पद्मिनी: इतिहास और कथा-काव्य की जुगलबंदी
- Madhav Hada

- Nov 30
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समीक्षालेख । बी एल भादानी । सामाजिकी । अक्टूबर-दिसंबर, 2025, अंक- 1
माधव हाड़ा द्वारा लिखित सद्य प्रकाशित कृति ‘पद्मिनी: इतिहास और कथा-काव्य की जुगलबंदी’ एक अद्वितीय शोधपूर्ण रचना है। उनकी यह रचना पद्मिनी-रत्नसेन पर उपलब्ध सम्पूर्ण ऐतिहासिक साहित्य (काव्य एवं गद्य) का विवेचनापूर्ण अध्ययन है, जो निश्चित ही उनकी गहन शोध दृष्टि का परिचायक है। इस ग्रन्थ में साहित्य एवं इतिहास में उनकी चहलकदमी अत्यंत दिलचस्प है एवं पाठक के मन में जिज्ञासा जागृत करने वाली है। उन्होंने इस अध्ययन को दो खंडों में विभाजित किया है- प्रथम, विवेचनात्मक अध्ययन एवं द्वितीय, देशज ऐतिहासिक कथा-काव्यों का संकलन। अन्त में शब्दार्थ सूची भी है, जो पाठकों हेतु उपयोगी है। लेखक ने सम्पूर्ण सामग्री को लगभग सात सौ पृष्ठों में संयोजित करने का सराहनीय कार्य किया हैं
लेखक ने अपने ‘प्रास्ताविक’ के प्रारंभ में ही अपनी विवेचना के आधार को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि ‘‘अलाउद्दीन खि़लजी का चितौड़गढ़ अभियान लोक स्मृति और साहित्य में सदियों से लगभग ‘मान्य सत्य’ का दर्जा प्राप्त है, जिसको ऐतिहासिक कथा-काव्यों के आधार पर विद्वान् लेखक ने ‘ऐतिहासिक सत्य’ एवं ‘तथ्य’ के रूप में स्थापित करने का सराहनीय प्रयास किया है जो क़ाबिले तारीफ़ है। निश्चित ही यह एक भगीरथ प्रयास है, जिसकी सफलता उनके स्वयं के द्वारा अर्जित है। आगे बढ़ने से पूर्व यहाँ एक बात की ओर संकेत करना आवश्यक है कि माधव हाड़ा ने जिन ऐतिहासिक रचनाओं के आधार पर पद्मिनी की ‘सत्यता’ को स्थापित करने का गंभीर प्रयास किया है उनका निश्चित ही अकादमिक एवं विद्वत जगत में स्वागत होगा। लेकिन विदेशी पर्यटकों हेतु लिखित पुस्तकें, पद्मिनी-रत्नसेन प्रकरण पर निर्मित फिल्में एवं टी.वी. सिरीयल्स से इतिहास में पद्मिनी को निश्चित ही स्थापित नहीं किया जा सकता है। इन सब प्रयासों की पृष्ठभूमि में मुद्रा अर्जित करने का उद्देश्य मुख्य होता है, जिनका इतिहास से कोई ताल्लुक नहीं होता।
माधव हाड़ा ने इस बात पर विशेष बल दिया है कि पन्द्रहवी एवं सोलहवीं शती में रचित पद्मिनी विषयक कथा-काव्यों का आधार ‘लोक-स्मृति’ था एवं यही आधार जायसी रचित ‘पद्मावत’ का भी था यद्यपि दोनों की शैली में भी भिन्नता है। यहाँ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या ‘लोक स्मृति’ के आधार पर रचित किसी भी प्रकार की रचना को जाँच-पड़ताल के बिना इतिहास के दायरे में लाया जा सकता है? हालाँकि इस बिन्दु पर माधव हाड़ा की राय सकारात्मक है।
लेखक ने इस शोधपूर्ण ग्रन्थ को लिखने के मन्तव्य को स्पष्ट शब्दों में रेखांकित किया है। वे लिखते हैं कि ‘‘इतिहास और साहित्य की औपनिवेशिक चेतना और संस्कार का ही नतीजा है कि साहित्य की अपनी तरह की इस अलग और ख़ास परंपरा को साहित्य और इतिहास, दोनों अनुशासनों ने अपने विचार के दायरे में नहीं लिया।’’ यह बात काफ़ी हद तक सही हो सकती है जिसका एक कारण देशज भाषा से अनभिज्ञता होना भी हो सकता है न कि ‘‘औपनिवेशिक चेतना और संस्कार।’’ मेरा ख़्याल है कि माधव हाड़ा ने अपने प्रास्ताविक में जिस प्रकार की शब्दावली का प्रयोग किया है, उनका प्रयोग किए बिना भी वे पद्मिनी के अस्तित्व को बखूबी प्रमाणित कर सकते थे। उदाहरणार्थ पद्मिनी पर ‘रोमांटिक’ और ‘राष्ट्रीय साहित्य’ के सृजन का प्रश्न या फिर यूरोपीय संस्कारवाले भारतीय इतिहासकारों में गौरीशंकर ओझा एवं किशोरीसरन लाल जैसे इतिहासकारों को सम्मिलित करना आदि। इसी सन्दर्भ में लेखक द्वारा यह लिखना कि ‘भारतीय इतिहास के इस प्रकरण (अर्थात् पद्मिनी)’ की अभी तक जो समझ बनी है, यह इस्लामी और औपनिवेशिक स्रोतों पर आधारित है।’ लेखक किन औपनिवेशिक स्रोतों की ओर संकेत कर रहा है वे स्पष्ट नहीं है। अलाउद्दीन ख़ल्जी के काल में लिखित फ़ारसी स्रोतों को धर्म विशेष अर्थात इस्लामी स्रोत कहना कहाँ तक युक्ति संगत है ? इस दृष्टि से हिन्दी या देश भाषाओं में लिखित साहित्य हिन्दू स्रोत कहलाएँगे।
प्रथम अध्याय ‘भारतीय परम्परा’ में लेखक का महत्वपूर्ण कथन कि पद्मिनी-रत्नसेन प्रकरण से सम्बन्धित देशज भाषाओं में रचित कथा-काव्य प्राचीन भारतीय परंपराओं का स्वाभाविक और देशज विकास है। यह एक उल्लेखनीय प्रतिस्थापना है जिसको स्वीकारने में किसी प्रकार की हिचक नहीं होनी चाहिए। निश्चित ही भारत में कथा लेखन एवं काव्य सृजन की समृद्ध एवं सदीर्घ परंपरा रही है। इस प्रकार का साहित्य भारतीय एवं क्षेत्रीय इतिहास लेखन के लिए न केवल मूल सामग्री मुहैया करवाता है बल्कि उसे विश्वसनीयता भी प्रदान करता है। लेकिन माधव हाड़ा जायसी के ‘पद्मावत’ को इस परम्परा से विलग मानते हैं, लेकिन अगली ही पंक्ति में लिखते हैं कि उनके काव्य में अंशतः फ़ारसी, अंशतः संस्कृत और अंशतः क्षेत्रीय परम्पराओं के तत्व सम्मिलित हैं। इस आधार पर ‘पद्मावत’ को भारतीय परम्परा से जुदा करना जायसी के साथ थोड़ा अन्याय होगा। मेरी राय में उसके लेखन ने भारतीय परम्परा के दायरे का कुछ न कुछ विस्तार ही किया है। प्राचीन भारतीय साहित्य सम्पन्नता की बात निर्विवाद है। यहाँ वेदों, पुराणों एवं स्मृतियों के अतिरिक्त असंख्य हस्तलिखित ग्रन्थ, शिलालेख एवं ताड़पत्र आदि उपलब्ध हैं, जिसकी ओर लेखक ने संकेत किया है।
माधव हाड़ा इतिहास के बारे में एक स्थान पर लिखते हैं कि ‘‘भारत में इतिहास लेखन की परंपरा हमेशा दरबारी कविता से संबद्ध रही है। तथ्यों पर निर्भरता के साथ भारतीय इतिहासकारों का आग्रह उसको कविता में रचना-बाँधना भी है। वे इसीलिए तथ्यों का उल्लेख तो करते हैं लेकिन उनके विवरणों में नहीं जाते। विवरणों के स्थान को वे अक्सर अपनी कल्पना से भरते है।’’ यहाँ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि विवरणों के स्थान को कल्पना से भरने के कारण उसका साक्ष्य के रूप में इतिहास-लेखन में क्या महत्व होगा ?
आगे वे लिखते हैं मध्यकाल में शौर्य, पराक्रम और स्वामिधर्म जैसे मूल्यों को ध्यान में रखकर इतिहासकार अतीत की पुनरर्चना करते रहे हैं। निश्चित ही मध्ययुगीन समाज एवं राजनीति के साथ-साथ सैन्य जातियों के यौद्धाओं में इन मूल्यों की जड़े मजबूत करने का भी उद्देश्य होता था, लेकिन कवि इन मूल्यों के दायरे में उन शासकों को भी सम्मिलित कर लेता था जो युद्ध-भूमि त्याग कर अपने वतन लौट आते थे। युद्ध क्षेत्र त्याग कर आने की सूचना पर उसकी रानी दुर्ग के दरवाजे बन्द कर लेती थी। इसका तात्पर्य यह हुआ कि ये मूल्य मात्र मध्ययुगीन प्रचार सामग्री थे एवं अंशतः कवि-इतिहासकार के लाभ से भी सम्बद्ध हुआ करते थे।
इसके आगे माधव हाड़ा ने इतिहास की सरलीकृत परिभाषा की ओर भी संकेत किया है। वे लिखते हैं कि ‘‘सही तो यह है कि नाम संज्ञाओं और तिथियों को छोड़कर इतिहास में जो होता है, वह कमोबेश कथा जैसा ही होता है।’’ इसी को वे इतिहास और कथा की एक-दूसरे में आवाजाही मानते हैं। क्या इसका निहितार्थ यह निकाला जाए कि विभिन्न विषयों जैसे सामाजिक-आर्थिक, विज्ञान एवं तकनोलोजी आदि पर उपलब्ध स्रोतों को भी कथा की श्रेणी में रख सकते हैं?
लेखक ने भारत में कथा लेखन की स्वायत्त परम्परा की ओर संकेत करते हुए कथा रूप में इतिहास लेखन की विशिष्टता को रेखांकित किया है जो नितान्त सही निष्कर्ष है। प्राचीन से लेकर पूर्व-आधुनिक काल के इतिहास की पुनर्रचना हेतु ये कथाएं अत्यंत महत्वपूर्ण ही नहीं, बल्कि मूल स्रोत भी हैं। लेखक का कथन बिल्कुल सही है कि प्रारंभ में इतिहास और कथा की एक दूसरे में आवाजाही निरंतर एवं सघन रही है। इनको अलग करके आंकना मुश्किल एवं बेमानी हो जाता है। राजस्थानी बातें क्षेत्र के सामाजिक एवं सांस्कृतिक इतिहास लेखन हेतु सामग्री मुहैया करवाती हैं। प्राचीन कथाओं में तिथियों का अंकन नहीं मिलता है, लेकिन कतिपय राजस्थानी बातों में तिथियों का अंकन भी मिलता है जिसको इतिहास-लेखन के विकास के पड़ाव के रूप में देख सकते हैं।
लेखक ने कथा-इतिहास के 19 आनुषंगिक रूपों की ओर संकेत किया है जो उनके अनुसार इतिहास अनुशासन के रूप में विकसित हैं। इतिहास के समानार्थी शब्दों के रूप में नाराशंसी, गाथा, आख्यान एवं पुराणों के प्रयुक्त होते रहने पर भी पाठ में जोर दिया गया है, जिनका विकास मौखिक परंपराओं से हुवा प्रतीत होता है। इसी सन्दर्भ में उन्होंने नाराशंसी को भारतीय इतिहास परंपरा का प्राचीनतम रूप माना है। जिस शब्द का प्रारंभिक अर्थ नरों की स्तुति था लेकिन आगे इसके अर्थ के दायरें में विस्तार हो गया और अब ‘नरों द्वारा की गयी स्तुति’ इसमें समाहित हो गया। इस अभिधारणा के दायरे के विस्तार में शतपथ ब्राह्मण, तैतरीय आरणयक एवं याज्ञवाल्क्य की भूमिका को रेखांकित किया गया है। कौटिल्य इसके दायरे को बड़ा बनाते हुवे पुराण इतिवृत, आख्यायिका, उदाहरण, धर्मशास्त्र एवं अर्थशास्त्र की विद्याओं को भी इतिहास के अन्तर्गत ले आता है।
लेखक इतिहास की प्राचीन भारतीय पंरपरा के निर्माण एवं विस्तार में भृग्वंशियों की भूमिका को रेखांकित करता है। इस शब्द की उत्पत्ति उत्तर वैदिककाल में आंगिरस, अथर्वन एवं भृगुवंश के एकीकरण से हुई। इन तीनों वशों की सक्रियता या एकीकरण को माधव हाड़ा भारतीय इतिहास के विकास में एक उल्लेखनीय घटना मानते हैं। इसके पूर्व वैदिककाल में वशिष्ठ, विश्वामित्र एवं भारद्वाज थे जो अपने आश्रयदाताओं की प्रशस्तियों की रचना करते थे। भृग्वंगिरस समूह को इतिहास-पुराण परम्परा के विस्तार, पल्लवन ही नहीं महाभारत एवं रामायण के विकास का श्रेय भी देते हैं। इस क्षेत्र पर इस समूह का वर्चस्व उत्तर वैदिक काल के पश्चात भी बरकरार रहा।
लेखक पश्चातवर्ती काल में भृग्वंगिरसों की भूमिका में आए बदलाव की ओर संकेत करते हैं। वे अब राजाओं के आश्रय में रहकर रोजगारी हो गए एवं अब वे अपने नायकों की प्रशंसा में चरित काव्यों की रचना करने लगे। यही परम्परा आगे की सदियों में विकसित होती चली गई एवं देशज भाषाओं में रासो, ख्यात, वंशावली, पाटनामा एवं बही नाम से पहचाने जाने लगे। लेखक इन सबकों वैदिककाल से प्रचलित कथा-काव्यों से ही जोड़ते हैं। लेखन की क्रमबद्धता माधव हाड़ा की विशिष्टता है। लेखक का का भृग्वंगिरस समूह से सम्बन्धित कथन वाकई महत्त्वपूर्ण है। प्राचीन भारतीय इतिहास पर शोध करने वाले शोधार्थियों को लेखक एक प्रकार से मूल सामग्री मुहैया करवाते हैं।
माधव हाड़ा ने पद्मिनी रत्नसेन प्रकरण से सम्बन्धित स्थानीय भाषा अर्थात् देशज भाषाओं में रचित कथा-काव्यों की सुदीर्घ परम्परा की ओर भी संकेत किया है। इस परम्परा की शुरुआत 1588 ई. से होकर उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध तक दृष्टिगोचर होती है। इनमें हेमतरन (1588 ई.), जटमल नाहर (1623 ई.) एवं लब्धोदय (1649 ई.) मुख्य रचनाकार हैं, जिन्होंने इस प्रकरण को केन्द्र में रखकर रचना की है। पद्मिनी प्रकरण 1303 ई. से सम्बद्ध घटना है लेकिन इस विषय पर रचना लगभग 285 वर्ष पश्चात् होती है। यहाँ यह प्रश्न उठता है कि इतने लम्बे अर्से के मध्य क्यों नहीं इस प्रकार की रचना की गई? 1588 ई. में एक मेवाड़ी जैन अधिकारी ताराचंद के आग्रह पर जैन मुनि ने इस ग्रन्थ की रचना क्यों की? इसकी पृष्ठभूमि में तात्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों की क्या कोई भूमिका थी? इस प्रश्न का उत्तर इस ग्रन्थ से प्राप्त नहीं होता।
विद्वान् लेखक का मानना है कि पद्मिनी-रत्नसेन प्रकरण पर रचित काव्यों का स्रोत एक ही कथा बीजक पर निर्भर है। इसके अतिरिक्त उनके अनुसार यही कथा गुजरात सहित उत्तरी-पश्चिमी भारत के कुछ क्षेत्रों में प्रचलित रही है। ये कथा बीजक लोक-स्मृति में विराजित थे। इसके साथ ही उन्होंने यह अनुमान लगाने का प्रयास भी किया है कि मलिक मुहम्मद जायसी ने भी सम्भवतः इसी ‘पारंपरिक कथा बीजक’ पर ही अपने ग्रंथ की रचना की है। उनके इस कथन से यह ज्ञात नहीं होता कि 1588 ई. में हेमरतन द्वारा रचित काव्य से पूर्व इस कथा बीजक के ‘लोक स्मृति’ में अस्तित्व में होने के क्या आधार हैं? क्या इसका आधार उनका अनुमान है या सिर्फ ‘मान्य सत्य’ ? लेकिन इसका उत्तर उन्होंने ‘छिताई वार्ता’ में आए पद्मिनी प्रकरण के आधार पर देने का प्रयास किया है, जो विश्वसनीय तो प्रतीत होता है, परन्तु इस वार्ता के रचनाकाल को लेकर कई किन्तु-परन्तु इसे थोड़ा संशयात्मक अवश्य बनाते हैं।
थोड़ा विषयान्तर होने का जोख़िम लेते हुए लेखक के उस कथन को उद्घृत करना चाहूँगा जब वे कहते हैं कि ‘‘ऐसे समय में जब आवागन और संचार के साधन नहीं थे, महज 48 वर्ष की अवधि में जायस (अवध) में लिखी हुई रचना की कथा का 600-700 मील दूर राजस्थान के पाली जिले के सादड़ी कस्बे में चातुर्मास कर रहे जैन यति तक पहुँच पाना संभव नहीं लगता। लेखक के इस कथन का उद्देश्य मात्र यह बताना है कि जायसी द्वारा पद्मिनी-रत्नसेन प्रकरण आवागमन और संचार के साधनों के अविकसित होने के कारण 600-700 मील दूर स्थित सादड़ी (मेवाड़) तक पहुँचना असम्भव प्रतीत होता है। तो फिर ग्वालियर में रचित ‘छिताई वार्ता’ की कथा सादड़ी कैसे पहुँची जो लगभग 670 कि.मी. है, जबकि जायस (अमेठी से 14 कि.मी. दूर) एवं सादड़ी की दूरी लगभग 1100 कि.मी. है। लेखक जायस एवं सादड़ी की दूरी 600-700 मील बताते हैं जिसका 1500-1750 कि.मी. के लगभग होता है। मैं यहाँ सिर्फ दो बिन्दुओं की ओर संकेत करना चाहता हूँ- प्रथम, आवागमन एवं संचार के माध्यमों का अविकसित नहीं होना। इस सम्बन्ध में इब्नबबूता लिखता है-सम्पूर्ण दिल्ली साम्राज्य में राजमार्ग हैं। जहाँ निश्चित दूरी पर मीनारें एवं चार कोस के फासलें पर सराएं निर्मित हैं। लंबी दूरी की यात्रा हेतु धनी यात्री घोड़ों पर एवं निर्धन पैदल यात्रा करते थे। सरकारी एवं निजी डाक व्यवस्था थी। बड़ी संख्या में मुल्तानी, बन्जारे एवं व्यापारी अनाज एवं अन्य जिन्सों के व्यापार में संलग्न थे (तुलनीय, द केम्ब्रीज इकनोमिक हिस्ट्री ऑफ इण्डिया से तपन राय चौधरी एवं इरफ़ान हबीब, दिल्ली, 1984, पृ. 83-84) द्वितीय, फ़ारसी लिपि में अवधि भाषा में किसी सूफी संत द्वारा रचित कविता का उसके अनुयायियों में प्रचलन एवं उनके द्वारा ही उसका प्रचार-प्रसार। उसके अतिरिक्त जैन मुनि निरन्तर धार्मिक एवं चातुर्मास यात्राएं करते थे विशेषतः वे वहीं निवास करते थे जहाँ उनके अनुयायी निवास करते थे जिसकी ओर मारवाड़ के सन्दर्भ में मैंने संकेत किया है (‘दृष्टव्य, पिजेण्ट्स, आर्टिजन्स एण्ड एन्त्रप्रिन्योर्स’- जयपुर, 1991, पृ. 352-53; खरतरगच्छ का इतिहास सं. महोपाध्याय विनय सागर, अजमेर, 1959, भाग 1, इस ग्रंथ में जैन मुनियों की यात्राओं का वर्णन मिलता है)। इस तथ्य के आधार पर यह सम्भावना व्यक्त की जा सकती है कि पद्मिनी से सम्बन्धित कथा जैन मुनियों एवं सूफ़ी अनुयायियों के द्वारा ग्वालियर एवं राजस्थान पहुँची होगी।
माधव हाड़ा की इस बात से किसी को भी असहमति नहीं होगी कि ‘इतिहास की इस घटना का या प्रकरण का कथा पल्लवन और विस्तार पारंपरिक देशज कथा-काव्यों में’ हुआ है, लेकिन निश्चित ही 1588 ई. में हेमरतन एवं अज्ञात कवि की रचनाओं के पश्चात् ही ऐसा सम्भव हुवा है, उस समय से पूर्व निश्चित नहीं। जब तक इस काल से पूर्व की रचना उपलब्ध नहीं हो जाती तब तक अंतिम रूप से कुछ भी कह पाना मुश्किल है।
किसी ऐतिहासिक कथा को अगर ‘मिथ’ कहा जाता है तो उसके पीछे निश्चित आधार होता है न कि किसी प्रकार के झूठ को प्रचारित करने का उद्देश्य होता है। जब तक किसी भी ऐतिहासिक कथा-काव्य में वर्णित किसी प्रकरण की किन्हीं समकालीन स्रोतों से पुष्टि नहीं हो जाती तब तक वह साक्ष्य संशय के घेरे में रहता है। किसी भी कथा में वर्णित घटना के ‘लोकप्रिय’ एवं ‘मान्य’ हो जाने से वह ऐतिहासिक सत्य नहीं हो जाती। हालांकि लेखक ने अमीर ख़ुसरो द्वारा लिखित ‘खजाइन-उल-फुतुह’ में आए सांकेतिक उल्लेख का पद्मिनी अलाउद्दीन से जोड़ने का प्रयास अधिक विश्वसनीय प्रतीत नहीं होता। इतिहास में प्रत्यक्ष एवं दस्तावेजों का आग्रह उसका आधार है न कि दुराग्रह। लेखक ने अन्त में पृ. 160 पर लिखा है कि-‘‘भारतीय ऐतिहासिक कथा-काव्य परंपरा के अनुसार ये रचनाएं सीधे यथार्थ नहीं, यथार्थ का प्रतिबिंबन हैं। यह यथार्थ कवि-कथाकार का अपना देखा गया यथार्थ है।’’ क्या हेमरतन द्वारा रचित ग्रन्थ उसके द्वारा देखा गया यथार्थ है? इस सम्बन्ध में अधिक स्पष्टता अपेक्षित है।
लेखक ने मेवाड़ में प्रचलित प्रशासनिक व्यवस्था एवं सामंतवाद पर विस्तार से चर्चा की है। इसी सम्बन्ध में उन्होंने लिखा कि मेवाड़ में ब्राह्मणों एवं मंदिरों को दिया जाने वाला भूमिदान स्थाई नहीं होता था, जो सही प्रतीत नहीं होता। उनको दी जाने वाले भूमि को परवाने में ही यह शर्त होती थी कि दान प्राप्तकर्त्ता के बेटे-पोते उसका उपभोग करेंगे एवं उसको कोई जब्त नहीं कर सकेगा। मेवाड़ में जो भूमि महाराणा प्रताप द्वारा ब्राह्मणों को प्रदान की गई थी उसको 1951 ई. में प्रकाशित ‘मेवाड़ एटलस’ में धार्मिक अनुदान के रूप में दर्शाया गया है। मारवाड़ के सन्दर्भ में इसी बात को मैंने अपने ग्रन्थ (पूर्वोक्त) में रेखांकित किया है।
माधव हाड़ा द्वारा लिखित इस ग्रन्थ में ऐसी बहुत सी बातें हैं, जिन पर लंबी चर्चा की जा सकती है या लिखा जा सकता है, लेकिन एक बात यहाँ स्वीकार करने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए वह यह कि उन्होंने बड़े मनोयोग एवं पूर्ण गंभीरता से इस ग्रन्थ की रचना की है। इस ग्रन्थ में उन्होंने यह प्रमाणित करने का भरपूर प्रयास किया है कि पद्मिनी-रत्नसेन प्रकरण हेमरतन एवं अन्य कवियों द्वारा रचित कथा-काव्य भारतीय प्राचीन साहित्य की परम्परा का ही एक अंग है या उसका विस्तार है। यहाँ के कथा-काव्यकारों ने जायसी कृत ‘पद्मावत’ से कुछ भी ग्रहण नहीं किया है। उनको अपने इस उद्देश्य में पूर्ण सफलता मिली है, जिसके लिए वे साधुवाद के पात्र हैं। उनकी विद्वता की जितनी प्रशंसा की जाए उतना ही कम है। लेकिन यहाँ एक बात की ओर संकेत करना आवश्यक है कि इस प्रकरण से सम्बन्धित सभी स्रोतों में भिन्न-भिन्न कथाएँ हैं, जो काल्पनिकता का अहसास कराती हैं। एक बात जो तथ्यात्मक है वह है अलाउद्दीन का चित्तौड़ पर आक्रमण जिसकी पुष्टि फ़ारसी स्रोतों से भी होती है, शेष वर्णन विश्वास पैदा करने में कारगर साबित नहीं होता।
पुस्तक का मुद्रण अत्यंत आकर्षक है। कवर साज-सज्जा विषयानुकुल है। भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला इस उच्च स्तरीय प्रकाशन के लिए साधुवाद का पात्र है। इस पुस्तक के प्रकाशन से अकादमिक जगत में विचार-विमर्श की शुरुआत होगी जो अच्छा संकेत हैं। ग्रन्थ में एक कमी खटकने वाली है वह है अध्याय तृतीय एवं उपसंहार में कुछ पाद टिप्पणियां प्रकाशन से रह गई हैं जो प्रवाह में बाधक बनती हैं।
समीक्ष्य पुस्तक: ‘पद्मिनी: इतिहास और कथा-काव्य की जुगलबंदी’, माधव हाडा भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, राष्ट्रपति निवास, शिमला, 2023, पृष्ठ 700, मूल्य: रुपये 1395
(अलीगढ़ विश्वविद्यालय सेवानिवृत्त प्रो बी एल भादानी प्रसिद्ध इतिहासकार हैं।)
संपर्क: मेल: dcbhindi1963@gmail.com , मोबाइल: 99950678920



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