्ग में पद्मिनी महल से दक्षिण-पूर्व में दो गुम्बदाकार इमारतें हैं, जिन्हें लोग सदियों से गोरा और बादल के महल के रूप में जानते हैं। इसी तरह गोरा-बादल के मृत्यु स्थल पर ग़ंभीरी और बेड़च नदी के पास मालीखेड़ा गाँव में उनकी स्मृति में दो प्रस्तर स्तंभ लगे हुए हैं।88 अपवाद हो सकते हैं, लेकिन यह तय है कि स्मारक अनैतिहासिक व्यक्तियों के नहीं बनते।
7.
पद्मिनी-रत्नसेन संबंधी देशज ऐतिहासिक कथा-काव्यों में राघवचेतन प्रमुख चरित्र है, लेकिन उसके ऐतिहासिक अस्तित्व को लेकर भी आधुनिक इतिहासकार पूरी तरह आश्वस्त नहीं हैं। छिताई वार्ता के परिचय में रुद्र काशिकेय ने लिखा कि “जायसी से पूर्व राघवचेतन नाम का प्रयोग शायद किसी काव्य में नहीं किया गया था। कहने का तात्पर्य यह है कि राघवचेतन विषयक कल्पना भी जायसी की प्रतीत होती है, जो उनके पद्मिनी प्रवाद के साथ ही फैली है।”89 प्रकरण संबंधी देशज ऐतिहासिक कथा-काव्यों में से तीन में राघव और चेतन दो अलग-अलग व्यक्ति, चार में एक एक व्यक्ति, जबकि राणारासो में इस तरह का कोई चरित्र नहीं है। हेमरतन के यहाँ उल्लेख है कि- वास्या गाम ग्रास दइ घणा राघव चेतन बेही जणा।90 लब्धोदय ने यही उल्लेख किया है- राघव चेतन दोइ वसे चित्रकूट में व्यास।91 इसी तरह पाटनामा में राघव और चेतन रत्नसेन के पारंपरिक बहीबंचा (वंशावली वाचक-लेखक), दो भाई हैं और पाटनामाकार ने उन दोनों का अलग परिचय भी दिया है। वह इनके संबंध में लिखता है कि- पछै श्री जी हुजूर का घर का बही बंचा राघाचेतन दोई भाई उमेदवार हुवा थाका जुआ की उमर बरस तेवीस की दूजा भाई की उमर बरस बीस की वाने आन आसका दीदी। अर्थात् इसके बाद श्री हुजूर (रत्नसेन) के घर के बहीबंचा उम्मीद लेकर आए। दोनों भाइयों, जिनमें से एक उम्र तेईस वर्ष और दूसरे की बीस वर्ष थी, ने आकर आशीर्वाद दिया।92 शेष सभी रचनाओं-गोरा-बादल कवित्त93, खुम्माणरासो94, पदमिनीसमिओ95 और गोरा-बादल कथा96 में ‘राघवचेतन’ एक ही व्यक्ति है। इनमें कहीं उसका नाम ‘राघवचेतन’, तो कहीं ‘राघव व्यास’ लिखा गया है।
रत्नसिंह और पद्मिनी की तरह राघवचेतन का ऐतिहासिक अस्तित्व भी एकाधिक साहित्यिक स्रोतों और कांगड़ा की ज्वालामुखी प्रशस्ति संबंधी शिलालेख से पुष्ट है। यह सभी स्रोत यह पुष्टि करते हैं कि जायसी की पद्मावत की रचना से बहुत पहले राघवचेतन ‘विद्वान् किंतु कुटिल ब्राह्मण’97 के रूप में पर्याप्त ख्याति अर्जित कर चुका था। जैन सिद्धान्त भास्कर में भी राघव और चेतन, दो ब्राह्मणों के रूप में वर्णित हैं।98 राघवचेतन प्राचीन साहित्य के विद्वान् अगरचंद नाहटा के अनुसार एक ही व्यक्ति है और वह जायसी की कल्पना नहीं है।99 राघवचेतन का उल्लेख जायसी के पूववर्ती कई देशज स्रोतों में मिलता है। वृद्धाचार्य प्रबंधावली में संकलित जिनसूरि प्रबंध में राघवचेतन का उल्लेख आता है। इसके अनुसार मुहम्मद तुग़लक़ पर जिनप्रभ सूरि का गहरा प्रभाव था और यह बात राघवचेतन को अच्छी नहीं लगती थी, इसलिए उसने षड्यंत्र कर सुल्तान की मुद्रिका जिनप्रभ सूरि के रजोहरण में रख दी। बाद में इसकी पोल खुली। यह विवरण प्रबंध में इस प्रकार दिया गया है- “एक दिन जब ख़लजी सुलतान का दरबार लगा हुआ था, उसी अवसर पर वाराणसी से चौदह विद्याओं में निपुण मंत्र जप जानने वाला राघवचेतन आ पहुँचा। वह आकर सुल्तान को मिला व सुल्तान ने उसका बहुमान किया। वह सुल्तान के पास हमेशा आता। एक अवसर पर सभा लगी हुई थी; जिनप्रभसूरि, राघवचेतन आदि कथा-कुतूहल कर रहे थे, तब राघवचेतन ने विचार किया कि यह जिनप्रभ सूरि दुष्ट स्वभाववाला है; इसे दोषी घोषित कर इस स्थान से हटा देता हूँ। इस प्रकार विचार कर राजा के हाथ से अँगूठी का विद्याबल से अपहरण कर जिनप्रभ सूरि के रजोहरण के बीच डाल दिया, जिसे जिनप्रभ सूरि नहीं जान सके। तब पदमावती (देवी) ने सूरि को निवेदन किया कि यह राघवचेतन तुम्हारे ऊपर चोरी का इल्ज़ाम लगाने की इच्छा रखता है; इसने राजा के पास से मुद्रारत्न ग्रहण कर तुम्हारे रजोहरण के बीच में रख दिया है, तुम सावधान हो जाओ। तब सूरि ने उस मुद्रारत्न को ग्रहण कर राघवचेतन के शीर्ष वस्त्र के नीचे छिपा दिया, जिसे वह नहीं जान सका। उसी समय मोहम्मद सुल्तान देखते हैं कि मुद्रारत्न नहीं है; वे आगे-पीछे देखते हैं, लेकिन मुद्रारत्न नहीं पाते, तब पूछते हैं, यहाँ मेरा मुद्रारत्न था, किसने लिया। तब राघवचेतन ने कहा कि वह सूरि के पास है। सुल्तान सूरि से माँगने लगे, तब सूरि ने कहा कि हे सुल्तान! यह इसी राघव के सिर के ऊपर है। सुल्तान ने उस मुद्रारत्न को देखा और ग्रहण किया; फिर राघवचेतन को कहा, तुम निश्चित रूप से सत्यवादी नहीं हो। स्वयं ग्रहण करके जिनप्रभसूरि पर दोषारोपण कर रहे हो। वह काला मुँह लेकर अपने घर गया।”100 जिन प्रभसूरि अने सुल्तान मुहम्मद नामक अपनी रचना में लालचंद भगवानदास गांधी ने इस वृद्धाचार्य प्रबंधावली की रचना 15वीं सदी में होने का अनुमान किया है, जबकि प्राचीन साहित्य के विद्वान् अगरचंद नाहटा ने इसकी हस्तलिखित प्रति का अवलोकन किया था और उनके अनुसार इसकी रचना वि.सं.1626 (1569 ई.) में हुई।101 जिनप्रभसूरि और मुहम्मद तुग़लक़ की भेंट एक ऐतिहासिक तथ्य है। दोनों की यह भेंट वि.सं.1385 (1328 ई.) की पौष सुदी 8 शनिवार को हुई।102 कांगड़ा की ज्वालामुखी प्रशस्ति (1433-1446 ई.) में वहाँ के शासक संसारचंद्र की प्रशस्ति के बाद ‘साहि मुहम्मद’ (मुहम्मद तुग़लक़) की प्रशस्ति के प्रसंग में राघवचेतन का भी उल्लेख आता है। प्रशस्ति में लिखा गया है कि-श्रीमद्राघवचैतन्यमुनिना ब्रहमवादिना। (स्तव)रत्नावली सेयं ज्वालामुखीसमर्पिता॥… श्रीमत्साहिमहम्मदस्य जयतात् कीर्तिः परा योगिनी। अर्थात् ब्रह्मवादी श्रीमान् राघचैतन्य मुनि के द्वारा स्तुतियों की यह रत्नावली (माला) ज्वालामुखी देवी को अर्पित की गयी।... श्रीमान् शाहमुहम्मद की परम कीर्ति विजयी हो रही है।103 स्पष्ट है कि यह राघवचैतन्य और जिनप्रभ सूरि प्रकरण में उल्लिखित राघवचेतन एक हैं। शार्गंधर राघवचेतन का पौत्र था और उसने संस्कृत छंदों के अपने संकलन शार्गंधरपद्धति (13वीं सदी का अंतिम चरण) में राघवचेतन के भी कई छंद संकलित किए हैं। उसने अपने कवि वंश वर्णन में अपने राघवचेतन का पौत्र होने का भी उल्लेख किया है। वह लिखता है कि-तस्याभवत्सभजनेषु मुख्यः परोपकारव्यसनै कनिष्ठः। पुरंदरस्येव गुरुर्गरीयांद्विजाग्रणी राघवदेव नामाः॥104 उसने इसी वंश वर्णन में अपने आश्रयदाता हम्मीर की भी सराहना की है। वह लिखता है कि-पुराशाकंभरी देशे श्रीमान् हम्मीर भूपतिः। चाहुवाण न्वये जातः ख्यातः शौर्य इवार्जुनः॥ शार्गंधर ने हम्मीररासो की भी रचना की थी, जो अब अनुपलब्ध है, लेकिन उसके कुछ छंद प्राकृतपैंगलम में संकलित हैं।105 अगरचंद नाहटा के अनुमान के अनुसार निर्णय सागर प्रेस से 1929 ई. में प्रकाशित काव्यमाला के प्रथम गुच्छक (प्रथम भाग) में ‘राघवचैतन्यविरचितं महागणपतिस्तोत्रम्’ भी इसी राघवचेतन की रचना है।106 स्पष्ट है कि यह धारणा निराधार है कि राघवचेतन जायसी का कल्पित चरित्र है। विवेच्य देशज कथा-काव्यों में वह प्रमुख चरित्र है और जायसी से बहुत पहले उसका नामोल्लेख शिलालेख सहित एकाधिक साहित्यिक रचनाओं में मिलता है।
8.
युद्ध के परिणाम और जौहर को लेकर पद्मिनी-रत्नसेन विषयक देशज कथा-काव्यों की धारणाएँ प्रचारित से अलग हैं। प्रकरण के अंत में जौहर और अलाउद्दीन ख़लजी की विजय, ये दोनों कुछ हद तक आधुनिक इतिहास में हैं, लेकिन देशज ऐतिहासिक कथा-काव्यों में यह उल्लेख नहीं मिलते। यही नहीं, मेवाड़ के पारंपरिक संस्कृत और देश भाषा वंशावली ग्रंथों और शिलालेखों में भी यह उल्लेख केवल एक मुँहता नैणसीरी ख्यात और रावल राणारी वात में ही है। जायसी और हेमरतन दोनों से पहले की रचना गोरा-बादल कवित्त में जौहर का उल्लेख नहीं है। कवित्त का समापन रत्नसेन की विजय और गोरा की पत्नी के सती होने से होता है। कवित्तकार लिखता है कि- उवरी बात बादल्ल की सो पदमणी कंत उवेलीउ अर्थात पद्मिनी के पति के उद्धार के बादल के प्रण का निर्वाह हुआ।107 परवर्ती सभी रचनाओं में कमोबेश यही बात आयी है। हेमरतन ने कथा का समाहार इसी तरह करते हुए लिखा है कि-पदमिणि राखी राजा लीउ, गढ़नउ भार घणउ झीलिउ। / रिणवट करीनइ राखी रेह नमो नमो बादिल गुण गेह। अर्थात् पद्मिनी को रखते हुए बादल ने राजा को मुक्त करवा लिया। उसने युद्ध करके मर्यादा की रक्षा की। गुणों के घर बादल को नमन है।108 यही बात लब्धोदय ने भी कही है। लब्धोदय ने लिखा है कि अलाउद्दीन पराजित होकर भाग गया और दो दिन बाद भूखा-प्यास भटककर अपने लशकर के पास पहुँचा। यही नहीं, लब्धोदय ने तो इस प्रकरण को और आगे बढाया है। उसके अनुसार दिल्ली लौटने पर बीबी ने अलाउद्दीन से पद्मिनी के संबंध में पूछा, तो उसने कहा कि पदमणी का मुंह काला किया, हम खैर करी है खुदाय रे अर्थात् ईश्वर की कृपा से हम बच गये, पद्मिनी का मुँह काला करो।109 खुम्माणरासो में भी रत्नसेन की विजय और अलाउदीन की पराजय का उल्लेख है। दलपति विजय लिखता है कि- पातसाह दिल्ली गए, भई दुनि सर वात। वादल भिड़ रण सोझियो, उवारी अखियात। अर्थात् बादशाह दिल्ली लौट गया, यह बात सारी दुनिया में फैल गयी। वीर योद्धा बादल ने रण क्षेत्र में संग्राम करके शत्रुओं का संहार किया और अपनी ख्याति को सुरक्षित रखा।110 राणारासो में भी प्रकरण इसी तरह है। दयालदास कहता है कि जीत्यो खुमानु खग जोर, जगु मग कित्ति विस्तार हुव। आलंदमिंत अलावदी अजस असंखि भंडारु भुव अर्थात् राणा रत्नसिंह ने अपनी तलवार के ज़ोर पर विजय प्राप्त की। उसके जगमागते यश का चारों ओर विस्तार हुआ और शत्रुतापूर्ण विचार रखनेवाले अलाउद्दीन का पृथ्वी में अपार अपयश का आगार स्थापित हो गया।111 गोरा-बादल कथा में में रत्नसेन की विजय तो है, लेकिन जौहर का उल्लेख नहीं है। जटमल नाहर कहता है कि- भागउ तौ साह अल्लावदी अपछर मंगल गाइयइ। / रणजीत राव छुड़ाइ कइ तब बादल घर आवियइ। अर्थात् सुलतान अलाउद्दीन भाग गया। अप्सराओं ने मंगलगीत गाए। राजा रत्नसेन को बंधन मुक्त करके, रण को जीतकर बादल, वापस आ गया।112 पद्मिनीसमिओ में भी कहा गया है कि- भई जीत खुम्मान भज्यो सुलतान अलावदी। अर्थात् खुम्माण रत्नसेन की जीत हुई। सुल्तान अलाउद्दीन भाग गया।113 पाटनामा में प्रकरण का समापन सर्वथा भिन्न है, जो और किसी रचना में नहीं मिलता। यहाँ विजय के पश्चात, यह सोचकर कि आजीवन ये दोनों जीत का श्रेय लेकर उपकार जताते रहेंगे, रत्नसेन ने गोरा और बादल की हत्या कर दी और पद्मिनी ने भी यह सुनकर आत्महत्या कर ली। जब यह घटना पराजित अलाउद्दीन को पता लगी, तो उसने फिर आक्रमण किया। पाटनामा के अनुसार इस युद्ध में दोनों पक्षों की पराजय हुई है। पाटनामाकार लिखता है कि पछै पातशाही फौज भागी, अर अठीनै गढ़ चित्तौड़ भागो अर्थात् इधर बादशाह की फ़ौज भागी और और साथ में चित्तौड़ का दुर्ग भी ध्वस्त हुआ।114 यहाँ विजय-पराजय के संबंध में अनिश्चय है और ख़ास बात यह है कि इसमें भी जौहर का कोई उल्लेख नहीं है।
महाराणा कुंभा और उनके बाद संस्कृत और देशभाषाओं में वंशावली अभिलेखों की रचना और शिलालेखों के निर्माण का चलन बढ़ा। मुगलों से संधि (1681 ई.) के बाद इस तरह के काम में और तेज़ी आयी, लेकिन अब इन अभिलेखों में ‘रावल’ की जगह ‘राणा’ शाखा के पूर्वजों के नामोल्लेख का आग्रह बढ़ गया। यही कारण है कि इनमें से कुछ में समरसिंह के उत्तराधिकारी के रूप में रत्नसिंह का नामोल्लेख नहीं मिलता। कुछ अभिलेखों में पदमिनी-रत्नसेन प्रकरण तो है, लेकिन इनमें रत्नसिंह का उल्लेख लक्ष्मसिंह के छोटे भाई के रूप में है। रणछोड़ भट्ट ने 1661 से 1690 ई. राजसिंह (1652-1680 ई.) और जयसिंह (1680-1698 ई.) के समय दो वंशवाली काव्य संस्कृत में लिखे। इन दोनों में मेवाड़ की पराजय का उल्लेख तो है, लेकिन इनमें जौहर का उल्लेख नहीं है। रणछोड़ भट्ट ने राजप्रशस्तिमहाकाव्य की रचना 1661 से 1681 ई. के बीच की। यह रचना उद्यपुर पास स्थित राजसमंद में 24 शिलाओं पर खुदी हुई है। राजप्रशस्तिमहाकाव्य में रत्नसिंह का राणा शाखा के राहप के वंशज लक्ष्मसिंह के छोटे भाई के रूप में उल्लेख है, जिसने सिंघल द्वीप की राजकुमारी पद्मिनी से विवाह किया। प्रशस्ति में इस घटना का बहुत संक्षिप्त विवरण है, जिसके अनुसार “लक्ष्मसिंह ‘गढ़ मंगलीक’ कहलाता था। उसका छोटा भाई रत्नसी था, जो पद्मिनी का पति था। अलाउद्दीन ने जब पद्मिनी के लिए चित्रकूट को घेर लिया तब अपने बारह भाइयों और सात पुत्रों सहित लक्ष्मसिंह उसके विरुद्ध लड़ा और मारा गया। लक्ष्मसिंह के बाद हमीर ने राज्य किया।”115 रणछोड़ भट्ट के ही 1683 से 1693 ई. के बीच लिखे गये अमरकाव्यम् में यह प्रकरण अपेक्षाकृत विस्तृत है। इसमें कहा गया है कि “सं.1334 में राठौड़ वंश की लालबाई से उत्पन्न जयसिंह का पुत्र ‘गढ़ मंडलीक’ के नाम से प्रसिद्ध लक्ष्मसिंह चित्तौड़ का स्वामी बना। उसके सात पुत्र हुए। उसने मालवा के राजा गोगादेव को तलवार के घाट उतार दिया और सिंधुल का राज्य लूट लिया। लक्ष्मसिंह का छोटा भाई रत्नसी मालव देश की सेवा में चला गया। रत्नसी ने वहाँ उज्जेन के गूँध और लंघा को मारकर उनके सिर मालव नरेश के सामने लाकर रख दिए। वहाँ के राजा ने रत्नसी को बहुत साधन और चित्तौड़ दे दिया। रत्नसी ने सिंघलद्वीप की राजकुमारी पद्मिनी से विवाह किया। लक्ष्मसी ने पद्मिनी की रक्षा की ज़िम्मेदारी ली। पद्मिनी की सुंदरता के बारे में सुनकर अलाउद्दीन ने चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया, छल से रत्नसी को बंदी बना लिया। बुद्धिमान गोरा और बादल के परामर्श और नेतृत्व में महिला वेषधारी युवकों ने रत्नसिंह को मुक्त कराया। लक्ष्मसिंह ने बारह वर्षों तक दुर्ग की रक्षा की। अलाउद्दीन एक बार पराजित होकर चला गया और पद्मिनी की आशा छोड़कर जीवित रहा। उसने दुबारा आक्रमण किया और इस युद्ध में लक्ष्मसिंह ने अन्य भाइयों को राजा बनाकर युद्ध किया। 12 भाइयों सहित लक्ष्मसिंह एवं रत्नसिंह युद्ध में मारे गए।”116 राजसिंह के ही शासन काल में सदाशिव ने राजत्नाकरमहाकाव्य नामक एक काव्य लिखा, लेकिन इसमें राहप के वंशज हरसू, यशकर्ण, नाकपाल, पूर्णमल्ल, पृथ्वीमल्ल, भवनसिंह, भीमसिंह, जयसिंह, लक्ष्मण सिंह अरिसिंह और हम्मीर का उल्लेख तो है, लेकिन इसमें कहीं भी रत्नसिंह और पद्मिनी प्रकरण का उल्लेख नहीं है।117
जौहर का उल्लेख ज्ञात स्रोतों में सबसे पहले जायसी की पद्मावत (1540 ई.) में मिलता है। जायसी ने अपने इस विशालकाय ग्रंथ के अंत में जौहर का उल्लेख बहुत सांकेतिक ढंग से किया। जायसी लिखते हैं कि- जौंहर भई इस्तिरी पुरुख भये संग्राम। / पातसाहि गढ़ चूरा चितउर भा इसलाम॥ अर्थात् स्त्रियों ने जौहर कर लिया और पुरुष युद्ध के लिए निकले। बादशाह ने दुर्ग ध्वस्त कर दिया और चित्तौड़ इस्लाम के अधीन हो गया।118 इस्लामी वृत्तांतकार अबुल फ़ज़ल (1551-1602 ई.) ने भी जौहर उल्लेख किया है। उसने लिखा कि “कुछ समय पश्चात उसने (अलाउद्दीन) वापस इसी योजना पर दिलज़मी की, परन्तु हारकर लौट आया। इन आक्रमणों से उकताकर रावल ने सोचा कि बादशाह से मुलाक़ात करने से शायद कोई संबंध सूत्र बँधे और इस प्रकार इस स्थायी कलह से वह छुटकारा पा सके। एक बाग़ी के बहकावे में आकर चित्तौड़ से 7 कोस दूर एक स्थान पर वह बादशाह से मिला, जहाँ छलपूर्वक उसका वध कर दिया गया। इस घातक घटना के पश्चात उसके वंशज अरसी को गद्दी पर बैठाया गया। सुलतान ने चित्तौड़ को पुनः घेर कर उस पर अधिकार कर लिया। राजा लड़ते-लड़ते मारा गया तथा सभी नारियाँ स्वेच्छा से अग्नि में जल मरीं।”119 इस्लामी इतिहासकार मोहम्मद क़ासिम फ़रिश्ता (1560-1620 ई.)120 और अब्दुल्लाह मुहम्मद उमर अल-मक्की अल-आसफ़ी अल-उलुग़ख़ानी हाजी उद्दबीर (1540-1605 ई.)121 ने पद्मिनी संबंधी वत्तांत का विवरण तो दिया, लेकिन उन्होंने कहीं भी ‘जौहर’ का उल्लेख नहीं किया। अबुल फ़ज़ल के अनुसार उसका यह विवरण प्राचीन आख्यानों पर आधारित है, लेकिन उसने इन आख्यानों का उल्लेख नहीं किया। नैणसी (1610-1670 ई.) की ख्यात में यह उल्लेख आता है। वह लिखता है कि- रतनसी अजैसी रो, भड़ लखमसी रो भाई। पदमणी रै मामले लखमसी नै रतनसी अलवादीन सू लड़ काम आया। एक वार पातसाह चढ़ खड़िया हुता से पछै पुररा डैरांसू इणा पाछो तेड़ायो। बारै दिन एक एक बेटो लखमणसी रो गढ़सूं उतर लड़िया। तैरमें दिन दिन जुहर कर रांणो लखमणसी, रतनसी कांम आया। भड़ लखमसी, रतनसी, करन तीनै भाई गढ़ रोहै- काम आया। अर्थात् रत्नसिंह अजयसिंह और योद्धा लक्ष्मसिंह का भाई। पद्मिनी के मामले में लक्ष्मसिंह और रत्नसिंह, दोनों काम आए। एक बार बादशाह ने चढ़ाई की, जिसको पुर के डेरे से वापस भेजा। बारह दिन तक लक्ष्मसिंह का एक-एक बेटा दुर्ग से नीचे उतर कर लड़ा। तेरहवें दिन जौहर कर राणा लक्ष्मसिंह और रत्नसिंह काम आए। योद्धा लक्ष्मसिंह, रत्नसिंह और कर्ण, तीनों भाई दुर्ग की रक्षा में काम आए।122 सत्रहवीं सदी की रचना रावल राणारी बात में भी में जौहर का उल्लेख है। लिखा गया है कि- लुगायां झमर चढी। अर्थात् स्त्रियों ने जौहर किया।123
आधुनिक इतिहास में पद्मिनी प्रकरण का उल्लेख सबसे पहले जेम्स टॉड (1829 ई.) ने अपने राजस्थान के पहले आधुनिक इतिहास एनल्स एंड एंटिक्विटीज़ ऑफ़ राजस्थान में किया। उसने जौहर सहित इस प्रकरण का विस्तृत और रूमानी वर्णन किया है। उसका वर्णन कुछ देशज कथा-काव्यों से और कुछ अबुल फ़ज़ल के विवरण से मिलता है। इसमें गोरा-बादल भी हैं, जिन्होंने युक्तिपूर्वक राणा को मुक्त करवाया। टॉड के इस वृत्तांत में रत्नसिंह नहीं है- यहाँ उसकी जगह अल्पवयस्क लक्ष्मसिंह का अभिभावक चाचा भीम सिंह है, जिसने सिंघल की पद्मिनी से विवाह किया है।124 टॉड के बाद ऑक्सफ़ोर्ड हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया में वी.ए. स्मिथ (1921 ई.) ने लगभग टॉड को दोहराते हुए इस प्रकरण का संक्षिप्त विवरण दिया। यद्यपि उसने इसको गंभीर इतिहास का दर्जा नहीं दिया।125 श्यामलदास (1886 ई.) के वीरविनोद (1886 ई.) और गौरीशंकर ओझा के उदयपुर राज्य का इतिहास (1928 ई.) में यह प्रकरण विस्तार से आया, जिससे कुछ वंशावली संबंधी भूलें ठीक हुईं। दोनों ने मान लिया कि अलाउदीन आक्रमण के समय रत्नसिंह चित्तौड़ का शासक था और पद्मिनी उसकी पत्नी थी। दोनों ने अपने ढंग से रत्नसिंह की पराजय और जौहर का उल्लेख किया है। श्यामलदास ने लिखा कि “रत्नसिंह ने सामान की कमी के सबब लकड़ियों का एक बड़ा ढेर चुनकर राणी पद्मिनी और अपने जनानख़ानह की कुल स्त्रियों तथा राजपूतों की औरतों को लकड़ियों पर बिठाकर आग लगा दी। हज़ारों औरत व बच्चों के आग में जल मरने से राजपूतों ने जोश में आकर क़िले के दर्वाज़े खोल दिये, और रावल रत्नसिंह मय हज़ार राजपूतों के बड़ी बहादुरी के साथ लड़कर मारा गया।”126 बाद में 1928 ई. में गौरीशंकर ओझा भी इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि “अलाउद्दीन ने चित्तौड़ पर चढ़ाई कर छः मास के घेरे के अनंतर उसे विजय किया; वहाँ का राजा रत्नसिंह लक्ष्मणसिंह आदि कई सामंतों के साथ मारा गया, उसकी राणी पद्मिनी ने कई स्त्रियों के साथ जौहर की अग्नि में प्राणाहुति दी; इस प्रकार चित्तौड़ पर थोड़े समय के लिए मुसलमानों का अधिकार हो गया।”127
देशज ऐतिहासिक कथा-काव्यों में युद्ध के परिणाम और जौहर के संबध में दिया गया विवरण इस्लामी और अधिकांश आधुनिक इतिहासकारों से अलग है। कुछ परवर्ती इस्लामी वृत्तांतकार और आधुनिक इतिहासकार मानते हैं कि रत्नसिंह और मेवाड़ की पराजय हुई और स्त्रियों ने जौहर किया, जबकि देशज ऐतिहासिक कथा-काव्यों पराजय और जौहर का कोई उल्लेख नहीं है। केवल पाटनामा में युद्ध के परिणाम को लेकर अनिश्चय है, अन्यथा सभी देशज कथा-काव्य मानते हैं कि रत्नसिंह की विजय हुई और जौहर नहीं हुआ। परवर्ती कुछ देशज रचनाओं में रत्नसिंह सहित इस युद्ध में मारे जाने और कुछ समय के लिए चित्तौड़ के मुसलमानों के अधीन हो जाने का विवरण तो है, लेकिन जौहर का उल्लेख इनमें भी नहीं है। जौहर का सबसे पहले उल्लेख जायसी ने किया, इसके बाद अबुल फज़ल और नैणसी ने किया और फिर जेम्स टॉड से होकर यह आधुनिक इतिहास में आया। विवेच्य देशज कथा-काव्यों के अनुसार मेवाड़ और रत्नसेन की इस युद्ध में विजय हुई, इसकी पुष्टि पुरालेखीय और अन्य साहित्यिक साक्ष्यों से नहीं होती, लेकिन इस तरह का उल्लेख बहुत स्वाभाविक है। सभी पराभूत जातियों के साहित्य में अपनी पराजयों को विजय में बदलने की प्रवृत्ति मिलती है। यही नहीं, नियतिवाद और कर्मफल में विश्वास के कारण कुछ जाति समाज लौकिक घटनाओं के लिए अलौकिक कारण भी देते हैं। कुछ जाति-समाज अपनी पराजय का अपने सांस्कृतिक रूपों में लोकोत्तर औचित्य भी खोजते हैं। कान्हड़देप्रबंध में कुछ ऐसा ही हुआ है। यहाँ अलाउद्दीन ख़लजी को शिव का अवतार मान लिया गया है, जिससे जीतना संभव ही नहीं है।128 इन रचनाओं में जौहर का अनुल्लेख आश्चर्यकारी है। जिन रचनाओं में रत्नसेन की विजय दिखाई गयी है, उनमें तो इसका कारण समझ में आता है कि जब विजय हुई है, तो स्त्रियाँ के जौहर करने का कोई कारण ही नहीं बनता। ख़ास बात यह है कि जौहर का अनुल्लेख उन रचनाओं में भी है, जिनमें रत्नसेन पराजय हुई है।
9.
मिथ, मतलब अभिप्रायों और कथा रूढ़ियों के आधार पर पद्मिनी-रत्नसेन प्रकरण पर निर्भर कथा-काव्यों को अनैतिहासिक मानना ग़लत है और इनके युक्तिकरण का भी कोई औचित्य नही है। दरअसल यह भारतीय ऐतिहासिक कथा-काव्यों की अपनी विशेषता है, ऐसा सदियों से होता आया है और यह पारंपरिक भारतीय कवि शिक्षा में भी सम्मिलित है, इसलिए इन कथा-काव्यों में विन्यस्त इतिहास को इन अभिप्रायों और रूढ़ियों के साथ ही अच्छी तरह समझा जा सकता है। अकसर भारतीय परंपरा में इतिहास कथा-कविता में विन्यस्त होकर आता है, इसलिए इतिहासकार विश्वंभरशरण पाठक ने साफ़ लिखा है कि “आधुनिक इतिहासकार यह भूलने लगते हैं कि ये इतिहास-महाकाव्य जानबूझकर कलात्मक बनाए गये हैं और इसलिए इनके आधार पर इतिहास का पुनर्निर्माण करने के लिए इन ग्रंथों से लिए गये तथ्यों को अपने संदर्भ से बाहर निकालकर विवेकहीन तरीके से उपयोग नहीं किया जा सकता।”129 पद्मिनी-रत्नसेन प्रकरण पर निर्भर कथा-काव्यों में मुख्यतः भोजन पर राजा की नाराज़गी और रानी का ताना, राजा का सिंघल द्वीप जाकर पद्मिनी से विवाह, सिद्ध योगी द्वारा इस कार्य में सहयोग, राजकुमारी या राजा द्वारा विवाह के लिए रखी गई शर्त और ऋतु और युद्ध वर्णन संबंधी कवि-कथा रूढ़ियों का प्रयोग हुआ है। भोजन के स्वादहीन होने पर या किसी अन्य कारण से राजा की नाराज़गी और इस पर उसका कोई संकल्प लेना भारतीय कथा-काव्यों में रूढ़ि की तरह प्रायः इस्तेमाल हुआ है। यह कथानक रूढ़ि कुछ इधर-उधर के साथ संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और परवर्ती देश भाषाओं की कथा-काव्य परंपरा में भी मिलती है। भोजन के स्वादहीन या अरुचिकर होने पर दंपती में कलह-क्लेश के प्रकरण ने संस्कृत कविता में जगह बना ली थी। अज्ञात कविकर्तृक सुभाषितावली के एक श्लोक में यह प्रकरण इस तरह आया है-क्षारं राद्धमिदं किमद्य दयिते राध्नोषि किं न स्वयमाः पापे प्रतिजल्पसे प्रतिदिनं पास्तवदीयः पिता। / धिक्वां क्रोधमुखीखीमलीकमुखरसरस्त्वत्तोsपि कः क्रोधनो दंपत्योरिति नित्य दत्त कलह क्लेशांतयोः किं सुखम्?॥ अर्थात् हे घरवाली! यह आज कैसा खारा भोजन राँध दिया है। (घरवाली) पका नहीं तो, ख़ुद क्यों नहीं पका लेते? अरी पापिनी, रोज-रोज मुँह पर जवाब देती हो। (घरवाली) पापी होंगे पिता तुम्हारे.. धिक्कार है तुझ क्रोधमुखी को। तुम जैसा है कोई क्रोधी और झुठेला। इसी तरह प्रतिदिन दंपती कलह के क्लेश में नष्ट होते हैं और उनको कोई सुख नहीं है।130 नरपतिनाल्ह कृत बीसलदेवरास (1343 ई.) में विग्रहराज (तृतीय) विवाह के पहले दिन ही रानी के यह कहने पर कि- गरब म करि हो संइभरवाल था सरीषा अवर घणा रे भुआल (अर्थात् हे सांभर! नरेश गर्व मत करिए, आप जैसे और कई राजा हैं) नाराज़ हो जाता है और संकल्प लेकर बारह वर्ष के लिए उळगाने (चाकरी) पर उड़ीसा चला जाता है।131 यह कथा रूढ़ि गोरा-बादल कवित्त, गोरा-बादल पदमिणी चउपई, गोरा-बादल चरित्र चौपई, खुम्माणरासो और चित्तौड़-उदयपुर पाटनामा में प्रयुक्त हुई है। अज्ञात कविकर्तृक गोरा-बादल कवित्त में इसका उल्लेख सांकेतिक है132, लेकिन परवर्ती रचनाओं में इसका पल्लवन और विस्तार हुआ है। अपनी रुचि के अनुसार इन कवि-कथाकारों ने इस रूढ़ि का पल्लवन और विस्तार किया है। इसका सर्वाधिक विस्तृत पल्लवन चित्तौड़-उदयपुर पाटनामा में है।133 राणारासो, पद्मिनीसमिओ और गोरा-बादल कथा में यह कथानक रूढ़ि नहीं है। गोरा-बादल कथा में चार चतुर वेताल सिंघल द्वीप से राजा रत्नसेन के पास माँगने आते हैं और उसे सिंघल की पद्मिनी स्त्रियों के संबंध में बताते हैं।134 पद्मिनीसमिओ में यही कथानक रूढ़ि है। राणारासो में भाटों के स्थान पर एक योगी का आगमन और उसके द्वारा पद्मिनी स्त्रियों की सुंदरता के वर्णन है। यहाँ रत्नसेन सिंघल द्वीप नहीं जाता- योगी ही अपनी आराध्यदेवी का स्मरण कर उसके लिए पदमिनी और दोनों के आवास के लिए महल उपलब्ध करवा देता है।135
सिंघल द्वीप जाकर पद्मिनी से विवाह की कथा रूढ़ि इन सभी रचनाओं में है। संकल्पबद्ध होकर पद्मिनी से विवाह के लिए सिंघल प्रस्थान, समुद्र के मध्य सिंघल द्वीप, वहाँ पद्मिनी स्त्रियाँ की मौजूदगी, पद्मिनी स्त्री से कमल की गंध आना और इस कारण उस पर भँवरे मंडराना यह इस कथा रूढ़ि के विभिन्न आयाम हैं। रचनाकारों ने अपनी सुविधा के अनुसार इनका उपयोग अपनी तरह से किया है। कहीं यह रूढ़ि सांकेतिक है, तो कहीं इसका पल्लवन और विस्तार हुआ है। पाटनामा में यह सबसे अधिक विस्तृत है और यहाँ इस कथारूढ़ि का विकास भी हुआ है।136 सिंघल द्वीप जाकर वहाँ की स्त्री से विवाह करना भारतीय चरित और प्रबंध कथा-काव्यों में प्रयुक्त लोकप्रिय कथा रूढ़ि है। हर्षदेव की संस्कृत नाटिका रत्नावली (7वीं सदी) की नायिका रत्नावली (सागरिका) भी सिंहलनरेश विक्रमबाहु की बेटी थी, जिससे कोशाम्बी के राजा उदयन ने विवाह किया।137 प्राकृत-अपभ्रंश में कोऊहल कृत लीलावई (8वीं सदी)138 धनपाल कृत भविसयत्तकहा (10वीं सदी)139, मुनि कनकामर कृत करकंडचरिउ (11वीं सदी)140 और राजसिंह जिणदत्त चरित (13वीं सदी)141 में इस रूढ़ि का प्रयोग हुआ है। जिनहर्ष सूरि की 1430 ई. चित्तौड़ में ही लिखी गयी रयणसेहरनिवकहा में भी नायक सिंघल द्वीप जाकर विवाह करता है।142
सिद्ध योगी की लक्ष्य प्राप्ति में सहयोग की कथा रूढ़ि का प्रयोग भी इन कथा-काव्यों में मिलता है। सिंघल द्वीप समुद्र के मध्य स्थित है और और यह बहुत दुर्गम है, इसलिए इन कथा-काव्यों में सिद्ध योगी राजा रत्नसेन को वहाँ पहुँचने में मदद करता है। आरंभिक रचना गोरा-बादल कवित्त में यह रूढ़ि नहीं है। यहाँ केवल राजा के रानी के ताने पर नाराज़ होकर सिंघल की राजकुमारी से विवाह का उल्लेख है (धरि मछर संघलि सांचर्यउ, नेव जीत कन्या वरी)।143 परवर्ती रचनाओं में यह रूढ़ि आ गयी है। हेमरतन के यहाँ योगी आ गया है- इस ‘उदास’ योगी की राजा से भेंट समुद्र के समीप होती है और राजा के अनुरोध पर अपनी आकाश में उड़ने की विद्या (वीद्या अंबरि ऊडण तणी) से वह उसको सेवक सहित अपनी बाँहों में भरकर सिंघल द्वीप पहुँचा देता है।144 यही कथा रूढ़ि परवर्ती सभी रचनाओं में है। खुम्माणरासो में इस योगी को ‘जालिम सिंघ जोगी’ (पराक्रमी सिद्ध योगी) कहा गया है।145 राणारासो में यह योगी गोरख्खु के गोपीचंदा (गोरख नाथ या गोपीचंद) है।146 पदमिनीसमिओ में चमत्कारी योगी राजद्वार पर आता है और विरहग्रस्त राजा को मृगछाला पर बिठाकर सिंघल द्वीप ले जाता है। पदमिनीसमिओ147 और गोरा-बादल कथा148 में योगी सिंघल द्वीप पहुँचकर राजा को भी योगी के भेष में राजद्वार पर जाकर भिक्षा माँगने (इक-सबदी भिक्ष्या करो यह मेरा उपदेश) का कहता है। राजद्वार पर जाकर पदमिनी को देखकर राजा बेहोश हो जाता है। पाटनामा में यह रूढ़ि बहुत विकसित हो गई। यहाँ आकाशमार्गी योगी गोरखनाथ के साथ सिंघल द्वीप निवासी उसके गुरु मछंदरनाथ भी है। गोरखनाथ पद्मिनी से विवाह के लिए संकल्पबद्ध राजा को अपनी उड़नखटोली में सिंघलद्वीप ले जाता है और उसके गुरु पद्मिनी से उसका विवाह संपन्न करवाते हैं। पाटनामा में गोरखनाथ रत्नसेन और पद्मिनी सहित कई लोगों के आयुबल में वृद्धि भी करते हैं।149 आकाश मार्ग से विचरण करने वाले सिद्ध योगियों की कथा रूढ़ि भारतीय ऐतिहासिक और चरित्र प्रधान कथा-काव्यों में आमतौर पर पर प्रयुक्त होती रही है। ये सिद्ध योगी अकसर नायक-नायिका को उसकी लक्ष्य प्राप्ति में मदद करते हैं। तंत्र साधना से आकाश में सिद्धों-योगियों के विचरण की कथा रूढ़ि सोमदेव कृत कथासरित्सागर में संकलित ‘कालरात्रि’ सहित अन्य एकाधिक कहानियों में प्रयुक्त हुई है।150 राजस्थानी लोक कथाओं में भी इस तरह के सिद्ध साधु आम हैं। कहानी गूटियौ राजा में संतान के अभाव में वैराग्य लेकर भटकने वाले राजा को सिद्ध साधु पुत्र प्राप्ति का वरदान देता है।151
विवाह के लिए राजकुमारी या उसके राजा पिता द्वारा लिया गए प्रण की कथा रूढ़ि भी इनमें से कुछ रचनाओं में प्रयुक्त हुई है। आरंभिक रचना गोरा-बादल कवित्त में यह रूढ़ि नहीं है, लेकिन परवर्ती रचनाओं में इसका समावेश हो गया है। हेमरतन के यहाँ पद्मिनी ने प्रण ले रखा है कि जो युद्ध या शतरंज के खेल में मेरे भाई से जीतेगा मैं उसी का वरण करूँगी (तेइ नइ कंठ ठंवू वरमाल)।152 लब्धोदय के यहाँ भी यह रूढ़ि इसी तरह से है।153 खुम्माणरासो में यह अलग तरह से है। यहाँ कहा गया है कि- अभिग्रह लीधो एहबो नार। जीपे मुझ थी पासा पार अर्थात् उस स्त्री (पद्मिनी) ने यह प्रण ले रखा था कि (वही मेरा पति होगा) जो चौपड़ खेल में मुझ पर विजय प्राप्त करेगा।154 राणारासो और पाटनामा में यह रूढ़ि नहीं है। यह रूढ़ि दरअसल प्राचीनकाल में प्रचलित स्वयंवर का सरलीकरण है। दरअसल मध्यकाल तक आते- आते स्वयंवर जैसी प्रथाएँ बंद हो गई थीं, लेकिन कवि-कथाकारों की स्मृति में अभी भी ये थीं और रूढ़ि की तरह इनका प्रयोग जारी था।155 सोमदेवकृत कथासरित्सागर की कथा ‘दो धूर्तों की कथा’ में भी यह रूढ़ि आयी है। यहाँ राजकुमारी कनकनगरी देख लेने वाले युवक से विवाह की शर्त रखती है।156 बिल्हण की 1125 ई. रचना विक्रमांकदेवचरित में स्वयंवर का वर्णन मिलता है।157
राघवचेतन ऐतिहासिक चरित्र है, लेकिन राजा से उसकी नाराज़गी के रचनात्मक विस्तार के लिए इन रचनाकारों ने अलग-अलग कथा रूढ़ियों का सहारा लिया है। राघवचेतन का रत्नसेन और पद्मिनी को विलासरत देखना और रत्नसेन का उसे देश निकाला देना की घटना के भी एकाधिक रूपांतरण है। जटमल नाहर कृत गोरा-बादल कथा158 और पद्मिनी समिओ159 में यह रत्नसेन और राघवचेतन साथ शिकार पर जाने और राजा के पद्मिनी को देखे बिना पानी नहीं पीने के संकल्प पर राघव चेतन द्वारा उसकी प्रतिमा बनाने की कथारूढ़ि के रूप में है।
वस्तु वर्णन में युद्ध वर्णन की कवि-कथा रूढ़ियों का प्रयोग इन सभी रचनाओं में है, जबकि ऋतु वर्णन की कवि-कथा रूढ़ि केवल राणारासो में प्रयुक्त हुई। युद्ध वर्णन में खून के परनाले बहना, गिद्धों का मांस नोचना, बिना सिर के धड़ों का लड़ना, रणचंडी द्वारा रक्तपान, योगिनियों का नृत्य, क्षेत्रपालों का शिव को रुंडमाल भेंट करना, देवताओं का आकाश युद्ध देखना आदि कई पारंपरिक कथा रूढ़ियों का प्रयोग इनमें हुआ है।160 ऋतु वर्णन केवल राणारासो में है और यह पारंपरिक है। ऋतुवर्णन की परंपरा कालिदास के ऋतुसंहार161 से होती हुई मध्यकाल तक आती है। मध्यकालीन रचनाकार रचनाओं में परंपरा के निर्वाह के लिए और कवि शिक्षा के कारण बारहमासा या षडऋतु वर्णन का अवसर खोजते थे। यह संदेशरासक और पृथ्वीराजरासो में भी मिलता है। संदेशरासक में नायिका जाने को उत्सुक पथिक को बार-बार रोकती है और उसके यह पूछने पर पर कि क्या तुम्हे कुछ और कहना है, तो नायिका अलग-अलग ऋतुओं में अपने विरह का वर्णन शुरू कर देती है।162 पृथ्वीराजरासो में भी जब पृथ्वीराज जयचंद के यज्ञ के विध्वंस के लिए प्रस्थान से पहले रानियों से विदा लेने जाता हैं, तो हर रानी उस समय की ऋतु का हवाला देकर उसे रोक लेती है। रानी इंछिनी उसे वसंत ऋतु का वर्णन करके रोकती है, रोकने का यह सिलसिला आगे बढता रहता है और इस तरह कवि सभी ऋतुओं का वर्णन कर देता है।163 पृथ्वीराजरासो दयालदास का आदर्श है, इसलिए उसके षड्ऋतु वर्णन पर इसका प्रभाव है। राणारासो में जब योगी से यह ज्ञात होता है कि सिंघल में पद्मिनी स्त्रियाँ है, तो उसे प्रेम हो जाता है (यह सुनि रान खुमांन, कान श्रोतान राग हुव)। योगी चला जाता है, लेकिन प्रेमी रत्नसेन ऋतुओं के अनुसार विरहग्रस्त रहता है। यह ऋतु वर्णन छंद सं. 83 से आरंभ होकर 96 तक चलता है। अंतिम छंद में कवि कहता है कि- रितु षट खटपट गई, घटपट विरह समंद। लटपट लीयें आसिखा, फिरि आयो जोगिंदु॥ अर्थात् छह ही ऋतुएँ इस उधेड़बुन में बीत गई। रत्नसेन के शरीर रूपी पट (हृदय) में विरह रूपी समुद्र लहरा रहा था। योगीराज अपनी इश्क (प्रेम) की लुभानेवाली बातें लेकर फिर आ गया।164 दुर्ग, नगर आदि का पारंपरिक वर्णन भी रचनाओं में यथास्थान है।165
कथानक अभिप्रायों और रूढ़ियों का प्रयोग भारतीय कथा-काव्यों में बहुत प्राचीनकाल से होता है। ऋग्वेद, उपनिषद्, पुराण, जातक, आगम, बृहत्कथा, कथासरित्सागर, पंचतंत्र, हितोपदेश के अभिप्राय बहुत बाद तक प्रयुक्त होते रहे हैं। लोक कथाओं में भी इनका प्रयोग जारी रहा।166 ख़ास बात यह है कि एक ही कथा रूढ़ि अकसर निरंतर और कई बार अलग-अलग भारतीय रचनाओं में प्रयुक्त हुई है।167 अभिप्राय और कथा रूढ़ियाँ यथार्थ के रचनात्मक विस्तार की तरह है, इसलिए इनको अभिधेय अर्थ में नहीं लिया जाना चाहिए और इनके युक्तिकरण का भी कोई औचित्य नहीं है। कुछ विद्वानों ने सिंघल दवीप की स्थिति और वहाँ पहुँचने के मार्ग के इन रचनाओं में उल्लेख का युक्तिकरण किया है, जो किसी युक्तिसंगत निष्कर्ष पर नहीं ले जाता।168 यथार्थ के रचनात्मक विस्तार के लिए कवि-कथाकार संभावना का सहारा लेते हैं- कई बार यह संभावना नयी कथा रूढ़ि का प्रस्थान बनती है और कई बार यह प्रचलित रूढ़ि का नवीनीकरण होता है। हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इस संबंध में लिखा है कि “संभावनाओं पर बल देने का परिणाम यह हुआ कि हमारे देश के साहित्य में कथा को गति और घुमाव देने के लिए कुछ ऐसे अभिप्राय दीर्घकाल से व्यवहृत होते आए हैं, जो बहुत थोड़ी दूर तक यथार्थ होते हैं और आगे चलकर कथानक रूढ़ि में बदल गए हैं।”169 स्पष्ट है कि कथानक रूढ़ि का प्रस्थान अकसर यथार्थ से होता है। पद्मिनी-रत्नसेन प्रकरण पर निर्भर कथा-काव्यों के मोड़-पड़ावों में विन्यस्त कथानक रूढ़ियों को इसी तरह समझा जाना चाहिए। भोजन के स्वादहीन होने पर राजा की नाराज़गी और रानी के इस निमित्त पद्मिनी से विवाह कर लेने के ताने की रूढ़ि का प्रस्थान तो कमोबेश यथार्थ है। राजा और रानी के बीच नाराज़गी और राजा के दूसरे विवाह के लिए संकल्पबद्ध होने में कुछ भी असाधारण या मनगढंत नहीं है। राजा एकाधिक विवाह करते ही थे और ऐसा नाराज़गी के कारण भी होता था। रानी से नाराज़गी या किसी अन्य कारण से दूसरा विवाह राजाओं के लिए मध्यकाल और उससे पहले भी आम बात थी। लोककथाओं में इसको ‘दुहाग’ कहा गया है। राजस्थान की एक वात (कथा) ‘डाकण रा चाळा’ में राजा एक अप्सरा पर मुग्ध होकर अपनी गर्भवती छह रानियों को दुहाग दे देता है।170 रानी द्वारा राजा की अवमानना पर राजा उससे नाराज़ होकर दुहाग दे देते थे- मतलब दूसरा विवाह कर लेते थे। सिंघल में पद्मिनी स्त्रियों के होने और उनसे पद्म गंध आने की अतिरंजना कवि-कथाकार की संभावना है, लेकिन इसमें इतना सत्य तो है कि पद्मिनी अपने समय में अत्यंत सुंदर स्त्री रही होगी। शास्त्र में वर्णित स्त्रियों की कोटियों में पद्मिनी स्त्री सबसे सुंदर मानी गयी है, इसलिए यही नाम रत्नसेन की विवाहित स्त्री के लिए रूढ़ हो गया है। किसी कवि-कथाकार ने एक बार संभावना की, तो यह परवर्तियों के लिए आदर्श हो गई। उन्होंने इसको यथावत इस्तेमाल किया या अपनी तरफ़ से कुछ संभावनाएँ और इसमें जोड़ दीं। राघवचेतन प्रकरण में प्रयुक्त कथा रूढ़ियों के एकाधिक रूपांतरणों के प्रस्थान में इतना सच तो है कि रत्नसेन का राघवचेतन से किसी कारण विवाद हुआ और इस कारण राघवचेतन नाराज़ होकर अलाउद्दीन के पास गया। मध्यकाल में एक शासक से नाराज़ होकर दूसर के यहाँ आश्रय लेने के कृत्य आम थे। राजकुमारी से विवाह के लिए शर्त के प्रावधान की कथानक रूढ़ि भारतीय कथा-काव्यों में बहुत पहले से चली आ रही है। श्रीमद्भागवत में कृष्ण सत्या से विवाह के लिए उसके पिता कौशलनरेश नग्नजित् द्वारा रखी गयी सात दुर्दांत बैलों को जीतने की शर्त पूरी करते हैं। बैलों को जीतने से पूर्व सत्या कृष्ण पर उसी तरह मुग्ध है, जिस तरह से पद्मिनी रत्नसेन पर होती है।171 लोककथाओं में इस रूढ़ि का प्रयोग ख़ूब हुआ है। राजस्थान की प्रसिद्ध लोककथा ‘चौबोली’ का बीज रूप बृहत्कथा और कथासरित्सागर में मिल जाता है। कहानी में राजकुमारी निर्णय लेती है कि जो भी उसे एक रात्रि मे चार बार बुलवा लेगा, वह उससे विवाह करेगी।172 पद्मिनी-रत्नसेन संबंधी कथा-काव्यों में इनका नियोजन पारंपरिक है। यहाँ सच केवल इतना है कि मध्यकाल में इस तरह के विवाह सामान्य विवाहों से अलग होते थे। विवाह के लिए युद्ध या आक्रमण आम थे। स्वयंवर की परंपरा बहुत पहले राज परिवारों में रही होगी। यह कथानक रूढ़ि इसी परंपरा का देशज सरलीकरण लगती है। युद्ध संबंधी कई कवि-कथानक रूढ़ियों का इस्तेमाल इन कथा काव्यों में हुआ है, जो युद्ध के भीषण होने होने की ओर संकेत करती हैं। युद्ध के भीषण होने की पुष्टि इस्लामी स्रोत भी करते हैं। अमीर ख़ुसरो ने भी यह उल्लेख किया है इस युद्ध में 30 हज़ार हिंदुओं का क़त्ल हुआ। ख़ुसरो लिखता है कि “उसने (अलाउद्दीन) ने राय को कोई हानि नहीं पहुँचाई, किंतु उसके क्रोध द्वारा 30 हज़ार हिंदुओं का क़त्ल हो गया।”173 राणारासो का ऋतुवर्णन पारंपरिक है और यह भारतीय रचनाओं में रूढ़ि की तरह सदियों से निरंतर है।
10.
पद्मिनी प्रकरण को मिथ्या ठहरानेवाले अधिकांश आधुनिक विद्वानों की इस धारणा का आधार इस प्रकरण के संबंध में अलाउद्दीन के समकालीन तीन वृत्तांतकारों का मौन है। अलाउद्दीन के समकालीन चारों इस्लामी वृत्तांतों- अमीर ख़ुसरो कृत ख़जाइन-उल-फ़ुतूह (1311-12 ई.) और दिबलरानी तथा ख़िज़्र ख़ाँ (1318-19 ई.), ज़ियाउद्दीन बरनी कृत तारीख़-ए-फ़िरोजशाही (1357 ई.) तथा अब्दुल मलिक एसामी कृत फ़ुतूह-उस-सलातीन (1350 ई.) में अलाउद्दीन के चित्तौड़ पर आक्रमण और उसकी विजय का उल्लेख तो है, लेकिन इनमें पद्मिनी प्रकरण और गोरा-बादल का उल्लेख नहीं है। ये तीनों वृत्तांतकार अपने समय के बड़े कवि या इतिहासकार और ओहदेदार थे। मध्यकालीन, परवर्ती और आधुनिक इतिहासकारों ने इनकी सराहना की है, लेकिन पद्मिनी प्रकरण पर इनके मौन को समझने के लिए उस समय के कवि-इतिहासकारों के पूर्वाग्रहों और सुल्तानों की उनसे अपेक्षा पर विचार करना ज़रूरी है। विडंबना यह है कि अधिकांश आधुनिक इतिहासकार, जिनका साक्ष्य देकर पद्मिनी के ऐतिहासिक अस्तित्व को संदिग्ध मानते हैं, उन इतिहासकारों के अपने पूर्वाग्रह हैं और उनका वर्णन आग्रहपूर्वक अपने आश्रयदाता सुल्तान की अपेक्षाओं के अनुसार है, इसलिए संदिग्ध है। अमीर ख़ुसरो इतिहासकार नहीं, मूलतः कवि था। उसके मित्र समकालीन ज़ियाउद्दीन बरनी के अनुसार “अमीर ख़ुसरो की मिसाल नहीं, वह तो शायरों का सुल्तान था।” उसने आगे और लिखा कि “ख़ुदा की कसम, शायद ही इस नीले आकाश के नीचे उसकी बराबरी का कोई हुआ होगा।”174 अमीर ख़ुसरो की इतिहास से संबंधित किताब ख़जाइन-उल-फ़ुतूह को एच.एम. इलियट ने इतिहास कम, कविता अधिक कहा है।175 पी. हार्डी का निष्कर्ष भी यही है कि “अमीर ख़ुसरो ने इतिहास नहीं लिखा, उसने कविता लिखी है।”176 अल्लाउद्दीन का दरबारी तवारीख़कार तो कबीरूद्दीन ताजुद्दीन इराकी था। ख़ुसरो के रग-रग में कला थी, लेकिन दुनियावी मामलों में बहुत चतुर व्यक्ति था। ख़ुसरो का अपने संरक्षक के साथ शुद्ध व्यावहारिक रिश्ता था और वह अपने संरक्षक के राजनीतिक मंसूबों से अपने को अलग रखता था। मोहम्मद हबीब ने उसके संबंध में लिखा है कि “वह उनकी प्रशंसा के गीत गाता था, क्योंकि इसके लिए उसको बहुत पैसा मिलता था। पूरे पचास साल तक रंग-बिरंगे फूल उसके सामने से गुज़र गए, जिनकी वह प्रसंशा में अत्युक्ति करता था। लेकिन ज्यों ही बबूला फूटता, वह उसे भूल जाता था। क्षितिज पर कोई नया नक्षत्र उठता कवि उसके पास चला जाता। कोई मर्त्य पूरी तरह ख़ुश हो ही नहीं सकता। लेकिन अमीर ख़ुसरो का कैरियर ऐसा था, जिस पर किसी तितली को रश्क होता।”177 अमीर ख़ुसरो विद्वान् था, पर दरबारी भी था और दरबारी अपने वक़्त का ग़ुलाम होता है। कबीरूद्दीन और उसके पूर्ववर्तियों ने इस फ़ैशन की शुरुआत कर दी थी। ख़ुसरो ने आँख मूँदकर उसको अपना लिया।178 मोहम्मद हबीब ने उसकी चार ख़ूबियाँ गिनवाईं, जो इस प्रकार हैं– (i) अलंकारों से कृत्रिम बोझिल शैली, (ii) सिर्फ़ युद्धों और विजयों तक सीमित रहना, (iii) उन सभी तथ्यों की अनदेखी कर देना, जिससे अलाउद्दीन की छवि प्रभावित होती हो और (iv) सुल्तान की अत्यधिक चापलूसी।”179 सराहना ख़ुसरो का स्वभाव और मजबूरी, दोनों थे। उसकी व्यावहारिक बुद्धि उसको उस सच को छिपा लेने पर मजबूर कर देती थी, जिससे सुल्तान नाराज़ हो जाएँ। उसके दो संरक्षकों- मलिक छज्जू और हातिम ख़ान का बग़ावत के कारण अलाउद्दीन ने सर क़लम कर दिया, लेकिन ख़ुसरो ने सुल्तान को इसके लिए बधाई दी। अपने चाचा जलालुद्दीन की अलाउद्दीन ने हत्या कर दी, लेकिन उसकी ज़बान से अपने इस संरक्षक और चाहने वाले की हत्या के विरोध में एक भी शब्द नहीं निकला। मोहम्मद हबीब ने लिखा है कि कि “यदि अमीर ख़ुसरो पुराणों के युग में लिखते होते, तो वे अल्लाउद्दीन को विष्णु का अवतार बताते और उनके विरोधियों को राक्षस।”180 मोहम्मद हबीब के अनुसार इसीलिए ख़जाइन-उल-फ़ुतूह के “विवरण को सही मानना ख़तरनाक होगा।”181 अलाउद्दीन का दूसरा समकालीन इतिहासकार ज़ियाउद्दीन बरनी इतिहास को ‘साइंस’ मानता था। उसका मानना था कि इतिहसकर सुल्तानों की ‘अच्छी बातों’ का उल्लेख करे, लेकिन उसे उसकी ‘बुराई-शठता’ की भी अनदेखी नहीं करनी चाहिए।182 विडंबना यह है कि तारीख़-ए-फ़िरोजशाही उसने उस दौर में लिखी, जब उसका सर्वस्व छिन गया था, उसकी याददाश्त कमज़ोर हो गयी थी और अन्वेषण और अनुसंधान उसके बूते से बाहर की बात थी। इस्लाम के इतिहास और भारतीय इतिहास की जो मशहूर पुस्तकें थीं, वे भी उसे सुलभ नहीं थीं। किसी तारीख़ या घटना की पुष्टि करने के लिए भी साधन उसे प्राप्त न थे। मोहम्म्द हबीब के अनुसार “हम शक को दिमाग़ में रखकर तारीख़-ए-फ़िरोजशाही का अध्ययन करते हैं, तो शक की पुष्टि हो जाती है। बहुत से वाक़यात उसकी याददाश्त से बाहर छूट गए हैं। कुछ को ग़लत ढंग से पेश किया गया है और कुछ मामले तो ऐसे हैं, जिनमें अपनी बद्धमूल धारणाओं की वजह से बरनी की याददाश्त ने कहर बरफ़ा दिया है।”183 अब्दुल मलिक एसामी (1311 ई.) मुहम्मद बिन तुग़लक़ का समकालीन था, लेकिन उसका ग्रंथ फ़ुतूह-उस-सलातीन, जिसमें से 999 से 1350 ई. तक का वर्णन है, मुहम्मद बिन तुग़लक़ की बजाय बहमनी वंश (1347 ई.) का संस्थापक अलाउद्दीन बहमनशाह को समर्पित है। एसामी 1327 ई. मुहम्मद बिन तुग़लक के समय दौलताबाद आया और फिर वह कभी दिल्ली नहीं गया। उसने फ़ुतूह-उस-सलातीन दौलताबाद में ही लिखी, इसलिए दक्षिण का उसका विवरण अधिक आनुभविक और प्रामाणिक है। वह उत्तर के संबंध में बहुत विस्तार में नहीं जाता।184 वैसे एसामी की महत्वाकांक्षा भी इतिहासकार के बजाय साहित्यकार बनने की थी।185 वह भी ख़ुसरो और बरनी से अलग नहीं था। सुल्तानों की महिमा के विरुद्ध जानेवाली सभी बातों की सजग अनदेखी इस्लामी वृत्तांतकारों का स्वभाव है, इसलिए पद्मिनी प्रकरण के संबंध में इन वृत्तांतकारों का मौन बहुत स्वाभाविक है। यह प्रकरण लोक स्मृति सहित देशज स्रोतों में इतना निरंतर और विस्तृत है कि इस पर अविश्वास का कोई कारण नहीं है। पारिस्थितिक साक्ष्य और स्त्रियों के लिए किए गए अलाउद्दीन के दूसरे युद्ध अभियान भी इस प्रकरण के सच होने का संकेत करते हैं।
स्पष्ट है कि पदमिनी-रत्नसेन प्रकरण पर निर्भर ऐतिहासिक कथा-काव्य सर्वथा मिथ्या या मनगढ़ंत नहीं है। उनमें इतिहास का नियोजन भारतीय ऐतिहासिक कथा-काव्य परंपरा के अनुसार है, इसलिए इनमें इतिहास के साथ रचनात्मक विस्तार के लिए प्रयुक्त मिथ-अभिप्रायों और कथा-रूढ़ियों को समझना ज़रूरी है। ये अभिप्राय और कथा रूढ़ियाँ भी केवल कल्पना नहीं हैं- इनके प्रस्थान में यथार्थ की मौजूदगी है। कथा-काव्यों में वर्णित प्रकरण की पुष्टि दूसरे पुरालेखीय, साहित्यिक अभिलेखों से भी होती है। विवेच्य कथा-काव्यों के अनुसार अलाउद्दीन ने चित्तौड़ पर आक्रमण केवल राजीनितिक प्रयोजन के लिए नहीं किया- पद्मिनी पाने की लालसा की इसमें निर्णायक भूमिका थी। इस तथ्य का समर्थन दूसरे साहित्यिक और पारिस्थितिक साक्ष्य भी करते हैं। विवेच्य रचनाओं में अलाउद्दीन को स्त्री लोलुप और कामांध वर्णित किया गया है। यह बात सही है, क्योंकि इस्लामी स्रोतों सहित सभी देशज स्रोत और स्त्रियाँ पाने के लिए किए गए उसके युद्ध अभियान भी इसी ओर संकेत करते हैं। विवेच्य रचनाओं में वह अपार शक्तिशाली और क्रूर भी दिखाया है, जो वह था। इस्लामी स्रोतों में भी वह इसी तरह का है। समरसिंह का उत्तराधिकारी रत्नसेन अलाउदद्दीन के 1303 ई. के आक्रमण के समय शासक था और वह इन कथा-काव्यों का निर्विवाद नायक है। यह अलग बात है कि कुछ आधुनिक इतिहासकारों को आरंभ में उसके ऐतिहासिक अस्तित्व लेकर संदेह था। यह संदेह इसलिए हुआ कि मेवाड में राणा शाखा के शासन के दौर में बने कुछ शिलालखों सहित साहित्यिक साक्ष्यों में रावल शाखा से संबंधित होने के कारण रत्नसिंह का नाम नहीं है। बाद में दरीबा और कुंभलगढ़ के शिलालेखों में 1303 ई. में उसका मेवाड़ में सत्तारूढ़ होना प्रमाणित हो गया। पद्मिनी इन रचनाओं के केंद्र में है, लेकिन कतिपय इतिहासकारों ने उसको जायसी की कल्पना मान लिया, जो ग़लत है। पदमिनी सभी देशज अभिलेखों और साहित्यिक रचनाओं में है और सदियों से वह लोक स्मृति का हिस्सा रही है। वह पद्मिनी कोटि की स्त्री है, जिसका विवाह रत्नसेन से हुआ है। पाटनामा में उसका नाम मदन कुँवर है। विवेच्य अधिकांश रचनाओं में रत्नसेन को युक्तिपूर्वक अलाउद्दीन की क़ैद से मुक्त करवाने वाले योद्धा गोरा-बादल हैं और इन रचनाओं में से कुछ का नामकरण ही उनके नाम के आधार पर हुआ है। अलाउद्दीन के समकालीन वृत्तांतकारों ने उनका उल्लेख नहीं किया, लेकिन सभी दूसरे साहित्यिक और परवर्ती इस्लामी साक्ष्यों में उनका उल्लेख मिलता है। उनसे संबंधित सदियों पुराने स्मारक भी हैं, जो उनके ऐतिहासिक होने की पुष्टि करते हैं। राघवचेतन इन रचनाओं में से कुछ में एक, तो कुछ में दो व्यक्ति हैं। आधुनिक इतिहासकारों को राघवचेतन के ऐतिहासिक अस्तित्व पर भी संदेह है। राघवचेतन का उल्लेख भी अलाउद्दीन के समकालीन वृत्तांतकारों ने नहीं किया, लेकिन उससे संबंधित पर्याप्त पुरालेखीय और साहित्यिक साक्ष्य उपलब्ध हैं। राघवचेतन से संबंधित जैन साहित्यिक साक्ष्य और कांग़ड़ा की ज्वालामुखी प्रशस्ति तो अलाउद्दीन की समकालीन हैं।
पाटनामा को छोड़कर ये सभी रचनाएँ एक राय हैं कि विजय रत्नसेन की हुई और बादशाह भाग गया, जबकि जौहर का उल्लेख इनमें से किसी भी रचना में नहीं है। पाटनामा के अनुसार दुर्ग ध्वस्त हुआ और बादशाह की फ़ौज भाग गयी। रत्नसेन की इन रचनाओं में विजय हुई, लेकिन देशज कुछ साहित्यिक स्रोत और पुरालेखीय अभिलेख मानते हैं कि रत्नसेन की पराजय हुई और कुछ समय के लिए दुर्ग सल्तनत के अधीन रहा। रचनाओं में रत्नसेन की विजय का उल्लेख स्वाभाविक है- अकसर रचनाकार पराजय को विजय के रूप चित्रित कर अपने जाति-समाज के स्वाभिमान को खाद-पानी देते हैं। जौहर का उल्लेख इनमें से किसी भी रचना में नहीं है और यह भी स्वाभाविक है, क्योंकि जौहर की परिस्थिति तो तब बनती, जब रत्नसेन की पराजय होती। परवर्ती देशज साहित्यिक वंशावली अभिलेखों-राजप्रशस्तिमहाकाव्य, अमरकाव्य और राजरत्नाकरकाव्य में भी जौहर का उल्लेख नहीं है, जबकि इस तरह का उल्लेख प्रतिष्ठाकारी था। जौहर केवल जायसी, अबुल फ़ज़ल और मुँहता नैणसी के यहाँ है और यह इनके कहाँ से आया, यह कहना बहुत मुश्किल काम है। पद्मिनी-रत्नसेन प्रकरण पर अलाउद्दीन के समकालीन इस्लामी वृत्तांतकारों का मौन बहुत स्वाभाविक है। आधुनिक इतिहासकारों ने इस आधार पर इस प्रकरण को जायसी की कल्पना मान लिया, जो पूरी तरह ग़लत है। अलाउद्दीन की सराहना और उसकी कमज़ोरियों की छिपाना इन इस्लामी वृत्तांतकारों की आदत और मजबूरी है।
भारतीय ऐतिहासिक कथा-काव्य परंपरा के अनुसार ये रचनाएँ सीधे यथार्थ नहीं, यथार्थ का प्रतिबिंबन है। यह यथार्थ कवि-कथाकर का अपना देखा गया यथार्थ है। यह यूरोपीय इतिहास के यथार्थ की तरह ‘दस्तावेज़ी’ और ‘आनुभविक’ नहीं है, इसलिए कल्पना है, यह यह धारणा सही नहीं है। रवींद्रनाथ ठाकुर ने कहा भी था कि सब खेतों एक जैसी फ़सलें नहीं होतीं। यह फ़सल आपके खेत की फ़सल से अलग है, इसलिए फ़सल ही नहीं है, यह मानना एक तरह का दुराग्रह है। अलाउद्दीन का चित्तौड़ पर पद्मिनी के लिए आक्रमण और इसके चरित्र- रत्नसेन, पद्मिनी, गोरा-बादल और राघवचेतन पूरी तरह ऐतिहासिक हैं और इसकी पुष्टि हमारे अपनी तरह के साक्ष्यों से होती है।
संदर्भ और टिप्पणियाँ:
1. फ़िल्म ‘पद्मावत’ पर विवाद के दौरान कई विद्वानों ने इस प्रकरण पर विचार रखे। इरफ़ान हबीब और हरबंश मुखिया ने अपने विचार नितिन रामपाल की स्टोरी (“पदमावती कंट्रोवर्सी: हिस्ट्री इज एट रिस्क ऑफ़ बीइंग ट्रेप्ड बिटविन लेफ्ट राइट इंटरप्रिटेशन्स ऑफ़ द पास्ट,” फ़र्स्ट पोस्ट, 21 सितंबर 2019.
https://www.firstpost.com/india/padmavati-controversy-history-is-at-risk-of-being-trapped-between-left-right-interpretations-of-the-past-4225695.html) में व्यक्त किए।
2. वाल्टर हेराल्सन, “मिथ एंड हिस्ट्री,” दि इनसाइक्लोपीडिया ऑफ़ रिलीजन, संपा. मिरेसा इलियाडे (न्यूयार्क: मैकमिलन पब्लिशिंग हाउस कंपनी, 1987), 10: 273.
3. बच्चन सिंह, आधुनिक हिंदी आलोचना के बीज शब्द (नयी दिल्ली: वाणी प्रकाशन, 2004), 82.
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11. वही, 91.
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14. कोमल कोठारी, “भूमिका,” विजयदान देथा कृत बातां री फुलवाड़ी (बोरूंदा: रूपायन संस्थान, 1966), 8: 8.
15. देखिए: ख़लजी कालीन भारत, अनुवाद एवं संपादन सैयद अतहर अब्बास रिज़वी (नयी दिल्ली: राजकमल प्रकाशन, चतुर्थ संस्करण 2015, प्र. सं. 1995).
16. कक्कसूरि ने अलाउद्दीन ख़लजी के दूसरे अभियानों का भी विवरण दिया है। वह लिखता है-
तदा तत्र सुरतत्राणेऽलावदीनोनदीवत्।
उद्वेल्लिद्वाजिकल्लोलोर्वराव्यापी नृपोऽभवत्॥1॥
यः श्रीदेवगिरौ गत्वा बद्ध्वा च तदधीश्वरम्।
न्यवेशयत् तं तत्रैव जयस्तंभमिवात्मनः॥2॥
सपादलक्षाधिपतिं वीरं हम्मीरभूपतिम्।
हत्वाऽभिमानिनं सर्वं स तत्सर्वमुपाददे॥3॥
श्रीचित्रकूटदुर्गेशं बद्ध्वा लात्वा च तद्धनम्।
कंठबद्धं कपिमिवाभ्रामयत्तं पुरे पुरे॥4॥ - कक्कसूरि, नाभिनंदनजिनोद्धारप्रबंध, संपा. भगवानदास हरखचंद (पालीताणा: सोमचंद डी. शाह, 1925), 104.
17. अबुल फ़ज़ल अल्लामी, आईन-ए-अकबरी, अनु. एवं संपा. एच.एस. जारेट्ट ((दिल्ली: लो प्राइस पब्लिकेशन, 2011, प्र.सं.1927), 1: 274.
18. मुहम्मद कासिम फ़रिश्ता, हिस्ट्री ऑफ़ राइज दि मोहम्मडन पॉवर इन इंडिया (टिल दि ईयर 1612 ए.डी.), अनु. एवं संपा. जॉन ब्रिग्ज (कलकत्ता: आर. केम्ब्रे एंड कंपनी, 1909), 1: 206.
19. मुँहता नैणसी, मुँहता नैणसीरी ख्यात, संपा. बद्रीप्रसाद साकरिया (जोधपुर: राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, तृतीय संस्करण, 2006),1: 14.
20. वही, 14.
21. मेवाड़ रावल राणाजीरी बात, संपा. हुकुमसिंह भाटी (उदयपुर: प्रताप शोध प्रतिष्ठान 1994), 10.
22. “गोरा-बादल कवित्त,” लब्धोदयकृत पद्मिनी चरित्र चौपई, संपा. भँवरलाल नाहटा (बीकानेर: सादुल राजस्थानी रिसर्च इंस्टीट्यूट, 1960), 109.
23. हेमरतन, गोरा-बादल पदमिणी चऊपई, संपा. उदयसिंह भटनागर (जोधपुर: राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, द्वितीय संस्करण 1997), 3.
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28. चित्तौड़–उदयपुर पाटनामा, संपा. मनोहरसिंह राणावत (सीतामऊ: नटनागर शोध संस्थान, 2003), 1: 312.
29. जटमल नाहर, “गोरा-बादल कथा,” लब्धोदय कृत पद्मिनी चरित्र चौपई, संपा. भँवरलाल नाहटा (बीकानेर: सादुल राजस्थानी रिसर्च इंस्टीट्यूट, 1960), 182.
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35. श्यामलदास, “एकलिंगजी के निज मंदिर के दक्षिणी द्वार की प्रशस्ति,” वीर विनोद (दिल्ली: मोतीलाल बनारसीदास, प्रथम संस्करण 1886, पुनर्मुद्रण 1986), 1: 417.
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39. गौरीशंकर हीराचंद ओझा, उदयपुर राज्य का इतिहास (जोधपुर: राजस्थानी ग्रंथागार, 1996-97), 1: 192.
40. अमीर ख़ुसरो, “खजाइन-उल-फ़ुतूह,” 160.
41. आर.आर. हालदार, “महाराणा कुंभा के समय के कुभलगढ़ शिलालेख की चौथी शिला, वि.सं.1517,” एपिग्राफ़िया इंडिका, खंड-XXI (1931-32 ई.), संपा. हिरेंद्र शास्त्री एवं के.एन. दीक्षित (दिल्ली: आर्कियोलोजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया, पुनर्मुद्रण,1991), 279.
42. एकलिंगमाहात्म्य, संपा. प्रेमलता शर्मा, (दिल्ली: मोतीलाल बनारसीदास, 1976), 133.
43. “गोरा-बादल कवित्त,” 117.
44. हेमरतन, गोरा-बादल पदमिणी चऊपई, 42.
45. दलपति विजय, खुम्माणरासो, 84.
46. लब्धोदय, पद्मिनी चरित्र चौपई, 11.
47. जटमल नाहर, “गोरा-बादल कथा,” 186.
48. “पद्मिनीसमिओ,” 104.
49. चित्तौड़–उदयपुर पाटनामा, 1: 311.
50. वही, 326.
51. हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया- एज टोल्ड बाइ इट्स ऑन हिस्टोरियन, संपा. एच.एम. इलियट, (इलाहाबाद: किताब महल प्रा. लि., 1996, प्रथम संस्करण 1866), 1: 76-77.
52. अमीर ख़ुसरो, “ख़जाइन-उल-फ़ुतूह,” अनु. मोहम्मद हबीब, जर्नल ऑफ़ इंडियन हिस्ट्री, अंक-VIII, खंड-1, क्रम सं.-22 (अप्रैल, 1929), 371.
53. आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव, दिल्ली सल्तनत (आगरा: शिवलाल अग्रवाल एंड कंपनी, 1992), 161.
54. अमीर ख़ुसरो, “ख़जाइन-उल-फ़ुतूह,” 371.
55. मुनि जिनविजय, “रत्नसिंह की समस्या,” गोरा-बादल चरित्र (जोधपुर: राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, तृतीय संस्करण 2000), 63.
56. सुबीमल चंद्रदत्ता, “दि फर्स्ट साका ऑफ़ चित्तौड़,” संपा. नरेंद्रनाथ लॉ, दि इंडियन हिस्टोरिकल क्वार्टरली, खंड-7 (1931), 297.
57. (i) विवेच्य इन आठ रचनाओं के अलावा अलाउद्दीन ख़लजी कान्हड़देप्रबंध (पद्मनाभ), हम्मीररासो (नयचंद सूरि), हम्मीरायण (भांडउ व्यास), छिताईचरित (नारायणदास, रतनरंग और देवचंद) आदि रचनाओं में भी है।
(ii) अलाउद्दीन ख़लजी का उल्लेख राजस्थान-गुजरात की प्रसिद्ध लोककथा ‘सयणी चारणी री वात’ में भी है। - राजस्थानी वात संग्रह, संपा. मनोहर शर्मा (जोधपुर: राजस्थानी ग्रंथागार. 2007), 57 एवं विजयदान देथा, बातां री फुलवाड़ी (जोधपुर: राजस्थानी ग्रंथागार. 2007), 14: 295.
58. “गोरा-बादल कवित्त,” 103.
59. वही, 103.
60. हेमरतन, गोरा-बादल पदमिणी चऊपई, 19.
61. जटमल नाहर, “गोरा-बादल कथा,” 187.
62. दलपति विजय, खुम्माणरासो, 86.
63. दयालदास, राणारासो, 111.
64. कालिकारंजन कानूनगो, स्टडीज़ इन राजपूत हिस्ट्री (दिल्ली: एस चांद एंड कंपनी, 1960), 15.
65. “गोरा-बादल कवित्त,” 118.
66. हेमरतन, गोरा-बादल पदमिणी चऊपई, 51.
67. वही, 51.
68. चित्तौड़-उदयपुर पाटनामा, 1: 398.
69. “वह (अलाउद्दीन ख़लजी) सबसे अच्छा सुल्तान था। भारतीय उसकी बहुत तारीफ़ करते हैं। – इब्न बतूता, रहेला ऑफ़ इब्न बतूता, अनुवाद और व्याख्या मेहदी हुसेन (बड़ौदा: ओरियंटल इंस्टीट्यूट, 1976) 41.
70. अलाउद्दीन अपने चाचा और ससुर जलालुद्दीन की निर्मम हत्या करके सत्तारूढ़ हुआ। उसने सत्तारूढ़ होते ही जलालुद्दीन के सभी पुत्रों का विनाश कर दिया। यही नहीं, उसने जलालुद्दीन के साथ विश्वासघात करके अलाउद्दीन को सत्तारूढ़ होने में मदद करने वाले तीन अमीरों को छोड़कर शेष सभी अमीरों को भी मरवा दिया और कुछ को अंधा कर दिया। उनकी संपत्ति और माल असबाब भी उसने अपने अधीन कर लिया। - ज़ियाउद्दीन बरनी, “तारीख़-ए-फ़िरोजशाही,” ख़लजी कालीन भारत, संपा. सैयद अतहर अब्बास रिज़वी (दिल्ली: राजकमल प्रकाशन, चौथा संस्करण 2016), 36-47.
71. वही, 58, 72.
72. अब्दुल्लाह मुहम्मद बिन उमर अल मक्की अल-आसफ़ी उलुग़ ख़ानी, “जफरुल वालेह बे मुजफ्फर वालेह,” वही, 230.
73. नारायणदास, रतनरंग और देवचंद, छिताईचरित, संपा. हरिहरनिवास द्विवेदी एवं अगरचंद नाहटा (ग्वालियर: विद्यामंदिर प्रकाशन,1960), 41.
74. नयचंद सूरि, हम्मीर महाकाव्य, हिंदी अनुवाद नाथूराम त्रिवेदी (राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, 1997), 130.
75. दशरथ शर्मा, “हम्मीर महाकाव्य में ऐतिह्य सामग्री,” वही, 23.
76. ‘मोल्हउ’ कहइ मोकल्यउ सुरताणि, कहइ सु सुणइ हमीरदे राण; ‘देवलदे’ कुंवरी परणावि, ‘धारू’ ‘वारू’ साथि अलावि। - भांडउ व्यास, हम्मीरायण, संपा. भंवरलाल नाहटा (बीकानेर: सादुल राजस्थनी इंस्टीट्यूट,1960), 17.
77. अमीर ख़ुसरो, “खजाइन-उल-फ़ुतूह,” ख़लजी कालीन भारत, 159.
78. वही, 161.
79. “गोरा-बादल कवित्त,” 121.
80. हेमरतन, गोरा-बादल पदमिणी चऊपई, 58.
81. वही, 66.
82. लब्धोदय, पद्मिनी चरित्र चौपई, 66.
83. दलपति विजय, खुम्माणरासो, 119.
84. चित्तौड़-उदयपुर पाटनामा, 1: 330.
85. अबुल फ़ज़ल अल्लामी, आईन-ए-अकबरी, 1: 274.
86. जेम्स टॉड, एनल्स एंड एंटिक्विटीज़ ऑफ़ राजस्थान, संपा. विलियम क्रूक (दिल्ली: मोतीलाल बनारसीदास, 1971, प्रथम संस्करण 1920), 1: 308.
87. श्यामलदास, वीरविनोद-मेवाड़ का इतिहास (दिल्ली: मोतीलाल बनारसीदास, 1986, प्रथम संस्करण 1886), 1: 286.
88. देव कोठारी, “महारानी पदमिनी की ऐतिहासिकता,” महारानी पद्मिनी (उदयपुर: वीर शिरोमणि महराणा प्रताप समिति, 2010), 26.
89. रुद्र काशिकेय, “भूमिका,” नारायणदास कृत छिताई वार्ता, संपा. माताप्रसाद गुप्त (काशी: नागरी प्रचारिणी सभा, 1958), 20.
90. हेमरतन, गोरा-बादल पदमिणी चऊपई, 19.
91. लब्धोदय, पद्मिनी चरित्र चौपई, 24.
92. चित्तौड़-उदयपुर पाटनामा, भाग-1, 337.
93. “गोरा-बादल कवित्त,” 110.
94. दलपति विजय, खुम्माणरासो, 86.
95. “पद्मिनीसमिओ,” 110.
96. जटमल नाहर, “गोरा-बादल कथा,” 187.
97. अगरचंद नाहटा, “राघवचेतन की ऐतिहासिकता”, नागरी प्रचारिणी पत्रिका, वर्ष-64, अंक-1, 64.
99. जैन सिद्धांत भास्कर, भाग-5 (3), दिसंबर,1938, 138.
99. अगरचंद नाहटा, “राघवचेतन की ऐतिहासिकता”, 65.
100. वृद्धाचार्य प्रबंधावली के जिनप्रभसूरिप्रबंध का यह अंश उक्त संदर्भ सं. 96 में वर्णित आलेख में पृ. 65 से उद्धृत किया है।
101. अगरचंद नाहटा, “राघवचेतन की ऐतिहासिकता”, 66.
102. वही, 66.
103. (i) “कांगराज्वालामुखीस्तोत्रसंसारचंद्रप्रशस्ती,” प्राचीन लेख माला, संपा. दुर्गाप्रसाद, काशीनाथ पांडुरंग (मुम्बई: निर्णय सागर प्रेस, 1887), 2: 120 और (ii) जी. बूलर, “कांगड़ा जावालामुखी प्रशस्ति,” एपिग्राफ़िया इंडिका, भाग-1, संपा. जे. वर्गेज (कलकत्ता: इंडियन आर्कियोलोजिकल सर्वे, 1892), 192-194.
104. शार्गंधर, शार्गंधरपद्धति, संपा. पीटर पीटर्सन (दिल्ली: चौखंभा संस्कृत संस्थान, 1987),
1.
105. प्राकृतपैंगलम्, 1.71, 1.204, संपा. भोलाशंकर व्यास (वाराणसी: प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, 1959) 1: 64 एवं 174.
106. “राघवचैतन्यविरचितं महागणपतिस्तोत्रम्,” काव्यमाला, संपा. दुर्गाप्रसाद, काशीनाथ पांडुरंग (मुम्बई: निर्णय सागर प्रेस, 1851), 1: 1-6.
107. “गोरा-बादल कवित्त,” 127.
108. हेमरतन, गोरा-बादल पदमिणी चऊपई, 97.
109. लब्धोदय, पद्मिनी चरित्र चौपई, 101.
110. दलपति विजय, खुम्माणरासो, 3: 170.
111. दयालदास, राणारासो, 214.
112. जटमल नाहर, “गोरा-बादल कथा,” 206.
113. “पद्मिनी समिओ,” 149.
114. चित्तौड़-उदयपुर पाटनामा, 1: 406.
115. लक्ष्मसिंह स्त्वेष गढ़मंडलीकाभिधोस्य तु।
कनिष्ठो रत्नसीभ्राता पद्मिनी तत्प्रियात् भवत॥4॥
तत्कृतेलावदीनेन रुद्धे श्रीचित्रकूटके।
लक्ष्मसिंहो द्वादश भ्रातृभि: सप्तभिः सुतैः॥5॥ - रणछोड़ भट्ट, राजप्रशस्तिमहाकाव्यम्, संपा. मोतीलाल मेनारिया (उदयपुर: साहित्य संस्थान, राजस्थान विद्यापीठ, 1973), 38.
116. रानाख्यातेऽवददि (ति) सदा म्लेच्छपो रत्नसिहं,
नेत्यूचे वा मम कुरुभवान् रावलाख्यां यदस्ति।
पूर्वेषां में तदुचितमियं येन तूक्तं तथा स्या-
त्तस्मात्कालागतिविदिना रत्नसी रावलोऽभूद्॥10॥
सोऽयं द्वीपे गमनमतनोत् सिंहले पद्मिनीं वा,
दृष्ट्वा यां च सपदि कृतवांस्तत्पितुः पार्श्व एव।
तत्पित्रोक्तं यदि च नृपतिः पद्मिनीप्राप्तये चेत्,
युद्धं कुर्यात्तव तु सहजो लक्ष्मसी ज्येष्ठ एव॥11॥
लेखं कृत्वा स विशतु मया पद्मिनी करेभ्यः
रक्ष्या देवी तदनु च मया कारितो लेख ईदृक।
लेखं राणा सपदि कृतवान् लक्ष्मी सोदसीयुक्,
रक्ष्यास्माभिर्यवनभयतः पद्मिनी संकटेषु॥12॥
पद्मिन्यास्ते यवननृपतिश्चिंत्रकूटाख्यदुर्गे,
श्रुत्वा दिल्लीनगरतः प्रस्थितोऽल्लावदीनः।
हिन्दूवृन्वैर्मुगलनिवहैः सत्यवन्तैः समेता-
नग्रे धृवातुलबल – महाशौर्यधैर्यप्रयुक्तः॥13॥
तत्र स्थित्वा यवननृपतिश्चित्रकूटाख्यदुर्गे,
श्रीपद्मिन्यास्ते सुकरकमलप्राप्तभोज्याशनेन।
तोषः स्यान्मेऽन्यदिह न च किं संदिशन्लक्ष्मसिंह-
पार्श्वे दूतं सविनयमयं प्रेषयामास दूतम्॥14॥
गत्वा तत्रावददिति तदा रावलः शुद्धभावं,
दिल्लीशं तं मनसि कलयन्नागतस्तस्य पार्श्वे।
देवः दिल्लीपतिरपि च तं रावलं रत्नभूषा-
वासो- दानप्रकटकपटाद्द्राग्विब्न्धाथ तूर्णम्॥15॥
देशिन्येषात्विति कथितवांस्तच्छतं चित्रकूटे,
प्रोक्तं गोरा प्रयुरमतियुक् बादलाद्यैः सखीयुक्।
प्रेका वा यवननृपति संजगादालियुक्ताः,
कूटं कृत्वा सभटशिविका प्रेषितास्तैस्ततस्ता ॥16॥
दृष्ट्वा दंभाश्रुमयदृगभूद्र्रत्नसी म्लेच्छभर्ता,
पद्मिन्यास्ते त्विह नृप इतो वाष्पवान् जातमेव।
राज्ञा प्रोक्तं कपटपटुना पद्मिनीं द्रष्टुमाज्ञा,
देया मह्यं तव तु निकटे ह्यागताथैकवारम्॥17॥
श्रुत्वा ज्ञातं मम तु निकटे स्वागतैवेति नून-
मूचे गच्छेति सकरुणया मुक्तबंधः स यातः।
राणाभ्राता सकलशिविकारोहणेनैव दुर्गे,
प्राप्तो म्लेच्छाधिप इति मुदा पद्मिनीं द्रष्टुमागात्॥18॥
तस्मिन्काले सकलशिविकोत्तोर्णवीरैः कृतं द्राक्,
म्लेच्छेशस्य प्रबलकदनं म्लेच्छपोऽभूत्सुगुप्तः।
स्थाने कस्मिंश्चिदपि च ततो जीवति स्मेति नष्टः,
पद्मिन्याशारहित इति वा स्वल्पसैन्येन युक्तः॥19॥ - रणछोड़ भट्ट, अमरकाव्यम्, संपा. देव कोठारी (उदयपुर: साहित्य संस्थान, राजस्थान विद्यापीठ,1985), 124-129.
117. सदाशिव, राजरत्नाकरमहाकाव्य, संपा. मूलचंद पाठक (जोधपुर: राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान), 127-133.
118. मलिक मुहम्मद जायसी, पदमावत, संपा. वासुदेवशरण अग्रवाल (चिरगाँव (झाँसी): साहित्य सदन, द्वितीय संस्करण 1961), 875.
119. अबुल फ़ज़ल एल्लामी, आईन-ए-अकबरी, 1: 274.
120. मुहम्मद क़ासिम फ़रिश्ता, हिस्ट्री ऑफ़ राइज दि मोहम्मडन पॉवर इन इंडिया (टिल दि ईयर 1612 ए.डी.), अनु. एवं संपा., जॉन ब्रिग्ज (कलकत्ता: आर. केम्ब्रे एंड कंपनी, 1909), 1: 206.
121. अब्दुल्लाह मुहम्मद उमर अल-मक्की अल-आसफ़ी अल-उलुग़ख़ानी हाजी उद्दबीर, ज़फ़रुल वालेह बे मुज़फ़्फ़र वालेह- एन अरेबिक हिस्ट्री ऑफ़ गुजरात (बड़ौदा: ओरियंटल इंस्टिट्यूट,1974), 1: 645-646.
122. मुँहता नैणसी, मुंहता नैणसी री ख्यात, 1: 14.
123. मेवाड़ रावल राणा री बात, 10.
124. जेम्स टॉड, एनल्स एंड एंटिक्विटीज़ ऑफ़ राजस्थान, 1: 308.
125. वि.ए. स्मिथ, ओक्सफ़ोर्ड हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया (लंदन: ओक्सफ़ोर्ड, संशोधित संस्करण 1921). 233.
126. श्यामलदास, वीर विनोद-मेवाड़ का इतिहास, 1: 286.
127. गौरीशंकर ओझा, उदयपुर राज्य का इतिहास, 1: 191.
128. पद्मनाभ, कान्हड़देप्रबंध, 2/131-141, संपा. कांतिलाल बलदेवराम व्यास (जयपुर: राजस्थान प्राच्यविद्या मंदिर, 1953), 90-92.
129. विश्वम्भर शरण पाठक, एंशियन्ट हिस्टोरियन्स ऑफ़ इंडिया (मुंबई: एशिया पब्लिशिंग हाउस, 1966), 139.
130. संस्कृत कविता की लोकधर्मी परंपरा, चयन एवं संपा. राधावल्लभ त्रिपाठी (दिल्ली: यश पब्लिकेशन्स, 2000), 140.
131. नरपति नाल्ह, बीसलदेवरास, संपा. माताप्रसाद गुप्त (इलाहाबाद: हिंदी परिषद्, इलाहाबाद, विशविद्यालय, द्वितीय संस्करण 1959), 109.
132.“गोरा-बादल कवित्त,” 110
133. चित्तौड़-उदयपुर पाटनामा, 1: 337.
134. जटमल नाहर, “गोरा-बादल कथा,” 197.
135. दयालदास, राणारासो, 197.
136. चित्तौड़-उदयपुर पाटनामा, 1: 305-335.
137. हर्षदेव, रत्नावली-नाटिका, संपा. एवं टीका रामचंद्र मिश्र (बनारस: चौखंभा संस्कृत सीरीज, 1953), 9-52.
138. कोऊहल, लीलावइ, संपा. एवं अनुवाद एंड्रयु ओलट (लंदन: मूर्ति क्लासिकल लाइब्रेरी ऑफ़ इंडिया, 2021), 199.
139. धनपाल, भविसयत्तकहा, संपा. सी.डी. दलाल (बडोदा: ओरियंटल इंस्टीट्यूट, 1967), 13.
140. मुनि कनकामर, करकंड चरिउ, 7.6,7,8, संपा. एवं अनुवाद हीरालाल जैन (दिल्ली : भारतीय ज्ञानपीठ, द्वितीय संस्करण, 1964), 94-96.
141. राजसिंह, जिणदत्त चरित, 201-216, संपा. एवं हिंदी अनुवाद माताप्रसाद गुप्त (जयपुर: दिगंबर जैन अं. क्षेत्र, 1973), 66-70.
142. जिनहर्षगणि, रयणसेहरनिवकहा, संपा. रामप्रकाश पोद्दार (मुजफ्फरपुर: प्राकृतशास्त्र और अहिंसा शोध संस्थान, 1993), 16.
143. “गोरा-बादल कवित्त,” 110.
144. हेमरतन, गोरा-बादल पदमिणी चऊपई, 9.
145. दलपति विजय, खुम्माणरासो, 84.
146. दयालदास, राणारासो, 184.
147. “पद्मिनी समिओ,” 103.
148. जटमल नाहर, “गोरा-बादल कथा,” 185.
149. चित्तौड़-उदयपुर पाटनामा, 1: 305-335.
150. सोमदेव, कथासरित्सागर, हिंदी रूपांतर राधावल्लभ त्रिपाठी (नयी दिल्ली: नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, 1995), 73.
151. विजयदान देथा, बातां री फुलवाड़ी (बोरूंदा: रूपायन संस्थान, 1967), 9: 114.
152. हेमरतन, गोरा-बादल पदमिणी चऊपई, 10.
153. लब्धोदय, पद्मिनी चरित्र चौपई, 11.
154. दलपति विजय, खुम्माणरासो, 84.
155. हजारीप्रसाद द्विवेदी, हिंदी साहित्य का आदिकाल, 88.
156. सोमदेव, कथासरित्सागर, 182.
157. विद्यापति बिल्हण, विक्रमांकदेवचरित, संपा. डब्ल्यू. एच. स्टोक्स (मुम्बई: गर्नवमेंट सेंट्रल बुक डिपो, 1875) 56.
158. जटमल नाहर, “गोरा-बादल कथा,” 187.
159. “पद्मिनीसमिओ,” 110
160. देखिए: अध्याय-7 का अनुच्छेद- 6.
161. कालिदास, ऋतुसंहारम्, संपा. रेवाप्रसाद द्विवेदी (नयी दिल्ली: साहित्य अकादेमी, 1990).
162. अद्दहमाण, संदेशरासक, संपा. हजारीप्रसाद द्विवेदी (मुम्बई: हिंदी ग्रंथ रत्नाकर लि., 1960), 33-55.
163. चंद बरदाई, पृथ्वीराजरासो, संपा. मोहनलाल विष्णुलाल पंड्या (वाराणसी: नागरी प्रचारिणी सभा,) 2: 759.
164. दयालदास, राणारासो, 189-196.
165. देखिए: अध्याय-7 का अनुच्छेद- 5.
166. कोमल कोठारी, “भूमिका,” विजयदान देथा कृत बातां री फुलवारी (बोरूंदा: रूपायन संस्थान, 1966), 8: 4.
167. मोरिस ब्लूमफील्ड, “ऑन रेकरिंग साइकिक मोटिफ, एंड लाफ़ एंड क्राइ मोटिफ़.” जर्नल ओफ़ अमरीकन ओरियंटल सोसायटी, खंड-36 (1916), 54.
168. फ़िल्म ‘पद्मावत’ पर हुए विवाद के दौरान और पहले, इस कथा में आयी सिंघल द्वीप संबंधी कथा रूढ़ि के युक्तिकरण और निहितार्थ खोजने के कई प्रयास हुए। इतिहासकार गौरीशंकर ओझा ने कहा कि मध्यकाल में सिंघल द्वीप जाकर विवाह करना संभव नही है और वहाँ कभी चौहानों का शासन ही नहीं रहा। (उदयपुर राज्य का इतिहास, 1: 187) सरदार ए.ए. के सालू के अनुसार सिंघल मध्यप्रदेश और राजस्थान की सीमा पर स्थित गाँव सिंगोली है। (सरस्वती, खंड-1, संख्या-2, 1958), 90-100.) देव कोठारी की धारणा है कि पद्मिनी सवाई माधोपुर जिले में रणथंभोर के समीप स्थित गाँव सिंहपुरी की रहनेवाली थी। (महारानी पदमिनी, 18) ब्रजभूषण सिंघल के अनुसार वह रणथंभोर के शासक हम्मीर की पुत्री थी। (“रानी पद्मिनी,” 45) इसी तरह चंद्रमणिसिंह ने नंदकिशोर वर्मा के एक आलेख के आधार पर पद्मिनी को सिंध के सिंहराव (वर्तमान पाकिस्तान में) की रहनेवाली जैसलमेर के निर्वासित रावल पुण्यपाल की बेटी माना है। (चंद्रमणिसिंह, पदमिनी की ऐतिहासिकता [जयपुर: प्राकृत भारती अकादमी, 2020], 60.)
169. हजारीप्रसाद द्विवेदी, हिंदी साहित्य का आदिकाल, 80.
170. “अर अठे राजाजी उण नवी अपछरा रै आणंद में ऐड़ा वावळा व्हीया के पैला री छवूँ रांणियां ने दुहाग दे दियौ। छंवा रे पेट में आसा ही, घणो लटापोरियां करी पण राजा नी मांन्या।” - विजयदान देथा, बातां री फुलवाड़ी, (बोरूंदा: रूपायन संस्थान,1967), 9: 250.
171. महर्षि व्यास, श्रीमद्भागवतपुराणम्, 10.58-32-45, संपा. एवं टीका जगदीशलाल, शास्त्री (दिल्ली: मोतीलाल बनारसीदास, पुनर्मुद्रण 1999), 551.
172. विजयदान देथा, बातां री फुलवाड़ी, 9: 209-257.
173. अमीर ख़ुसरो, “खजाइन-उल-फ़ुतूह,” 160.
174. मोहम्मद हबीब, जीवन चरित भारत के बाहर इस्लामी संस्कृति और ऐतिहासिक पद्धति, संपा. इरफान हबीब (दिल्ली: ग्रंथ शिल्पी, हिंदी संस्करण 2010), 138.
175. एच.एम. इलियट, संपा. हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया- एज टोल्ड बाइ इट्स ऑन हिस्टोरियन, 1: 76-77.
176. पी. हार्डी, हिस्टोरियन्स ऑफ़ मे मेडिईवल पीरियड (लंदन: लुज़ाक एंड कंपनी लि. 1960), 92 .
177. मोहम्मद हबीब, जीवन चरित भारत के बाहर इस्लामी संस्कृति और ऐतिहासिक पद्धति, 21.
178. वही, 74.
179. वही, 74.
180. वही, 76.
181. वही, 72.
182. वही, 105.
183. वही, 101.
184. हरिशंकर श्रीवास्तव, मध्यकालीन भारतीय इतिहास लेखन (दिल्ली: वाणी प्रकाशन, 2000), 102.
185. पी. हार्डी, हिस्टोरियन्स ऑफ़ मेडिईवल पीरियड, 110.



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