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सिद्ध और नाथ साहित्य ने समाज की आलोचना का साहस दिया। माधव हाड़ा

  • Writer: Madhav Hada
    Madhav Hada
  • Jul 11
  • 6 min read
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परचर्चा। संयोजक: आदित्यकुमार गिरि । वागर्थ । जुलाई, 2025

सवाल

  1. सिद्धों और नाथों के साहित्य से हिंदी साहित्य का आरंभ माना जाता है। क्या हिंदी की शुरुआत प्रतिवाद से हुई थी?

  2. सिद्धों और नाथों की मुख्य स्थापनाओं और उनकी विशिष्टताओं के बारे में कुछ बताएं। उनका परंपराओं के बारे में क्या रुख था?

  3. सिद्धों और नाथों का लोक से कैसा संबंध था? वे इस देश में एक वैकल्पिक समाज का निर्माण किस हद तक कर सके थे? वे कहां और क्यों असफल हुए?

  4. नाथ पंथ और गोरखनाथ की परंपरा का मूल जातिवाद और पाखंड का विरोध था, फिर हिंदी क्षेत्र जातिवाद और कर्मकांड का इतना बड़ा गढ़ कैसे हो गया?

  5. सिद्ध और नाथ साहित्य से भक्ति आंदोलन ने कुछ बिंदुओं पर दूरी रखते हुए भी कौन-सी प्रेरणा ली?

  6. आज सिद्ध-नाथ साहित्य का क्या महत्व है?

 उत्तर


(1) सिद्धों और नाथों से हिंदी साहित्य के आरंभ की धारणा हिंदी में प्रचलित है, लेकिन इसपर पुनर्विचार की ज़रूरत है। संस्कृत के समानांतर देशभाषाओं का अस्तित्व हमेशा रहा है। संस्कृत जब अपने उत्कर्ष पर थी, तब भी देशभाषाएं और उनके साहित्य की परंपराएं थीं। सभी देशभाषाएं संस्कृत से पैदा हुईं, यह धारणा भी सही नहीं है। देशभाषाओं का अस्तित्व जिनमें हिंदी और उसके कई पूर्वरूप सम्मिलित हैं, वे संस्कृत से भी पहले से है । सिद्धों-नाथों ने इनका इस्तेमाल किया।


हिंदी में जिसे प्रतिवाद या प्रतिरोध कहा जाता है, उसमें असाधारण कुछ भी नहीं है। किसी भी स्वस्थ और जीवंत समाज में यह बहुत स्वाभाविक ढंग से निरंतर घटित होता है। किसी स्वस्थ समाज में केवल प्रतिरोध नहीं होता उसमें समाहार, पृथक्करण और आत्मसातीकरण की प्रक्रियाएं भी चलती रहती हैं। इधर हिंदी में नया चलन शुरू हुआ है। हम अपनी परंपराओं में केवल प्रतिरोध ढूंढ़ रहे हैं, जबकि उसको समाहार, पृथक्करण और आत्मसातीकरण की प्रक्रियाओं के साथ ही समझा जाना चाहिए।

सिद्धों-नाथों के यहां प्रतिरोध दिखता है, लेकिन सर्वथा ऐसा नहीं है। बौद्ध धर्म भी कई रूपों में हमारी धार्मिक परंपराओं में मौजूद है। कुछ विद्वानों का मानना है कि शंकराचार्य का अद्वैत दर्शन बौद्ध और ब्राह्मण दर्शनों के बीच तालमेल बिठाने का प्रयास था। राहुल सांस्कृत्यायन के अनुसार शंकराचार्य असंग के योगाचार दर्शन को नई बोतल में पुरानी शराब डालने की उक्ति के अनुसार एक नया रूप दे रहे थे। इसीलिए  शंकराचार्य को ‘प्रच्छन बौद्ध’ भी कहा जाता है।


बौद्ध और सिद्ध-नाथों की परंपराएं खत्म नहीं हुईं। ये कहीं स्वतंत्र, तो कहीं वैष्णव और अन्य स्थानीय परंपराओं के साथ अंतःक्रियाओं से आगे बढ़ीं। यहां तक कि लोकायतों की परंपरा के कई अवशेष उन्नीसवीं सदी में बंगाल की बाउल और कुछ अन्य परंपराओं में मिलते हैं। बौद्ध परंपराएं उड़ीसा के उन पंचसखाओं के यहां भी हैं, जहां वे वैष्णव परंपराओं के साथ अंतःक्रियाओं द्वारा रूपांतरित होकर मौजूद हैं। गोरखनाथ (ईसा की 10वीं सदी), कबीर और दादू की परंपराओं ने आगे चलकर इस्लाम, सूफी और वैष्णव परंपराओं के साथ अंतःक्रिया के बाद नए रूप धारण किए, जिससे सिख, बिश्नोई, जसनाथी, लालदासी, निरंजनी, बाबालाली, सीतारामीय, धामी, सत्तनामी, दरियादासी आदि नए संप्रदाय अस्तित्व में आए।


(2) सिद्धों और नाथों का काल बौद्ध धर्म के ह्रास और शैवधर्म के उदय का था। इसलिए उनके दर्शन और साधना का संबंध इन दोनों से है। वे अपने दार्शनिक मत में वेदांत के निकट हैं। उन्होंने भी अद्वैतवाद का प्रतिपादन किया, लेकिन उनके मार्ग और साधना पद्धतियां अलग हैं। वेदांत का जोर ज्ञान, मतलब आत्मचिंतन और तत्व-विचार पर है, जबकि सिद्धों-नाथों का आग्रह काया साधना पर है। वे इंद्रियों को अपने अधीन कर समाधि के मार्ग से अद्वैत स्थिति प्राप्त करने का आग्रह करते हैं। उन्होंने अपनी साधना को हठयोग कहा है।

उनका मानना है कि शरीर के नौ द्वारों को बंद करके वायु के आने-जाने का मार्ग यदि अवरुद्ध कर लिया जाए, तो उसका व्यापार 64 संधियों में होने लगेगा। इससे निश्चय ही कायाकल्प होगा और साधक एक ऐसे सिद्ध में परिणत हो जाएगा, जिसकी छाया नहीं पड़ती।


गोरखनाथ ने साधना के उत्कर्ष पर पहुंच जाने पर अनाहत नाद सुनाई पड़ने की बात कही है जो अद्वैत या ब्रह्मानुभूति की स्थिति है। वे कहते हैं कि साधना द्वारा ब्रह्मरंध्र में पहुंच जाने पर अनाहत नाद सुनाई पड़ता है, जो समस्त सार तत्वों का सार है और गंभीर है। इससे ब्रह्मानुभूति की स्थिति उपलब्ध होती है, जिसे स्वसंवेद्य होने के कारण शब्दों में कोई व्यक्त नहीं कर सकता। गोरखनाथ ने साधना के साथ अजपाजाप और ब्रह्मज्ञान को महत्व दिया। वे कहते हैं कि मन लगाकर ‘सोहं’ का जाप करने से धीरे-धीरे अभ्यास से ब्रह्मज्ञान अपने आप होने लगता है।


(3) गोरखनाथ (नवीं सदी) बुद्ध, महावीर और शंकराचार्य की तरह ही भारतीय जनसाधारण को बहुत दूर तक प्रभावित करनेवाले संत, दार्शनिक और साधक थे। उनका प्रभाव इतना गहरा और व्यापक है कि उनकी स्मृति आज भी कई रूपों में मौजूद है। उन्होंने शैव दर्शन के साथ कायासाधना को मिलाकर एक नए पंथ का प्रवर्तन किया, जिसे नाथपंथ कहा जाता है। कौलज्ञानी मत्स्येंद्रनाथ या मछंदरनाथ इनके गुरु थे। मत्स्येंद्रनाथ ही नाथ परंपरा के सबसे प्रथम आचार्य हैं। वे जालंधरपाद के गुरुभाई थे, जिनका सिद्ध परंपरा में बड़ा ऊंचा स्थान है- उन्हें हाड़िपा भी कहा जाता है।


यह उक्ति प्रसिद्ध है कि ‘जाग मछंदर गोरख आया।’ कहा जाता है कि मत्स्येंद्रनाथ एक बार असम के किसी कदली प्रदेश या ‘त्रिया-देश’ में जाकर ‘परकायाप्रवेश’ के सिद्धिबल से ऐहिक भोग-विलास में लिप्त हो गए थे। शिष्य गोरखनाथ ने वहीं जाकर, इन्हें सचेत कर भोग के बंधन से मुक्त करवाया। हजारीप्रसाद द्विवेदी का यह कहना सही है कि शंकराचार्य के बाद इतना प्रभावशाली और इतना महिमान्वित महापुरुष भारतवर्ष में दूसरा नहीं हुआ। भक्ति आंदोलन के पूर्व सबसे शक्तिशाली धार्मिक आंदोलन में गोरखनाथ का योगमार्ग ही था।

वैकल्पिक समाज का अस्तित्व किसी सामान्य समाज से बिलकुल अलग-थलग नहीं होता। यह उसी में, उसका हिस्सा होता है। यदि यह मान लिया जाए तो कहना चाहिए, सिद्ध-नाथ इसमें सफल हुए। उन्होंने लोगों को सहज जीवन की राह दिखाई। कई लोगों ने उनके अनुसार अपने जीवन को नए रूप में ढाला। सिद्धों-नाथों की पहल पर नए संप्रदाय और जातियां बनीं, जिनमें कोई ब्राह्मण हस्तक्षेप नहीं था। मनुष्य की मुक्ति के लिए मुहिम किसी ने भी चलाई हो, यह कभी असफल और खत्म नहीं होती। यह आनेवाली पीढ़ियों के संस्कार-स्मृति में जीवित रहती है और जरूरत पड़ने पर पुनर्नवा होकर फिर चल निकलती है।


(4) जातिवाद और पाखंड का विरोध भारतीय भक्ति चेतना के सभी रूपों में मिलता है। भक्ति चेतना के अधिकांश रूपों में ईश्वर के सम्मुख सभी मनुष्यों को बराबर माना गया है। भक्ति को प्रपत्ति का रूप देने में रामानुजाचार्य का योगदान कम नहीं है। बाद में रामानंद ने जातिवाद और पाखंड का विरोध किया।

यह बात नहीं है कि बौद्धों, सिद्धों-नाथों और संत-भक्तों के प्रयास निष्फल हुए। जातिवाद की जकड़बंदी पहले की तुलना में कम हुई है और पाखंड के प्रति भी समाज का नजरिया बदला है।  इसमें सिद्धों-नाथों और संत-भक्तों की बड़ी भूमिका है। यह समझने की जरूरत है कि जनसाधारण के लिए भक्ति का व्यक्त रूप कर्मकांड भी है। इसलिए विरोध के बावजूद यह लौटकर हर बार फिर प्रमुख हो जाता है। यह इतना जरूरी हो जाता है कि इसका विरोध करनेवाले भी अंततः इसको अपना लेते हैं। जब यह जड़ होकर सहज जीवन में बाधा बनता है, तो फिर इसका विरोध और उन्मूलन होता है। दो-तीन शताब्दियों के विस्तार में जाएं, तो यह किसी समाज में चलने वाली एक स्वाभाविक प्रक्रिया है।


कोई समाज किसी समय में केवल अच्छा या केवल खराब समाज नहीं होता है। यह अच्छा और बुरा, एकसाथ होता है। बुरे के विरुद्ध हर समय समाज में प्रतिक्रिया करने वाली ताकतें रहती हैं। हमारे समय और समाज में जातिवाद और पाखंड को राजनीति के नए रूपों ने भी काफी खाद-पानी दिया है।


(5) भारतीय भक्ति चेतना के लिए ‘आंदोलन’ शब्द का प्रयोग सही नहीं है। पंद्रहवीं-सोलहवीं सदियों में उत्तर भारत में भक्ति चेतना में आई त्वरा को आंदोलन कहा जाता है, लेकिन भारत में भक्ति की चेतना प्राग्वैदिक से काल से निरंतर है- इसमें कभी कोई व्यवधान नहीं आया।

आंदोलन औपनिवेशिक ज्ञान मीमांसा का दिया शब्द है। भक्ति चेतना को केवल उत्तर भारत तक सीमित करना भी गलत है। इसकी व्याप्ति देश के दक्षिण, उत्तर-पूर्व, कश्मीर आदि सभी क्षेत्रों में  है। सिद्ध-नाथ साहित्य भी इस व्यापक भक्ति चेतना का हिस्सा है।


पंद्रहवीं-सोलहवीं सदी की उत्तर भारतीय भक्ति चेतना के विभिन्न रूपों और प्रवृत्तियों के अधिकांश प्रस्थान सिद्ध और नाथ साहित्य में हैं। गोरखनाथ, नामदेव, पीपा, कबीर, रैदास, दरिया साहिब, मलूकदास आदि इस परंपरा में हैं। इनको अलग करके नहीं समझा जा सकता।

उड़ीसा में पंचसखाओं के संत काव्य में सिद्ध-नाथ और वैष्णव परंपराएं एकसाथ हैं। यही हाल मराठी के नामदेव, ज्ञानदेव, मुक्ताबाई, तुकाराम आदि का भी है। उनके यहां सिद्ध-नाथ परंपराओं के साथ वैष्णव परंपराएं घुल-मिल गई हैं। गोरखनाथ ने भारतीय भक्ति चेतना के अधिकांश रूपों को बहुत दूर तक प्रभावित किया है।


(6) अपनी सांस्कृतिक विरासत और परंपरा को उपयोगिता की निगाह से नहीं देखा जाना चाहिए। सिद्ध और नाथ अपने समय और समाज की ऐतिहासिक जरूरत थे। यह साफ दिखता नहीं है, लेकिन हमारी चेतना और स्मृति में उसके संस्कार अब भी हैं। यह अमूर्तन नहीं है, सच्चाई है कि अतीत पीढ़ी-दर-पीढ़ी, किसी-न-किसी तरह हमारे भीतर जीवित रहता है। सिद्ध और नाथ साहित्य ने सहज जीवन की पहल की। इसकी जरूरत हर समय और समाज को रहती है। सिद्ध और नाथ साहित्य ने तमाम अवरोधों और अंतर्बाधाओं के बीच समाज की आलोचना का साहस दिया और इसकी भाषा ईजाद की। आज भी उसकी जरूरत कम नहीं हुई है।

 
 
 

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