भारत में भक्ति की चेतना
- Madhav Hada

- 3 days ago
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'साहित्य तक’ पर श्री जयप्रकाश पांडेय से संवाद
भारत में भक्ति की चेतना प्राग्वैदिककाल से निरंतर है। देश के विभिन्न क्षेत्रों की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक ज़रूरतों के तहत इसके कई रूप और प्रवृत्तियाँ रही हैं और सदियों से इनमें अंतःक्रियाएँ और रूपांतरण होता रहा है। भक्ति अगाध अनंत’ (राजपाल एंड संज़ एवं रज़ा न्यास का सह प्रकाशन) में इस सब्को समेटने का प्रयास किया गया है।
यह सीमित अवधि का कोई ‘आंदोलन’ या ‘क्रांति’ नहीं है। यह केवल परलोक-व्यग्र चेतना भी नहीं है- मनुष्य की पार्थिव चिंताएँ भी इसी के माध्यम से व्यक्त हुई हैं।
भक्ति-चेतना का साहित्य स्वतंत्रचेता संत-भक्तों का साहित्य है और स्वतंत्रता हमेशा बहुवचन में चरितार्थ होती है, इसलिए यह अपनी प्रकृति में बहुवचन है।
देशभाषाओं में इसकी व्याप्ति ने इसको जनसाधारण के लिए सुलभ कर दिया। विडंबना यह है कि संपूर्ण देश में सदियों से मौजूद इस भक्ति-चेतना की, भाषायी वैविध्य और औपनिवेशिक ज्ञानमीमांसीय पूर्वग्रह के कारण, अभी तक कोई समेकित पहचान नहीं बन पाई है।
भक्ति-चेतना को उत्तरभारत में केवल कबीर, तुलसी आदि तक सीमित समझ लिया गया है, जबकि वस्तुस्थिति इससे अलग है। भक्ति का उत्तरभारत की तुलना में व्यापक प्रसार दक्षिण में हुआ और उसकी पहुँच उत्तर-पूर्व, कश्मीर आदि में भी व्यापक थी। महाराष्ट्र में भी उसकी व्याप्ति का दायरा बहुत विस्तृत था। गुजरात के जनसाधारण में भी उसकी स्वीकार्यता कम नहीं थी। बंगाल, ओड़िशा और असम के संत-भक्तों ने तो उत्तरभारतीय संत-भक्तों को दूर तक प्रभावित किया।
कालजयी कवि और उनका काव्य (राजपाल एंड सज़) का लक्ष्य पाठक वर्ग मुख्यतः युवा है और यह शृंखला उनमें पर्याप्त लोकप्रिय है।
ऐसे कई मुद्दों पर ‘सहित्य तक’ में श्री जयप्रकाश पांडेय से हुई बातचीत यहाँ आपके लिए प्रस्तुत है।




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