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  • माधव हाड़ा

परंपरा में रचा-बसा आधुनिक



नामवरसिंह पर एकाग्र ' साक्षात्कार के विशेषांक में प्रकाशित


नामवरजी की आलोचना नयी और अलग है, लेकिन उनके यहाँ इसके उगने–बढ़ने का खाद-पानी परंपरा से आता है। नामवरजी ने अपने समय के ‘प्रचलित’ और ‘मान्य’ से अलग और नया किया और खास बात यह है कि उन्होंने हिंदी समाज में ‘अलग’ और ‘नये’ का स्वागत और सम्मान करने की आदत भी डाली। उन्होंने जब आलोचना में कदम रखा, तो उसमें खूँटोंवाली आलोचना का वर्चस्व था। यह ऐसी आलोचना थी, जिसमें इधर-उधर या आसपास था, लेकिन अलग और नये के लिए गुंजाइश बिल्कुल नहीं थी। उस समय माहौल ऐसा भी था कि परंपरा के नाम पर कुछ लोग अतीत में ही ठहर गए थे, जबकि कुछ लोग ऐसे थे, जो परंपरा और विरासत की चेतना और संस्कार को दकियानूसी मानकर हवा में ‘आधुनिक’ हो गए थे। नामवरजी के अलग और नये आलोचक की खास बात यह है कि इसका उगना-बढना परंपरा की जमीन पर हुआ और वह किसी खूँटे से बँधकर उसके बाड़े में कैद भी नहीं हुआ। नामवरजी में परंपरा की चेतना थी, लेकिन अतीत उनके लिए श्रद्धेय कभी नहीं रहा। अतीत के साथ उनका संबंध द्वंद्व का था। दरअसल परंपरा की चेतना और संस्कारवाले सभी लोगों का अतीत से संबंध, यदि यह स्वस्थ संबंध है, तो हमेशा द्वंद्व का ही होता है। परंपरा इसी श्रद्धा संबंध के कारण कई आलोचकों के यहाँ मृत या ठहरी हुई है। नामवरजी के यहाँ यह जीवंत है- इसका बदलना-बनना नामवरजी की आलोचना में साफ दिखता है।

नामवरजी की आलोचकीय पहचान अपनी समकालीनता के ‘अलग’ और ‘नये’ मूल्यांकन के कारण बनी, लेकिन परंपरा की चेतना और संस्कार उनमें निरंतर और गहरा था। परंपरा की स्मृति और संस्कार उनके आलोचकीय प्रस्थान में ही थे‌। उनके आरंभिक दोनों काम- ‘हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योग’ और ‘पृथ्वीराज रासो की भाषा’ हमारी परंपरा की पहचान और मूल्यांकन से संबंधित थे। परंपरा को लेकर नामवरजी के यहाँ कोई आग्रह नहीं था- यह उनकी चेतना और संस्कार में अनायास थी। आलोचना नये की हो, या प्राचीन की, यह चेतना और संस्कार उनकी आलोचना में दिखता है। वे हवा में आधुनिक होनेवाले आलोचको से अलग थे-‌ उन्हें साहित्य की भारतीय और उसमें भी खास तौर पर संस्कृत साहित्य की परंपरा का ज्ञान था, वे परवर्ती पाली, प्राकृत, अपभ्रंश और देश भाषाओं के साहित्य के भी जानकर थे। उनके ‘आधुनिक‘ की जड़ें इसीलिए इस दीर्घकालीन और विविध प्रकार की पंरपरा में थीं। अन्य कई आलोचको की तरह नामवरजी पश्चिम की ओर पीठ करके कभी खड़े नहीं हुए- वे आधुनिक और उसमें भी उसके नवीनतम को हमेशा अपने सम्मुख रखते थे। हिंदी में हवा में होने वाले आधुनिक तो कई हैं, लेकिन अपनी परपंरा और विरासत में रच-बसकर पूरे आधुनिक होनेवाले नामवरजी ही थे।

नामवरजी से मिलना थोड़ा दुर्लभ, लेकिन बहुत सुखद और समृद्धकारी था। वे संवाद व्यग्र लोगों में से थे- वे संवाद में सोत्साह हस्तक्षेप करते थे और सामनेवाले को भी इसके लिए प्रोत्साहित करते थे। सामनेवाले के लिए उनके पास उसकी रुचि के अनुसार गुजांइश थी और वे उसको ध्यान से सुनते-गुनते थे। अंतिम बार दो विख्यात सम्माननीय कवियों- अरुण कमलजी और लीलाधर जगूड़ीजी के साथ उनके यहाँ गया। यह उनके जीवन का अंतिम चरण था, स्मृति उनका साथ छोड़ रही थी, लेकिन उनकी विद्वत्ता और संवाद व्यग्रता बरकरार थी। वे संवाद की पहल करके आपको अपने साथ जोड़ लेते थे। उनके परिचितों का दायरा बहुत बड़ा था- वे सभी के आत्मीय और अपने थे। अपने सभी परिचितों के लिए उनकी स्मृति में कुछ-न-कुछ था। वे उन लोगों से बहुत अलग थे, जो मिलते ही सामनेवाले पर अपने भारी-भरकम बोझ के साथ लद जाते हैं और उसको छोटा कर देते हैं। वे मिलते ही आपकी लाई किताब, पत्रिका, लेख आदि की उन्मुक्त भाव से सराहना करते और इस तरह आपके खुलने-खिलने और सहज हो जाने की जगह निकालते थे। वे शीर्ष पर थे- उनका कद और हैसियत बहुत बड़ी थी, लेकिन उनसे मिलकर अपने छोटे होने का अहसास कभी नहीं हुआ। उनसे मिलकर, उनके यहाँ से निकलकर अपने को हमेशा आश्वस्त और भरा-भरा पाया।

नामवरजी को पाठ्यचर्या में पढा-पढ़ाया, कई बार सुना और कई बार उनसे आमना-सामना हुआ, लेकिन सही मायने में उनके साथ बैठकर इत्मिनान से बातचीत का मौका विश्वविद्यालय में आने के बाद मिला, जब वे उदयपुर व्याख्यान देने आए। उनसे यह पहली अनौपाचारिक मुलाकात लगभग दो-तीन दिन की थी। विश्वविद्यालय ने मोहनलाल सुखाड़िया स्मृति व्याख्यान देने के लिए नामवरजी को निमंत्रित करने का निश्चय किया। यह विश्वविद्यालय का प्रतिष्ठित वार्षिक आयोजन था। किसी अनुशासन या विषय का कोई शीर्ष विद्वान यह व्याख्यान देता था। युवा आलोचक और संपादक पल्लव उनके स्नेहभाजन थे, इसलिए उनको नामवरजी को राजी करने का दायित्व सौंपा। वे आए। हम थोड़े भयभीत थे, लेकिन उनके बहुत सहज और सामान्य व्यवहार ने हमको भी सहज-सामान्य कर दिया। व्याख्यान दूसरे दिन था, इसलिए रात्रि को भोजन के लिए एक रिसोर्ट पर गए। खुले में बैठे थे, सुनसान था और हवा चल रही थी। चाँद ने निकलना शुरू किया। नामवरजी की निगाहें उसी पर टिकी हुई थी। वे बातचीत में केवल हाँ-हूँ कर रहे थे। एकाएक नामवरजी मुखर हो गए- कालिदास के श्लोक एक बाद एक उनके मुँह से झरने लगे। उन्होंने एक श्लोक के कई निहितार्थ हमारे सामने रख दिए। अंग्रेजी और संस्कृत के प्रोफ़ेसर मित्र प्रदीप त्रिखा और नीरज शर्मा साथ थे- वे आश्चर्यचकित थे। अगले दिन सुबह व्याख्यान हुआ। विषय था- ‘भारतीयता की अवधारणा’। सामान्य औपचारिकताओं के बाद उन्होंने बोलना शुरू किया। एकदम धाराप्रवाह- वाक्य एक के बाद एक ढलकर आ रहे थे। उनकी स्थापनाएँ शास्त्रों से पुष्ट थीं। विश्वविद्यालय का अकादमिक समाज, बुद्धिजीवी और नगर के साहित्यप्रेमी मंत्रमुग्ध थे। उनका विचार था कि हमारे देश के लिए ‘भारत’ नाम इसकी बुनियाद रखनेवालों ने इसके धर्मनिरपेक्ष चरित्र को ध्यान में रखकर बहुत सोच-विचार के बाद रखा। उन्होंने व्याख्यान में कहा कि “आप यही देखें कि भारत नाम है पुराना, लेकिन स्वाधीनता जब मिली, तो सबसे बड़ी चुनौती थी कि पाकिस्तान ने तो अपना नाम रख लिया- पाकिस्तान, तो उसके जवाब में कायदे से इसको हिन्दुस्तान होना चाहिए था, हिन्दुस्तान शब्द चलता भी था। लेकिन क्या बात थी कि पाकिस्तान के बरक्स हमने हिन्दुस्तान नहीं चुना। आप को याद होगा गांधी ने जो पहले किताब लिखी थी ‘हिन्द स्वराज’ थी। गांधीजी ने भारत का इस्तेमाल नहीं किया। जवाहरलाल नेहरू ने जो किताब सौभाग्य से इंग्लिश में लिखी थी तो उसका नाम ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ रखा। ‘भारत एक खोज’ ये नाम अनुवाद करके लिया गया था, जवाहरलाल नेहरू ने तो ये नाम नहीं लिया था। बाद में देखें तो कई अखबार ऐसे हैं। अंग्रेजी में जो अखबार निकलता है वो ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ है, हिन्दी में उसका संस्करण है वो ‘हिन्दुस्तान’ है। ...आज भी ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ जो अंग्रेजी का निकलता है वो ‘इंडिया’ से काम चलाता है। ....बावजूद इसके हमने पाकिस्तान के बरक्स हिन्दुस्तान नहीं चुना। क्योंकि यह हिन्दुओं का देश न लगे, न माना जाए। बल्कि हमने तय किया था कि पाकिस्तान भले ही इस्लामिक स्टेट हो, लेकिन हम हिन्दुस्तान के बरक्स हिन्दुओं का राज्य नहीं कायम करेंगे।” भारतीयता के संबंध में उनकी धारणा थी कि यह लेने-देने की नहीं, खोजने की चीज है और हर व्यक्ति और हर पीढ़ी अपनी भारतीयता, अपनी तरह से खोजती है। उन्होंने व्याख्यान में इसको उदाहरण से स्पष्ट करते हुए कहा कि “जन्म लेने से ही यह प्रमाण पत्र नहीं मिल जाता कि हम भारत को जानते और समझते हैं। अगर ऐसा होता तो जवाहरलाल नेहरू इतने दिनों तक आम जनता के बीच संघर्ष करते रहे, देश की स्वाधीनता के लिए लड़ते भी रहे और इस काफी लंबी लड़ाई के बाद जेल में आकर चालीस के दशक के बाद, एक लम्बा जीवन बिताने के बाद, उन्होंने जो किताब लिखी उसका नाम था ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’। जाहिर है उन्होंने डिस्कवरी की, खोज की। अनुवाद उसका ‘भारत एक खोज’ होना चाहिए था, इसलिए कि इतने दिनों तक भारत में रहने के बावजूद जवाहरलाल नेहरू की यह किताब इशारा करती है कि भारत सहज सुलभ नहीं है। ये वो जानते थे। एक लंबी उमर के बाद भी उन्होंने भारत को नये सिरे से खोजा। ये खोज की उन्होंने भारत का तूफानी दौरा करते हुए। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान, चुनाव के दौरान वे गाँव गए। सब कुछ देखा, रहन-सहन, खान-पान सब देखा।” उनका यह भी मानना था कि हमारे साहित्य ने भारतीयता की खोज की है। उन्होंने इस पर विस्तार से रोशनी डालते हुए हुए कहा कि “भारत की खोज होती रही। कविताओं के द्वारा, कहानियों के द्वारा, उपन्यास के द्वारा। क्योंकि भारत एक भूगोल नहीं हैं। भारत केवल नदियों, पहाड़ों, जंगलों का देश नही है। न यह बड़े–बड़े महानगरों, कल-कारखानों का देश है। बल्कि जो स्वयं ये भारत में रहनेवाले जो लोग हैं, जो जनता है, उस जनता की अपनी जिंदगी है, अपनी कहानी है, उसके अपने दुखःदर्द हैं, संघर्ष है, हास है उल्लास है, जो कभी-कभी उसके त्योहारों में अभिव्यक्त होते हैं, उसके अलावा व्यक्त होते हैं- ग्राम-गीतों में, लोककलाओं में।” जाहिर है, यह बातें कट्टरपंथी रुझानवाले लोगों को अच्छी नहीं लगी। बाद में उनमें से एक राजनेता ने मंच पर जाकर अपनी असहमति व्यक्त की। नामवरजी ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं की। दूसरे दिन यह मामला अखबारों में उछला। अखबार उन्हें दिखाए‌‌‌- वे निर्द्धन्द्ध थे, उन्होंने कुछ नहीं कहा। बाद में हम कीर्तिशेष कवि नंद चतुर्वेदी के यहाँ मिलने गए- दोनों ने बहुत देर तक घर-परिवार और सुखःदुख की बातें कीं। नंदबाबू ने उनके व्याख्यान पर विवाद का प्रसंग भी छेड़ा, लेकिन उन्होंने इसे बहुत महत्त्व नहीं दिया। बहुत बाद में समझ में आया कि वे अपनी धारणाओं में साफ थे- उनकी राय दो टूक थी और वे इस पर किसी ऐसी-वैसी प्रतिक्रिया पर टिप्पणी करने से परहेज कर रहे थे।

बाद में एक-दो अवसरों पर और प्रिय पल्लव के साथ उनके पास गया। बातचीत हुई- हमने इस बीच अपना किया-धरा उनको दिया, उन्होंने देखा और हमेशा की तरह इसकी सराहना की और प्रोत्साहित किया। नामवरजी से हुई अंतिम भेंट सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण और उल्लेखनीय है। इस भेंट से लगा कि नामवरजी को प्राचीन साहित्य से कितना गहरा लगाव था, वे इसके संरक्षण और प्रकाशन के लिए कितने चिंतित थे और यह भी कि उनका आलोचकीय प्रस्थान कितना संघर्षपूर्ण था। यह भेंट तब की है जब उनकी स्मृति धुँधली होने लग गई थी। खास बात यह है कि धुँधली स्मृति के बाबजूद राजस्थान के प्राचीन साहित्य और संस्कृति के लिए उसमें कितनी गहरी और मजबूत जगह बनी हुई थी। साहित्य अकादेमी के एक आयोजन में थे। आग्रह अरुण कमलजी का था कि आज नामवरजी के पास चला जाए। नामवरजी के लिए उनके मन में असाधारण किस्म का सम्मान था। उनके दिल्ली में होने का एक मतलब नामवरजी से मिलना भी था। वे अक्सर बातचीत में नामवरजी घर जाने को तीर्थाटन कहते थे। लीलाधर जगूड़ीजी को साथ लेकर दोपहर के बाद हम तीनों शिवालिक आपर्टमेंट पहुँचे। बाहर ताला लगा हुआ था। गर्मी बहुत थी- हम पसीने में लथपथ थे। निराशा हुई- हम तीनों ने बारी-बारी से ताले को हाथ लगाकर परखा-तोला और पाया कि यह लगा हुआ था। अरुण कमलजी ने मोबाइल पर डायल किया, तो मोबाइल अंदर बज रहा था। अरुण कमलजी बहुत चिंतित और व्यग्र थे, उन्होंने दरवाजा खटखटाया, आवाजें दीं, पर भीतर से कोई उत्तर नहीं आया। हम सीढ़ियाँ उतर कर नीचे आ गए। हम तीनों बहुत देर तक ऊहापोह में खड़े रहे। अंततः अरुण कमलजी फिर ऊपर गए। उन्होंने इधर-उधर तलाश की और अंततः दरवाजे के पास दीवार पर लिखा हुआ एक मोबाइल नम्बर लेकर नीचे आए। नीचे आकर उन्होंने लगाया, तो पता लगा यह नामवरजी की सेवा करनेवाली एक युवती का नंबर है। कुछ देर में वह आ भी गई। उसने ताला खोला, नामवरजी आए और हमको देखकर बहुत प्रसन्न हुए। साहित्य अकादेमी से मुनि जिनविजय पर प्रकाशित विनिबंध की प्रति उनको दी। देखकर उन्होंने कहा- मुनिजी पर मोनोग्राफ आ गया, अकादेमी ने यह अच्छा काम किया। मुनि जिनविजय से उनकी अपने गुरु हजारीप्रसाद द्धिवेदी के कारण आत्मीयता थी। आदिकाल की अवधारणा के विकास में हजारीप्रसाद द्विवेदी ने जिन साहित्यिक रचनाओं का इस्तेमाल किया किया है, उनमें से अधिकांश मुनि जिनविजय के द्वारा अन्वेषित और संपादित-प्रकाशित थीं। उन्होंने हजारीप्रसाद द्विवेदी से सुना मुनि जिनविजय संबंधी एक प्रकरण भी हमें सुनाया। उन्होंने बताया कि शांतिनिकेतन में आचार्य क्षितिमोहन सेन, हजारीप्रसाद द्विवेदी और मुनि जिनविजय के बीच में किसी विषय को विचार-विमर्श चल रहा था। एक युवक विद्वान पर्याप्त तर्क देने के बाद भी असहमत था। उसकी असहमति में विनम्रता कम और दंभ ज्यादा था। अंततः कृशकाय मुनि जिनविजय ने लकड़ी उठाई और कहा कि वे केवल विद्वान नहीं हैं, वे जाति से राजपूत हैं और तदनुसार उत्तर देने की क्षमता भी रखते हैं। उन्होंने बताया कि वृद्धावस्था और कमजोर आँखों के बावजूद मुनिजी पांडुलिपियाँ सामान्य किताबों की तरह पढ़ते थे। फिर उन्हें अपने शोधकार्य के सिलसिले में किए गए राजस्थान प्रवास की स्मृति हो आई। वे अपने शोधकार्य के सिलसिले में राजस्थान और उसमें भी खास तौर पर बीकानेर में लंबे प्रवास पर रहे। उन्होंने बताया कि बीकानेर उस समय प्राचीन साहित्य के संरक्षण और शोध का केंद्र था। प्राचीन साहित्य की अधिकांश पांडुलिपियाँ वहीं थीं। यह वहाँ सक्रिय दो विद्याव्यसनी और प्राचीन साहित्य के विशेषज्ञ, अगरचंद नाहटा और नरोत्तम स्वामी के कारण संभव हुआ। उन्होंने यह भी बताया कि इटली के विख्यात राजस्थानी साहित्य के विद्वान एलपी तेस्सीतोरी का शोध कार्य का क्षेत्र भी बीकानेर ही था। अगरचंद नाहटा और नरोत्तनम स्वामी के प्राचीन साहित्य के संरक्षण और शोधकार्यों की उन्होंने सराहना की और दुःखी हुए कि अब नई पीढ़ी तो उनके संबंध में जानती तक नहीं है। ‘पृथ्वीराज रासो’ की पांडुलिपियाँ उनको इन दोनों विद्वानों से ही मिलीं और उन्होंने यहीं रहकर इन पांडुलिपियों की प्रतिलिपियाँ भी कीं ।

राजस्थान की संस्कृति और उसमें भी खासतौर पर यहाँ के आतिथ्य-सत्कार की उन्होंने जमकर सराहना की। उन्होंने बताया कि अपने शोधकार्य के लिए वे लगभग पूरा राजस्थान घूमे। यहाँ के लोगों से मिले प्रेम और आतिथ्य-सत्कार से वे अभिभूत थे। उन्होंने बातचीत में यह भी जोड़ा कि उस समय आज की तरह फैलोशिप वगैरह नहीं मिलती थी और उनके पास इतने पैसे नहीं थे, लेकिन राजस्थान के आतिथ्यप्रेमी लोगों के कारण उनको यहाँ कोई असुविधा नहीं हुई। शोधकार्य के लिए किए गए इस प्रवास और यात्रा में सहयोगी रहे अपने एक पुस्तक व्यवसायी मित्र चंपालाल रांका के संबध में उन्होंने हमें विस्तार से बताया। रांकाजी को उन्होंने बहुत प्रेम और आदर के साथ स्मरण किया। राजस्थान के ग्रंथागारों में संग्रहीत पांडुलिपियों की दुर्दशा और उन पर कोई काम नहीं हो पाने के कारण वे दुःखी थे। उन्होंने कहा कि इस दिशा में कुछ होना चाहिए। बातचीत में और भी कई प्रसंग आए। उस समय उन्हें साहित्य अकादमी द्वारा दी गई महत्तर सदस्यता का प्रसंग ताजा था। अरुण कमलजी ने स्मरण करवाया, उन्होंने निर्लिप्त भाव से सुन लिया, इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं की। अब वे इन सब से ऊपर उठ चुके थे। उन्होंने अपनी सेविका से कहा कि हमारा एक फोटो लो। वे हमारे बीच में बैठे और चित्र लिया गया। हमने चाय पी, अंत में उनके चरण स्पर्श किए और नीचे आए। अरुण कमलजी ने कहा कि आज की यह भेंट तो अ‍साधारण है- नामवरजी इतना खुलकर अपने अतीत को कम स्मरण करते हैं।

हिंदी में माहौल शुरू से ही कुछ ऐसा बना कि परंपरा और आधुनिकता में ही छत्तीस का आँकड़ा हो गया। यह नासमझी थी। दरअसल परंपरा ही अपनी निरंतरता में आधुनिक भी होती है और जो परंपरा अपनी निरंतरता में आधुनिक नहीं होती वह सही मायने में परंपरा नहीं है। नामवरजी की आधुनिक आलोचना परंपरा की निरंतरता का विस्तार और पल्लवन है। परंपरा में असहमति को भी अच्छा नहीं मानने का चलन हिन्दी में रहा, लेकिन असहमति भी परंपरा की निरंतरता का ही हिस्सा है। परंपरा असहमति से ही जीवंत और पुनर्नवा रह पाती है। यदि असहमति नहीं है, तो परंपरा ठहर जाएगी और यह परंपरा नहीं रहेगी। नामवरजी के तमाम आलोचना कर्म में इसीलिए असहमति भी निरंतर है। खास बात यह है कि कई जगह तो वे अपने गुरु हजारीप्रसाद द्विवेदी से भी असहमत होते हैं।

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