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'ढोला मारू रा दूहा' की मारवणी

  • Writer: Madhav Hada
    Madhav Hada
  • Aug 11
  • 24 min read
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पुतली ने आकाश चुराया । राजपाल एंड संज़, दिल्ली । 2024 '


‘ढाला-मारू रा दूहा’ राजस्थान का लोकप्रिय प्रेमाख्यान है। यह आख्यान दूहों के रूप सदियों से लोक के श्रुत और स्मृत में था। लोक में इस संबंध में यह प्रसिद्ध भी है कि- “सोरठियो दूहो भलो, भलि मरवण री बात। / जोबन छाई धण भली, ताराँ छाइ रात॥” अर्थात् दोहों में सोरठिया दोहा उत्तम है, वार्ताओं में ढोला-मारवणी की वार्ता अच्छी है, यौवन से पूर्ण स्त्री श्रेष्ठ होती है और रात तारों से भरी ही हुई अच्छी होती है। पहली बार जैसलमेर के रावल हरिराज ने अपने अश्रित जैन कवि कुशललाभ से 1561 ई. (संवत् 1618)  इन दोहों को एकत्र करवाकर इनको एक सुनियोजित कथा में ढलवाया। कुशललाभ ने बीच-बीच में चौपाई का बंध लगाकर इन दूहों को व्यवस्थित कर दिया। उसने लिखा कि- “दूहा घणा पुराणा अछइ। चउपइ बंध कियो में पछइ॥” अर्थात् दूहे बहुत पुराने हैं। मैंने बाद इसमें चौपाई का बंध लगाया है। रचना के एकाधिक पाठांतर मिलते हैं- इनमें से मूल के आसपास दो पाठांतर माने जाते हैं। पाठांतर एक वह है, जिसमें केवल दूहे हैं और इसे सर्वाधिक प्रामाणिक माना जाता है। दूसरे पाठांतर में दूहे  कुशललाभ की चौपाइयों के साथ हैं। विद्वान् इसको भी प्रामाणिक मानते हैं। यह रचना कब हुई और किसकी है, इस संबंध में कोई बहुत मान्य साक्ष्य नहीं मिलता। दूसरे पाठांतर की प्रस्तावना की पंक्ति “गाहा गूढ़ा गीत गुण कवित कथा कल्लोल” में आए ‘कल्लोल’ शब्द  के आधार कुछ विद्वान् इसको किसी कल्लोल की रचना मानते हैं, लेकिन अधिकांश विद्वान् इससे सहमत नहीं हैं। उनका मानना है कि प्रस्तावनावाला हिस्सा मूल से अलग है और बाद का  प्रक्षिप्त है। रचना का समय भी ज्ञात नहीं है। रचना के पाठ संपादकत्रय- रामसिंह, सूर्यकरण पारीक और नरोत्तम स्वामी ने नरवर में कछवाहों के शासन के समय 1119 ई. (संवत् 1176)  के आधार पर ढोला का समय 943 ई. (संवत् 1000) के आसपास मानकर अनुमान लगया है कि “यही इसके रचनाकाल की रचना की ऊपरी सीमा है।” इतिहासकार गौरीशंकर ओझा ने कुशललाभ के पद ‘घणा पुराणा’ के आधारपर अनुमान लगया है कि इस आख्यान की रचना 1443 ई. (संवत् 1500) के आसपास हुई होगी। 


आख्यान में कुछ हद तक इतिहास की एक अंतर्धारा भी है। रचना में ढोला और मारवणी की प्रेमकथा है। ढोला कछवाहा वंश के राजा नल पुत्र था और मारवणी पूगल के राजा पिंगल की कन्या थी। “दोनों का विवाह ऐतिहासिक घटना है।” राजस्थान के मध्याकालीन इतिहासकार और सांख्यिकीविद् मुँहता नैणसी ने अपनी ख्यात में यह उल्लेख किया है कि ढोला की मारवणी और मालवणी नामक दो स्त्रियाँ थीं। कछवाहा की वंश की ख्यातों में राला नल और ढोला का वृत्तांत मिलता है, इसलिए यह निश्चित है कि ढोला कछवाहावंशीय राजपूत था। कुछ बाद के पाठांतरों में आयी पंक्ति “धण भटियाणी मारवी, प्रिय ढोलउ चहुआण” के आधार ढोला को चौहान और मारवणी को भाटी माना भी गया है। कुशललाभ ने उल्लेख किया है कि मारवणी का पिता पिंगल परमारवंशी था। संपादकत्रय ने भी माना है कि उस समय पूगल में परमारों का शासन था। उनके अनुसार परमारों का राज्य आबू के पास चंद्रावती में था, जिसकी एक शाखा पूगल तक पहुँची। मालवणी के संबंध में स्पष्ट ऐतिहासिक संकेत नहीं मिलता। कुशललाभ ने उसके पिता का नाम भीम लिखा है, लेकिन इस तरह का कोई शासक मालवा में नहीं हुआ। मालवणी संभवतया किसी उपसामंत की बेटी रही होगी। उमरा सूमरा नाम के 1143- 1243 ई. (संवत् 1200-1300) के बीच दो शासक हुए, लेकिन इनका समय ढोला के समय से नहीं मिलता। मारवणी की माता के नाम के रूप में उमा देवड़ी नाम आया है, लेकिन यह पहले रूपांतर में नहीं है। स्पष्ट है कि आरंभ में इस आख्यान की आधार इतिहास भी रहा होगा, लेकिन समय के साथ इसमें कथा विस्तार और बदलाव हुए। यह भारतीय कथा-आख्यान परंपरा की विशेषता भी है। गौरीशंकर ओझा का भी मानना है कि इस आख्यान का “नायक ऐतिहासिक है, परंतु घटनाओं और वर्णनों मे कल्पना का पुट है, जो बहुत स्वाभाविक है।”   


‘ढाला-मारू रा दूहा’ की कथा बहुत सामान्य, लेकिन सरस है। कथा जटिल नहीं है और इसमें मोड़ पड़ाव भी सीमित हैं। यह राजस्थान और उसमें भी ख़ासतौर पर पश्चिमी राजस्थान की लोक संस्कृति का जीवंत दस्तावेज़ है। यहाँ की स्थानिकता इसमें स्पष्ट और मुखर ढंग से उभरकर समाने आती हैं यहाँ की ऋतुएँ, वनस्पतियाँ,पशु-पक्षी आदि इसमें बहुत जीवंत हैं। भारतीय लोक आख्यानों की सभी विशेषताएँ इसमें हैं। वातावरण और कथा में कुछ भी कृत्रिम और अतिरंजित नहीं है। संपादकत्रय ने इसकी कई उपलब्ध प्रतियों को अपने संपादन के लिए आधार बनाया। उपलब्ध सभी प्रतियों में अलग-अलग 400 के आसपास दूहे थे। संपादकों ने इनमें 674 दूहों का चयन कर इनको इसके मूल पाठ में सम्मिलित किया। यह रचना पहली बार 1931 ई. में नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी से प्रकाशित हुई। 

1.

किसी समय पूगल देश में पिंगल और नरवर देश में नल नाम के राजा राज्य करते थे। पूगल में अकाल पड़ा, तो राजा पिंगल ने सपारिवर नरवर की ओर प्रस्थान किया। राजा नल ने राजा पिंगल का अपने देश में स्वागत किया और उसने उसके लिए महल, घोड़े और नौकर-चाकर आदि का प्रबंध किया। नरवर के राजा का साल्हकुमार ढोला नाम का रूप में अनुपम राजकुमार था। पिंगल की रानी इस राजकुमार ढोला के रूप और सौंदर्य पर मुग्ध हो गयी। उसने अपनी पुत्री राजकुमारी मारवाणी का विवाह उससे करने का निश्चय कर लिया। यह बात उसने राजा पिंगल को बतायी। राजा ने उससे कहा कि- “सोच-विचार कर ऐसा निर्णय करो। अभी हम विपत्ति में हैं और यदि इस समय अपनी बेटी देंगे, तो लोग हँसेंगे। रानी अड़ गयी- उसने कहा कि- “वर-वधू की यह जोड़ी श्रेष्ठ है और ऐसा लगता है कि दोनों एक-दूसरे के लिए ही बने हैं, इसलिए दोनों का विवाह कर देना चाहिए।” राजा ने आज्ञा दे दी। उसने रानी से कहा कि- “जैसा तुम ठीक समझो, वैसा ही करो।” ढोला और मारवाणी का विवाह हुआ- दोनों ही पक्षों में हर्ष-उल्लास और उत्सव हुए। पूगल की पद्मिनी और नरवर के ढोला का यह विवाह बहुत उत्तम और श्रेष्ठ था। पूगल में सुकाल हुआ, तो राजा पिंगल वापस आ गया। मारवणी अभी बालिका थी, इसलिए उसको ससुराल में रखने के बजाय वह अपने साथ ले आया।


मारवणी धीरे-धीरे यौवना हो गयी और उस पर उसके मन का पूरा अधिकार हो गया। उसकी चाल हंस जैसी, जँघाएँ कदलीवत्,  कमर सिंह के समान, कुच श्रीफल सदृश और कंठ वीणा के समान हो गया। एक दिन वह सोयी हुई थी कि उसके सपने में ढोला आया। वह जागकर निःस्वास भरने लगी। प्रेम में मुग्ध वह ऊँची चढ़कर चातक के समान ढोला की प्रतीक्षा करने लगी। उत्तर दिशा से बादल घिर आए, तो प्रियतम का स्मरण कर उसकी आँखों में आँसू आ गए। सखियों ने उससे पूछा कि- “जिस प्रियतम को तूने नहीं देखा, उसके लिए इतनी आकुल-व्याकुल क्यों हो” तो मारवणी ने उत्तर दिया कि- “वह उससे प्रेम करती है। प्रियतम समुद्र पार हो तो भी हृदय में बसता है।” उसने कहा कि- “मैंने उसको नहीं देखा, लेकिन मेरा हृदय उसको एक क्षण के लिए भी विस्मरण नहीं करता।” वह आषाढ़ के पपीहे की तरह विलाप करने लगी। उसने सखियों से कहा कि‌- “प्रिय परदेश में है, मेरे शरीर का ताप नहीं जाता।” उसने पपीहे से कहा कि वह पहाड़ी या सरोवर की पाल पर चढ़कर बोले, तो शायद उसकी व्यथामय वाणी सुनकर प्रियतम को उसका स्मरण हो आए।” पपीहे की वाणी विरह में उसको कष्टकर लगने लगी। उसने उसे संबोधित करते हुए कहा कि- “हे लाल पंख वाले पपीहे! तू नमक लगाकर मुझे काट रहा है। प्रियतम मेरे हैं और मैं प्रियतम की हूँ,  तू बीच ‘पीउ’ ‘पीउ’ करने वाला कौन है? ” वर्षा ऋतु आ गयी- मारवणी का कष्ट और बढ़ गया। वह सोचने लगी कि बादल तो केवल वर्षा ऋतु में बरसते हैं, लेकिन उसके नेत्रों से तो हमेशा आँसू बहते रहते हैं। उसने सोचा कि बादलों में बिजलियाँ चमक रही हैं। वह बाँहें पसारकर अपने प्रियतम से कब मिलेगी? प्रियतम से मिलने के मार्ग में आने वाली बाधाओं के संबंध में विचार कर वह सोचने लगी कि मार्ग में पर्वत है, प्रियतम का घर दूर है, लेकिन मन उसके लिए लालायित रहता है। कुरजाँ को आया हुआ देखकर मारवाणी और विचलित हो गयी। उसने कुरजाँ से कहा कि- “तुम मुझे अपने पंख दे दो,  मैं तुम्हारा बाना पहनकर समुद्र भी लाँघते हुए प्रियतम से मिलूँगी।” उसने कोए से कहा कि- “तुम यदि मुझे प्रियतम से मिला दो, तो मैं तुम्हें बधाइयाँ दूँगी और अपना हृदय निकालकर तुम्हे उसका भोजन करवाऊँगी।” सखियों को जब राजकुमारी की यह दशा ज्ञात हुई, तो उन्होंने रानी से कहा कि- “ढोला रूपी सूर्य के वियोग में मारवणी रूपी पद्मिनी कुम्हला गयी है। उसके शरीर का ताप ही नहीं जाता, उसके रोम-रोम में ढोला का विरह छा गया है।” मारवणी की माँ रानी उमा देवड़ी मारवणी की यह दशा जानकर दूसरे दिन सुबह राजा पिंगल के पास गयी और उसको सब हाल बताया। राजा चिंतित हुआ। वह साँढ़नी सवारों के भेजकर ढोला को बुलाने का यत्न करता तो था,  लेकिन उनमें से लौटकर कोई नहीं आता था।

2.

एक दिन एक घोड़ों का सौदागर पूगल आया और उसने राजा पिंगल से भेंट की। राजा ने उसका आदर-सत्कार किया और दरबार में बुलाया। एक दिन सौदागर और राजा महल में बैठे हुए थे कि सौदागर को झरोखे में अपूर्व सुंदरी मारवणी दिखायी पड़ीं। सौदागर को मारवणी देखकर ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे संध्या के समय बिजली चमकी हो। सौदागर ने खवास (सेवक) का मन लेकर उससे मारवणी के संबंध में पूछा। खवास ने उसे बताया कि मारवणी पिंगल की कन्या है और बाल्यकाल में उसका विवाह नरवर के राजा नल के पुत्र साल्हकुमार ढोला से हुआ है। सौदागर ने यह जानकर एकांत में राजा से निवेदन किया कि साल्हकुमार का रूप अनुपम है और वह याचकों को लाखों का दान देता है। मालवगढ़ के राजा की अपूर्व सुंदरी पुत्री मालवणी उसकी पत्नी है। उसने राजा को बताया कि जो संदेश वे भेजते हैं, उसकी सूचना ढोला को नहीं होती। मालवणी संदेश ले जाने वालों को मार्ग में ही मरवा देती है। राजा चिंतित हुआ और उसने परामर्श के बाद पुरोहित बुलाकर कहा कि वह पूगल जाकर ढोला को लेकर आए। रानी ने राजा के प्रस्ताव पर कहा कि पुरोहित की जगह याचकों को भेजना चाहिए, जो राजकुमार ढोला को प्रसन्न कर लेंगे। राजा ने अपने याचक ढाढ़ियों को बुलवाया, जो संगीत के भी जानकार थे। राजा ने उनसे कहा कि वे नरवर जाएँ और ढोला को प्रसन्न कर अपने ले आएँ। ढाढ़ी राजा से विदा लेकर अपने घर आए। मारवणी को जब यह पता लगा, तो ढोला को अपना संदेश देने के लिए उसने सखी को भेजकर ढाढ़ियों को अपने पास बुलवाया। मारवणी ने उनको विस्तार से अपना संदेश दिया और कहा कि- “जैसे मैं कह रही हूँ, वैसे ही तुम ढोला जाकर मेरा संदेश देना।” 


मारवणी ने ढाढ़ियों से कहा कि- “नरवर देश बड़ा सुहावना है। हे पथिक! तुम मेरा संदेश ढोला को देना। उससे कहना कि मेरे शरीर का केवल अस्थि पंजर रह गया है- अब इसमें केवल तुम्हारी लौ लगी हुई है। उसने कहा कि- “मेरी आँख रूपी सीपियाँ विकसित हो गयी हैं और तुम आकर उनमें स्वाति नक्षत्र की वर्षा करो।” उसने ढाढ़ियों से कहा कि- “फ़सल हो गयी, अन्न पक गया है। अब भोग लेने के लिए उसे घर जाना चाहिए। मैं कनेर की टहनी की तरह तुम्हारी याद में सूख गयी हूँ। तुमने मुझे विस्मृत कर दिया है, लेकिन पता लगा है कि चोल वर्ण के वस्त्रोंवाली दूसरी स्त्री से विवाह कर तुम उसको घर ले आए हो।” उसने ढाढ़ियों से कहा कि ढोला से कहना कि वह बसंत ऋतु के फाल्गुन माह में भी नहीं आया, तो वह चर्चरी नृत्य के बहाने होली में कूद पड़ेगी। उसने आगे कहा कि यदि वह कज्जलिया तीज पर नहीं आया, तो वह बिजली को चमकता हुआ देखकर मर जाएगी। हे नागर चतुर सुजान! शीघ्र आना तुम्हारे बिना यह तुम्हारी प्रेयसी बिना प्रत्यंचा की कमान के तरह बिलखती फिरती है। कल रात मैं रात भर रोय,  जिसे गुरुजनों ने भी सुना। रोने से भीग़ गयी साड़ी को निचोड़ते-निचोड़ते मेरी हथेलियों में छाले पड़ गये।” उसके हाथ में पत्र था, उसकी देह आकुल-व्याकुल थी और वह अपने अँगूठे से ज़मीन कुरेद रही थी। उसने ढाढ़ियों को ढोला के लिए भेजे संदेश में कहा कि- “हे ढोला! न तुम मिलोगे और न मैं तुम्हारा विस्मरण करूँगी, न तुम आओगे और न मुझे ले जाओगे। फिर भी मैं कोआ उड़ाकर तुम्हारी प्रतीक्षा करती रहूँगी। हे प्रियतम! यह मेरे प्रेम की अवर्णनीय कहानी है- मैं इसको कैसे कहूँ। केवल गूँगे के सपने की तरह स्मरण करके पश्चाताप करती हूँ। हे प्रियतम! तुम मेरे हृदय में हो और तुम्हारे जल जाने के भय से मैं गर्म भात नहीं खाती। हे प्रियतम! तुम्हारे और मेरे बीच बहुत दूरी और कई बाधाएँ हैं- पर्वत और सघन पलाश वन हैं। फिर भी तुम गुणवान हो- तुम्हारा विस्मरण कैसे किया जा सकता है? हे प्रियतम! यह मत समझना कि तुम्हारे दूर विदेश में होने से मेरा प्रेम कम हो गया है। दरअसल दूरी से सज्जनों का प्रेम दोगुना हो जाता है, लेकिन ओछे लोगों के प्रेम में ही इससे कमी आती है।” उसने आगे और कहा कि- “हे प्रियतम! संपदा, वशीकरण आदि सब व्यर्थ हैं। जिस पर प्रेम का मद चढ़ जाता है, वह युवती आकुल-व्याकुल होकर केवल हाथ फैलाती है। हे प्रियतम! न मैं दिन में तुम्हे भूलती हूँ, रात्रि में तुम्हारे अलावा मेरी स्मृति में और कोई नहीं होता और यदि नींद भर सोती हूँ, तो सपने में भी तुम्ही आते हो। हे लोभी ठाकुर! अब घर आ जाओ। विदेश में अपना समय क्यों व्यर्थ कर रहे हो। मेरा यौवन और शरीर दिन-दिन घटता जा रहा है। बाद में आकर तुम्हे क्या लाभ होगा?” मारवणी ने इस तरह अपना संदेश ढाढ़ियों को दिया और उनसे अनुरोध किया कि प्रियतम के सामने इसी तरह मेरी ओर से प्रार्थना करना।


मारवणी का संदेश सुनकर ढाढ़ियों ने नरवर की ओर प्रस्थान किया। पूगल से पुष्कर की ओर जाते हुए वे मालवणी के आदमियों से छिपकर निकल गए और रातों-रात चलकर नरवर पहुँच गए। उन्होंने वहाँ गीत गाए, जिससे रक्षकों ने उन्हें याचक जानकर छोड़ दिया। ढाढ़ियों ने राजकुमार ढोला के महल के नीचे डेरा डाला और मारवणी का संदेश मल्हार राग में गाया। चार प्रहर तक वर्षा की झड़ी लगी रही और बादल गरजते रहे। उन्होंने गाया कि समुद्र पार सौ योजन तक बिजली चमक रही है, लेकिन ढोला नरवर की और उसकी प्रेयसी मारवणी पूगल की गलियों में अलग-अलग हैं। ढाढ़ियों ने रात भर गाया, जिसे ढोला ने सुना। उसकी स्थिति छिछले पानी में तड़फती मछली की तरह हो गयी। किसी तरह सुबह हुई, तो उसने महलों से उतरकर ढाढ़ियों से सारा हाल जाना। ढाढ़ियों ने उसे बताया कि- “हम पूगल से आए हैं और वहाँ के राजा पिंगल की पुत्री मारवणी ने हमें आपके पास भेजा है, जिसका बाल्यकाल में आपसे विवाह हुआ था और फिर आप उसे भूल गए।” उन्होंने कहा कि-‌ “दुर्जनों की बात सुनकर सज्जनों का विस्मरण करना अच्छी बात नहीं है। हे सज्जन! किसी को छोड़ना भी पड़े, तो धीरे-धीरे जैसे पानी किनारा छोड़ता है, वैसे छोड़ना चाहिए। कितना ही दूर हो, जो जिसके हृदय में है, वह उसके पास रहता है। हे ढोला! चंद्रमुखी, हंस जैसी गतिवाली, लंबे केशों और स्वर्ण रंगवाली मारवणी से शीघ्र जाकर मिलो।” ढोला का मन में उत्सुक और व्याकुल हो गया।  उसने प्रार्थना की कि– “मारवणी के बिना जितने दिन मेरे व्यतीत हुए, ईश्वर उनका गणना मेरे जीवन में नहीं करे।” ढोला ने याचकों को उपहार दिए और महल में आया।

ढोला के मन में मारवणी से मिलने की व्यग्रता बहुत बढ़ गयी। उसने सोचा कि यदि मन बाज  और प्राणों के पंख हों, तो महाअरण्य को लाँघकर प्रियतम से मिला जा सकता है। उसे लगा कि उसका अस्थिपंजर यहाँ और मन मारवणी के पास है। मालवणी श्रृंगार आदि कर प्रियतम के पास आयी, लेकिन उसे उदास देखकर वह कुम्हला गयी। मालवणी को आशंका हुई कि कहीं ढोला ने मारवणी के संबंध में तो नहीं सुन लिया। उसने ढोला से कहा कि- “हे स्वामी! तुम न हँसते हो, न बोलते हो, तुम क्रोधित हो और तुम्हारा मन उदास है। ऐसा क्या हुआ है? तुम चिंतित क्यों हो।” ढोला ने उत्तर में कहा कि- “जिन लोगों को चिंता रूपी डायन लग जाती है, उनके अंग शिथिल हो जाते हैं। जो पुरुष धैर्यवान होते हैं, वे चिंता सह तो लेते हैं, लेकिन यह उनके तन को भीतर से खाती रहती है।” ढोला मारवणी से मिलने के लिए व्यग्र था, इसलिए उसने बहाना बनाया। उसने मालवणी से कहा कि यदि वह अनुमति दे, तो वह देशाटन करना चाहता है। मालवणी ने तत्काल उत्तर दिया कि जिसके यहाँ नरवर जैसा गढ़ है, ऊँचे महल और घर हैं और घर में अत्यंत सुंदर स्त्री है, उसका देशाटन पर जाना व्यर्थ है। ढोला ने फिर बहाना बनाया और कहा कि वह ईडर जाकर आभूषण, मुलतान जाकर घोड़े, कच्छ देश से ऊँट और सुमेरु पर्वत से मुक्ताफल लाना चाहता है। मालवणी फिर भी उसके देशाटन पर जाने के लिए राजी नहीं हुई। अंततः ढोला ने उससे सच्ची बात कही। उसने कहा कि उसकी मारवणी से मिलने की बड़ी इच्छा है। यह सुनकर मालवणी के शरीर में विरह व्याप्त हो गया। वह धड़ाम से ज़मीन पर गिर पड़ी, मानों उसको साँप ने डस लिया हो। ढोला ने उस पर गुलाब के छींटे दिए और पंखे से हवा की। मालवाणी सचेत होकर कातर भाव से रोने लगी।

3.

ढोला ने पूगल जाने का निश्चय किया, तो मालवणी ने कहा कि- “अभी भूमि तपी हुई है, लू चल रही है, तुम जल जाओगे।” मालवणी के आग्रह पर ढोला दो माह रुक गया। ग्रीष्म ऋतु चली गयी और वर्षा ऋतु आ गयी। ढोला ने अब पूगल जाने का विचार किया। उसने कहा कि सब तरफ़ पानी भरा हुआ है, आकाश में बादल छाए हुए हैं, अब पूगल जाना चाहिए। मालवणी ने कहा कि- “जिस ऋतु बगुले भी ज़मीन पर पाँव नहीं रखते, उस ऋतु में बाहर जाना उचित नहीं है। हे स्वामी! वर्षा की झड़ी लगी हुई है, पपीहे बोल रहे हैं, भला ऐसे समय में घर कौन छोड़ता है?” ढोला ने भाद्रपद माह में फिर पूगल जाने का आग्रह किया। उसने कहा कि– “बाजरियाँ हरी हो गयी हैं। उनके बीच बेलों में फूल आ गए हैं। मारू देश इस समय बहुत सुहावना हो गया होगा। अब मुझे वहाँ जाना चाहिए।” मालवणी नहीं मानी। उसने कहा कि- “वर्षा ऋतु में नदियों, नालों और झरनों में भरपूर पानी चढ़ा हुआ। अभी मत जाओ। पूगल बहुत दूर है और तुम्हारा ऊँट कीचड़ में फिसल जाएगा। उसने कहा कि- “हे प्रियतम! जिस ऋतु में बादल झरते हैं, नदियाँ बहती हैं, उसमें तुम्हारें वियोग मैं कैसे रहूँगी। मेह बरसने से अन्न पक गया है। धरती पानी से ठंडी हो गयी है। खेती पककर तैयार है। अन्न कण पककर नीचे गिरने लगे हैं। ऐसे समय में क्या कोई बाहर जाता है? रोकने से कोई नहीं रुकता, अंततः तुम पूगल के अतिथि तो बनोगे ही, केवल दशहरे तक रुक जाओ।” ढोला दशहरे तक रुक गया। वर्षा ऋतु चली गयी और शरद आ गयी। दशहरा गया, तो ढोला ने मालवणी से विदा माँगी। उसने कहा कि‌- “हे मालवणी! अब मैं जाऊँगा। मेरी चिंता मत करो। मुझे हँसकर विदा दो। अन्यथा मैं आधी रात को उठकर चला जाऊँगा। तुम्हारे प्रेम के कारण गर्मी और वर्षा में मैं रुक गया।” मालवणी ने उत्तर दिया कि शीतकाल में ठंड पड़ती है, ग्रीष्म में लू चलती है और वर्षा में कीचड़ हो जाता है, इसलिए ये ऋतुएँ कहीं जाने के लिए उपयुक्त नहीं हैं। मालवणी ने फिर कहा कि- “जिस ऋतु में दिन छोटे और रातें बड़ी होती हैं और हवा और पानी ठंडे होते हैं, उस ऋतु में प्रेम का आग्रह नहीं ठुकराना चाहिए। आज उत्तर दिशा की हवा चलना शुरू हो गयी है। हे प्रिय! इस समय मुग्धाओं को अपने हृदय की ओट में रखना चाहिए।” उसने फिर कहा कि- “जोरों का पाला पड़ रहा है। आज तो जिसका पति परदेश में है, उसका शरीर जल जाएगा।” ढोला ने फाल्गुन मास आने पर फिर कहा कि अब तो वह जाएगा। उसने कहा कि- “फाल्गुन मास सुहावना है। सब लोग फाग खेल रहे है। मेरा मन पूगल जाने के लिए उत्साहित है।” मालवणी ने फिर ढोला के आग्रह को टाल दिया। उसने कहा कि‌ शरद ऋतु में स्त्रियाँ शृंगार करती है। ऐसे समय उसका पति चला जाए, तो उसका हृदय फट जाएगा। 


ढोला इस तरह जब भी चलने के लिए प्रस्तुत होता है और मालवणी उसको कोई बहाना बनाकर रोक लेती। वह घोड़े की रकाब पकड़कर झमाझम रोने लग जाती। ढोला के फिर आग्रह करने पर उसने कहा कि– “हे प्रियतम! जाऊँ, जाऊँ मत करो। तुम्हारा यह शब्द मेरे हृदय में साल की तरह चुभता है। तुम जाओ, तो मेरे सोते समय प्रस्थान करना।” ढोला ने आश्वस्त किया कि वह उसके सोते हुए ही प्रस्थान करेगा। ढोला ऊँटशाला में गया और उसने रबारी से एक अच्छा ऊँट तैयार रखने के लिए कहा। फिर उसने मारू देश के दूरस्थ होने का सोचकर ऊँटशाला में स्वयं ऊँट तलाश करने का निश्चय किया। उसने रबारी से कहा कि जो ऊँट जीन रखने के बाद हवा से मिल जाए और घड़ी भर में योजन चल जाए, मुझे ऐसा ऊँट चाहिए। रेबारी ने कहा कि जिस ऊँट के मुँह में नागरबेल है, जो मांगलोर की बाड़ी में चरता है और गंगा का पानी पीता है, वह ऊँट श्रेष्ठ है। ढोला ने ऊँट के गले में घुँघरू और मुँह में लगाम डालने लगा। ऊँट ने उससे कहा कि‌- “ मेरे गले में घुँघरू मत डालो, मुँह लगाम मत बाँधो, मैं तुम्हें तुम्हारी मुग्धा मारवाणी से मिलाऊँगा।” कुछ समय बाद मालवाणी भी ऊँटशाला में आई और उसने ऊँट से अनुरोध किया वह लँगड़ा हो जाए। उसने ऊँट को कई प्रलोभन दिए। ऊँट ने कहा कि- “यदि मुझे लँगड़ता देखकर स्वामी दागने के लिए कहे, तो तुम मुझे बचा लेना।” ढोला ने ऊँट को मँगवाया और उसे लँगड़ता हुआ देखकर उसे दागने के लिए कहा, लेकिन मालवणी ने रोक दिया। उसने कहा कि ऊँट लँगडा हो तो, गधे का दागना चाहिए। उसके कहे अनुसार एक गधे का दागा गया। गधा को दागा हुआ देखकर ढोला की माता चंपावती ने कहा कि- “ऊँट तो झूठे मन से लँगड़ाने की चेष्टा कर रहा है और यह षड्यंत्र मालवणी ने किया है।” मालवणी ढोला के जाने के निश्चय से बहुत दुःखी हुई। वह सोचने लगी कि पहाड़ी नाले और ओछे पुरुषों का प्रेम बहुत तेज़ी चढ़ता है, लेकिन यह जल्दी ही उतर भी जाता है। उसके मन में आया कि  उसके पति का उसके प्रति प्रेम कार्तिक महीने के बादलों की तरह है, जो गरजते तो बहुत हैं, लेकिन बरसते नहीं हैं। उसके आँसू गिरने लगे। उसने ढोला से कहा कि- “हे स्वामी वह जिह्वा सौ टुकड़े हो जाए, जो आपको जाने के लिए कहे।” उसने ढोला से आग्रह किया कि- “आप मुझे सोती हुई छोड़कर ही यात्रा के लिए प्रस्थान करना।” पंद्रह दिन तक मालवणी जागती रही और ढोला से प्रेम करती रही। एक दिन उसको सोया हुआ जानकर ढोला ने ऊँट पर जीन कसी और उसके गले में घुँघरू डाले। ढोला ने उसको राजद्वार पर लाकर बैठाया। ऊँट इसी समय बलबलाया, जिससे मालवणी की नींद टूट गयी। इधर ढोला नरवर के दुर्ग को प्रणाम करके पूगल के लिए प्रस्थान कर गया।


यह देखकर कि ढोला जा रहा है- मालवणी व्याकुल चित्त हो गयी। उसने सखियों से कहा कि-  “हे सखी! दौड़ो। कोई उसका दामन पकड़ो, कोई ऊँट की लगाम पकड़ो, प्रियतम जा रहा है। विरह के ढोल और दमामे बजने लगे हैं। मेरी चूड़ियाँ खिसकक्र नीचे गिर गयी हैं और मेरे शरीर के तमाम जोड़ शिथिल हो गए हैं।” मालवणी ने ढोला के बिछोह में काजल, तिलक और तांबूल, तीनों छोड़ दिए। उसने सखी से कहा कि- “हे सखी! मेरे नेत्र शोक में हैं और साड़ी और कंचुकी आँसुओं से भीग गई हैं। झीनी-झीनी खेह उड़ रही है, हृदय में बादल घिर गए हैं और नेत्रों से मेह टपक रहा है। प्रियतम अब मारवणी के सम्मुख और मेरे विमुख हैं।” उसने कहा कि- “हे प्रियतम आपने प्रेम के पंख धारण कर लिए हैं और मेरे नेत्र हिरण की तरह आपका रात-दिन पीछा कर रहे हैं। इनमें नींद नहीं है। अब आपके मेरे बीच दूरी बहुत बढ गयी है। बीच में कई गाँव हैं।” मालवणी बहुत व्यथित हुई- उसने सोचा कि ये मेरे प्राण प्रियतम के जाने पर निकल क्यों नहीं गए। उसने विचार किया कि- “खूँटे पर जीन नहीं है, जूते जगह भी नहीं है, कड़ी पर ऊँट नहीं हैं। अब ये स्थान मेरे हृदय में चुमते हैं।” वह प्रियतम के जाने दिशा में मुँह करके सिसकती है और व्याकुल होकर हाथ मलने लगती है। वह लंबी आहें भरती है और सोचती है कि ओछे कदमों से उन तक पहुँचना संभव नहीं है और लंबे डग भरते हुए लज्जा आती है।

वह विचार करती है कि‌- “ऐसे देश को आग लगा दूँ, जिसमें पहाड़ नहीं है। पहाड़ होते तो मैं उन पर चढ़कर दहाड़ भर कर रोती और अपना जी हलका करती।” मालवणी को अब कुछ अच्छा नहीं लगता था। वह कहती है कि‌- “हे बूर (मरुस्थलीय घास) सूखी और रेतीली ज़मीन  में क्यों डहडहा रही है।” वह जाल (मरुस्थलीय वृक्ष) से कहती है कि- “तू जल के बिना हरा भरा क्यों है?” वह चंपे का नौ कलियोंवाला हार पहनती है, तो यह उसे अंगारे की तरह लगता है। वह श्रृंगार करके सरोवर पर गयी। जल उसको देखकर हँसा, चाँद मुस्कराया और सरोवर पाल उसको देखकर काँप गयी। वह सरोवर पर नहाने गयी, तो पानी काले साँप की तरह लहरें लेकर उसको उसको खाने को हुआ। वह देखती है कि ढोला का ऊँट बादलों की तरह उड़ता हुआ जा रहा है और सोचती है कि अब ढोला सब काम मारवणी की प्रसन्नता के लिए करेगा। 


मालवणी ने अब अपने तोते को कहा कि– “अब तुम मेरे भाई जैसा काम करो, प्रियतम पूगल के मार्ग पर हैं, उनको लौटा लाओ।” उसने तोते से कहा कि- “मेरा संदेश यह है कि तू प्रियतम के पास जाकर उनको मुझे मरी हुई बता देना।” ढोला चंदेरी और बूंदी के बीच जब दाँतुन कर रहा था, तब तोता वहाँ पहुँचा। ढोला ने जब उससे वहाँ आने का कारण पूछा, तो उसने कहा कि– “मालवणी उसके वियोग में प्राण छोड देगी और इसका लांछन उस पर लगेगा। उसने कहा कि‌- “मैं बताते हुए डरता हूँ, लेकिन सही तो यह है कि मालवणी मर गयी है। आप लौट जाएँ।” ढोला ने उत्तर दिया कि– “हे तोते! तू गुणवान है। नौ मन चंदन और एक मन अगरू लेकर मालवणी का दाहकर्म कर देना।” जब तोते ने देखा कि ढोला को मालवणी की मृत्यु का समाचार भी विचलित नहीं कर रहा है, तो उसने ढोला से कहा कि वह जाए और अपना कार्य सिद्ध करे। तोता वापस मालवणी के पास आ गया। मालवणी कहने लगी कि- “ढोला लौट नहीं रहा है?” तो तोते ने उससे कहा कि‌- “अब कुछ मत कहो। उसका लौटना मेरे हाथ में नहीं है। जिसने रकाब में पैर दिए हैं, लगाम भी उसी के हाथ में है।” मालवणी फिर विलाप करने लगी। उसने कहा कि- “हे ईश्वर! तू मुझे पूगल मार्ग में बबूल ही बना देता, तो प्रियमत मुझे काटते ओर इस तरह कम से कम मैं उनके हाथों का स्पर्श तो पाती। ईश्वर मुझे काली बदली बनाता, तो मैं आकाश में लगी रहती और प्रियतम के मार्ग में छाया करती।”

4.

मालवणी इस तरह विलाप कर रही थी और ढोला आनंदपूर्वक मार्ग में ऊँट को हाँक रहा था। उसने तीसरे पहर आडावला पहाड़ की घाटी को पार कर लिया। प्यासे ऊँट को ढोला ने पुष्कर के सरोवर के तट पर जाकर पानी पिलाया। उसने ऊँट से कहा कि‌- “तुम यहाँ छककर पानी पी लो। आगे बहुत प्यास सहन करनी पड़ेगी, क्योंकि छीलर-गढ़ैयों का पानी तो तू पिएगा नहीं और सरोवर आगे कहीं मिलेगा नहीं। ऊँट ने ढोला से कहा कि- “यह देश तो निराला है। यहाँ चरने के लिए अच्छी घास तक नहीं है” तो ढोला ने उत्तर दिया कि यहाँ तो चरने के लिए केवल ऊँटकटारा और फोग है। तेरे थोबड़े (मुँह) के लिए नागर बेल यहाँ कहाँ से लाऊँगा? उसने ऊँट से कहा कि- “यह प्रदेश मेरा ससुराल है, इसलिए अत्यंत सुहावना है। यहाँ के आक को आम और करील के झाड़ों को कदंब मान लो।” मार्ग में ढोला की भेंट एक गड़रिये से हुई, जिसने उससे कहा कि- “किस मुग्धा के लिए तू यह कष्ट देख रहा है”, तो ढोला ने कहा कि वह अपनी परिणिता मारवणी के लिए व्यग्र है। उसने उसके अपूर्व सौंदर्य की सराहना करते हुए कहा कि- “जिस वृक्ष से मारवणी उत्पन्न हुई उसकी छाल का एक टुकड़ा गिर गया था। विधाता ने उससे चंद्रमा बनाया और उसको आकाश में रख दिया।” कुछ आगे चलने के बाद ढोला उमर सूमरे के एक चारण मिला, जिसने उससे कहा कि- “हे ढोला! जिस प्रेयसी के लिए तू उत्साहपूर्वक जा रहा है। उसके अंग शिथिल और बाल सफ़ेद हो गए हैं। तू विलंब से आया है। अब तो वह बूढ़ी हो गयी है।” चारण की बात सुनकर ढोला को निराशा हुई। वह विचलित हो गया। ऊँट ने उसको आश्वस्त करते हुए कहा कि दुर्जन के कथनों पर विश्वास नहीं करना चाहिए, वे अनहोनी बताते हैं, जिनमें कोई सच्चाई नहीं होती। ढोला का मन पीपल के पत्ते की तरह विचलित हो गया। वह खड़ा-खड़ा ऊँट की लगाम सँभालने लगा। वह चलने को हुआ कि उसके सामने वीसू नाम का एक चारण आ गया। उसने वीसू से मारवणी के बूढ़ी हो जाने के संबंध में पूछा, तो उसने कहा कि- “विवाह के समय मारवणी डेढ़ वर्ष की और तुम तीन वर्ष के थे, तो अब मारवणी बूढ़ी और तुम युवा कैसे हो सकते हो?” उसने कहा कि- “मारवणी गति में गंगा, बुद्धि सरस्वती और शील में सीता है। स्त्रियाँ में मारवणी के समान दूसरा कोई नहीं है। उसकी चाल हाथी, जंघा कदली गर्भ, कमर सिंह, दाँत हीरे, होठ मूँगे और भृकुटि चंद्रमा के समान है। उसके नेत्र तीक्ष्ण, कटि मुष्टिग्राह्य और दोनों उरोज पपीहे के समान लाल हैं। हे ढोला! वह पालतू सिंह के समान है। वह बत्तीस लक्षणों की खान है। उसकी देह कुंकुम और कमर सिंह के सदृश है।” उसने आगे बताया कि मारवणी यदि सोना पहन लेती है, तो पथिक उस पर मोहित हो जाते हैं। वह ऐसी है मानो कस्तूरी और केवेड़े की कली की महक उड़ रही हो। वह अनार के फूल की तरह विकसित होती रहती है। उसने और कहा कि मारवणी जैसी स्त्री उसने और कहीं नहीं देख़ी। वह चंद्रमुखी और मृगलोचनी है और उसका ललाट चंद्रमा के समान दीप्तिमान है। मारवणी के गुण सुनकर ढोला ने वीसू को पुरस्कृत किया और कहा कि तुम पूगल जाकर मेरे आने का समाचार दो।


वीसू के जाने बाद तीसरे पहर ढोला रवाना हुआ। चलते हुए संध्या हो गयी, लेकिन पूगल नहीं आया। नाराज़ होकर ढोला ने ऊँट से कहा कि‌- “दिन बीत गया, आकाश में बादल छा गए हैं। हे काली ऊँटनी से उत्पन्न ऊँट! तूने तो कहा था कि तू मुझे पूगल पहुँचा देगा।” ऊँट ने कहा कि- “तुम मुझ पर बार-बार छड़ी से प्रहार मत करो। मारवणी मुझसे कितनी दूर हो सकती है? मैं तुम्हे उसके पास पहुँचा दूँगा।” ढोला ने कि– “मुझे तुम पर भरोसा है, लेकिन कहीं बीच में ठहरना पड़ा, तो आज भी मारवणी भेंट नहीं होगी।” ऊँट ने कहा कि- “पगड़ी कसकर बाँध लो, लगाम ढीली छोड़ दो, मैं ऊँटनी का जाया नहीं, जो आज तुम्हें तुम्हारी प्रिया तक नहीं पहुँचा दूँ।” जिस दिन ढोला पूगल आया, उसकी पहली रात मारवणी ने रात में सपना देखकर अपनी सखियों से कहा कि- “हे सखियों! प्रियतम से मेरा सपने में मिलना हुआ। मैं रोती हुई उनसे गले मिली। डरते हुए मैंने पलकें नहीं खोलीं कि कहीं फिर बिछोह नहीं हो जाए। सोते हुए मुझे लगा कि प्रियतम ने आकर मुझे जगाया है। विरह रूपी साँप की डसी हुई मैंने डगमगाकर उनको गले लगा लिया। सपना आकर चला गया और मैंने रोकर सरोवर भर दिए।” उसने सपने को संबोधित करते हुए कहा कि- “हे सपने! मैं तुझे मरवाऊँगी। तेरे कलेजे में छेद करवाऊँगी। जब सोती हूँ, तो हम दोनों होते हैं और जागती हूँ, तो अकेली रह जाती हूँ।” उसने सखियों से कहा कि मुझे मन में लगता है कि प्रियतम आएँगे। मेरे अंग उत्साहित हैं और मुझे बधाई दे रहे हैं।

5.

संध्या के समय बादल आकाश में छा गए। ढोला ने ऊँट को छड़ी मारी और वह उसे तेज़ी  हाँककर पूगल के पास आ पहुँचा। ढोला ने देखा कि वहाँ कुओं में पानी बहुत गहरा है और पथरीले टीलों पर चढ़ने में कठिनाई होती है। इसी समय वीसू चारण ने पूगल पहुँचकर ढोला के आ जाने के समाचार दिए। राजा, रानी और पूरा नगर प्रसन्न हुआ और मारवणी के हर्ष का कोई ठिकाना ही नहीं रहा। मारवणी से सखी से कहा कि- “स्वामी के आने से सब कार्य सफल हुए और पूर्णिमा की चाँद की तरह ढोला के आने से सभी दिशाएँ प्रफुल्लित हो गयी हैं। मेरे जो मनोरथ जो सूखे हुए थे, अब पल्लवित और पुष्पित हो गए हैं।” सखियों ने मारवणी को उबटन, स्नान आदि करवाया और फिर वे उसे लेकर महल की ओर चली। घूमते हुए घाघरे में मारवणी बादलों में चलते हुए चंद्रमा की तरह प्रतीत हो रही थी। सखियाँ मारवणी को ढोला के पास छोड़कर आ गयीं। दोनों एकांत में मिले  और जब उनकी आँखे चार हुई, तो दोनों का प्रेम और बढ़ गया। मारवणी सेज पर बैठी और ढोला उसका मुँह देखने लगा। पूर्णिमा के चंद्रमा के समान महल में उजाला हो गया। मारवणी मन में संकुचित हुई। अंततः उसने ढोला को अपना वृत्तांत सुनाना शुरू किया। उसने कहा कि- “आपको आए हुए एक प्रहर हो गया है और अब मै बहुत प्रसन्न हूँ। मेंढ़क बरसात में ही प्रसन्न होते हैं।” कंचुकी हटाकर मारवणी प्रियतम के गले लगी मानो सूरज ने किरणें फैलायी और चकवी के मन में आनंद हुआ। दोनों के मन मिल गए, तन परस्पर आलिंगित हो गए और प्रेमी दंपति पानी और दूध की तरह एक हो गए। सेज पर रमण करते हुए ढोला से मारवणी एक क्षण के लिए भी अलग नहीं होती थी। दोनों ने गाथाएँ, पहेलियाँ और गुणोक्तियाँ कहीं। मारवणी ने सखियों से अपनी क्रीड़ा के संबंध में कहा कि- “ढोला मुझसे झूम गया, मैंने भी रोष में अरगजा का पात्र उस पर उड़ेल दिया।” इस तरह दोनों रात-दिन प्रेम क्रीडा करते। उनकी जोड़ी एक-दूसरे के अनुरूप थी।


ढोला पंद्रह दिनों तक ससुराल में रहा। पूगल में उसका ख़ूब आतिथ्य हुआ। पिंगल ने मारवणी के गौने में सुवर्णजटित श्रृंगार, हाथी, घोड़े और दासियाँ दीं। ढोला ने आनंदूपर्वक अब नरवर के लिए प्रस्थान किया। ऊमर सूमरा को सूचना मिल गयी कि मारवणी अब जाने वाली है। पिंगल ने ढोला को पहुँचाने के लिए सौ सवार दिए। मार्ग में रात्रि हो जाने पर ढोला और मारवणी ने जल और अच्छा स्थान देखकर डेरा किया और दोनों सो गए। मारवणी के मुँह से आने वाली कस्तूरी को गंध से आकृष्ट होकर एक पीवणा साँप निकला और उसने मारवणी को पी लिया। पौ फटी और उजाला हुआ, तो ढोला ने टटोलने पर पाया कि मारवणी का शरीर ठंडा है। उसके हृदय में ज्वाला उठ खड़ी हुई- वह विलाप करने लगा। सखी ने मारवणी की साँस देखकर कहा कि- “हे ढोला! मारवणी मर गयी- तूने उसकी सुध नहीं ली।” ढोला बहुत दुःखी हुआ। वह कहने लगा कि- “मारवणी गुणों की लता और रस की बेल थी। पीणे साँप ने उसको पी लिया।” साथ के लोगों ने कहा कि- “हे ढोला! जो होना था, वह हो गया। हम आपका दूसरा विवाह करेंगे, यहाँ से चलो, लेकिन ढोला ने कहा कि- “अब मेरा अन्न-जल मारवणी के साथ है।” कुछ लोग वापस पूगल लौट गए। संयोग से उसी समय एक जोगी और जोगिन वहाँ से निकले। जोगिन मारवणी को पहले से जानती थी और उसको चाहती भी थी। उसने ढोला को देखकर जोगी से कहा कि– “स्त्री तो पुरुष के साथ जलती है, लेकिन किसी पुरुष का इस तरह स्त्री के साथ जलना उचित नहीं है।” जोगिन ने जोगी से कहा कि या तो वह ढोला को जीवित करे, अन्यथा वह भी उसके साथ जल जाएगी। जोगी ने जोगिन को बहुत समझाया, लेकिन वह नहीं मानी। अंततः उसने अभिमंत्रित जल छिड़ककर मारवणी को जीवित कर दिया। ढोला और मारवणी बहुत प्रसन्न हुए। दोनों ने अपना सभी श्रृंगार उतारकर जोगी और जोगिन को दे दिया। ढोला ने विचार किया कि अब जितना जल्दी हो, नरवर पहुँच जाना चाहिए। उसने कुछ लोगों को लौटा दिया, कुछ को अपना सामान सँभला दिया और फिर दोनों दोनों ऊँट पर सवार होकर नरवर की ओर चल पड़े। इधर ऊमर सूमरा को दूतों ने बताया कि अब ढोला और मारवणी अकेले हैं, इसलिए धोखे से मारवणी को छीना जा सकता हैं। ऊमर सूमरा दोनों का पीछा करने लगा। पीछे आती हुईं घोड़े को चाप सुनकर मारवणी ने ढोला से कहा कि‌- “पीछा करनेवाले को या तो अपने प्राणों का भय है, इसलिए इतना तेज़ चल रहा है या फिर आज हमारे साथ कोई अनहोनी होने वाली है।” ऊमर सूमरा ने ढोला के पास पहुँचकर कहा कि‌- “हम भी नरवर जा रहे हैं। आओ कुछ समय विश्राम करके जलपान कर लें।” ढोला ऊमर सूमरा के आग्रह पर नीचे उतर गया। ढोला ने उतरकर ऊँट का पैर बाँध दिया और उसकी बाग मारवणी के हाथ पकड़ा कर वह ऊमर सूमरा के पास चला गया। ऊमर सूमरा के साथ मारवणी के पीहर एक गायिका थी। उसने वाद्य यंत्र बजाकर और गाकर मारवणी को ढोला के साथ होनेवाले षड्यंत्र बात समझायी। उसने कहा कि– “यह निर्जन स्थान है, ढोला ऊमर के साथ मद्यपान कर रहा है, यह उचित नहीं है। अभी स्त्री छीन ली जाती है और पति मारा जाता है। पराया साथ छोड़ दो। हे मारवणी! तू बड़ी चतुर है। पति से काम है, तो ऊँट को छड़ी मार।” मारवणी को तत्काल सब समझ आ गया। मारवणी ने ऊँट को छड़ी मारी, जिससे वह बलबलाकर उठ खड़ा हुआ। ढोला को इससे आश्चर्य हुआ। वह जब उठकर ऊँट के पास आया, तो मारवणी ने षड्यंत्र और ऊमर सूमरा की मंशा के संबंध में उसे बताया। दोनों तत्काल ऊँट पर चढ़ कर रवाना हो गए, लेकिन वे ऊँट के पाँव का बंधन खोलना भूल गए। ऊमर सूमरा ने पीछे से देखा की बर्र (मधुमक्खी)  जैसी पतली कमर वाली मारवणी ऊँट पर चढ़कर डहडहा रही है। उसने जव दोनों को जाते देखा, तो घोडों पर जीन कसी और उनका पीछा करने लगा। ऊँट इतना तेज़ी से चला कि दोनों के बीच दूरी बहुत बढ़ गयी। मार्ग में एक चारण ने आकर ढोला को शुभराज किया और ऊँट के पाँव बधे होने की बात बतायी। ढोला ने उसे छुरी देकर ऊँट के पाँव का बंधन कटवाया। उसने चारण से कहा कि- “जो कुछ तुमने देखा है, वही सब ऊमर सूमरा को बता देना।” दूसरे दिन सूर्योदय के समय चारण ऊमर सूमरा से मिला और उसके पूछने पर बताया कि- “ऊँट बंधन बावजूद आडावला की घाटी पार कर गया है। अब तुम अपने घोड़ों को व्यर्थ कष्ट मत दो। अब तक तो वे दोनों दोनों नरवर पहुँच चुके होंगे।” ऊमर सूमरा उदास होकर लौट गया। 

6.

ढोला नरवर पहुँच गया। उसको आया हुआ जानकर नगर में उत्सव होने लगे और स्त्रियाँ मंगलगीत गाने लगीं। ढोला अपनी दोनों सद्गुणी और सुंदर स्त्रियों के साथ आनंद करने लगा।  वह एक रात मालवणी और दो रात मारवणी के साथ रहता। मालवणी, मारवणी और ढोला एक ही महल में कला विनोद करते। एक दिन मालवणी ने ढोला से कहा कि- “हे स्वामी सभी देश सुहावने हैं। एक मारवाड़ ही रंगहीन है।” उसने कहा कि वहाँ पानी गहरे कुओं में मिलता है और स्त्रियों के सुंदर हाथ उसको नहीं निकालते। मालवणी ने आगे कहा कि- “हे बाबा! मुझे कभी भेड़ चराने वालों के ऐसे देश में मत देना, जहाँ कंधे पर कुल्हाड़ी और सिर पर घड़ा रखना पड़ेगा और थली (मरुभूमि) में रहना होगा। उत्तर में मारवणी ने कहा कि- “मारू देश बहुत सुरंगा है एक मालवा ही रंगहीन है। उसने कहा कि- “उस देश जला दूँ, जहाँ पानी में हमेशा सिवार छाया रहता है और जहाँ एक भी गोरी स्त्री नहीं है और सब काले वस्त्र पहनते हैं।” उसने कहा कि- “जो मारू देश में पैदा हुई हैं उनके दाँत उज्ज्वल होते हैं, वे कुरजाँ के बच्चों की तरह गौर वर्ण की होती हैं और उनके नेत्र खंजन जैसे होते हैं।” उसने कहा कि मारू देश की स्त्रियाँ तीर की तरह सीधी चलती हैं, कभी कटु वचन नहीं बोलती और स्वभाव से ही मीठे वचन बोलती हैं। ढोला ने मारवणी की बात का समर्थन करते हुए कहा कि- “मारू देश बहुत सुरंगा है, यद्यपि वहाँ की भूमि जलहीन है। मरुभूमि को दोष मत दो, वहाँ घर-घर चंद्रमुखी स्त्रियाँ हैं। मारू देश का कितना बखान करूँ। मारवणी से मिलने के बाद मेरा जीवन सफल हो गया।” इस तरह ढोला ने मालव देश की अप्रशंसा की और मारू देश की प्रशंसा की। ढोला द्वारा मारवणी का समर्थन करने के कारण मालवणी और मरावणी में झगड़ा ख़त्म हो गया। ढोला अत्यंत आनंद और उत्सवपूर्वक नरवर में मालवणी और मारवणी के साथ जीवन व्यतीत करने लगा।

 

 
 
 

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