top of page
  • माधव हाड़ा

हिंदी आलोचना का संभ्रम और अंतर्बाधाएँ

मधुमती, जून 2019 में प्रकाशित

आलोचना साहित्य के आस्वाद में भोक्ता की मदद करती है। यह साहित्य के अर्थ-आशय तक भोक्ता की पहुँच को सुगम बनाती है। यह साहित्य के महत्त्व और मूल्य की प्रतिष्ठा भी करती है। यह साहित्य से संबंधित सामान्य सिद्धान्तों का निर्माण करती है और वक्त-जरूरत इनको पुनर्नवा भी करती है। अच्छी आलोचना में यही सब होता है। हिंदी में आलोचना के नाम पर जो कुछ उपलब्ध है और जो नया लिखा जा रहा है, उसमें यह सब एक साथ

नहीं है। हिंदी में आलोचना की समझ कई संशयों, दुविधाओं, चिंताओं और अंतर्बाधाओं के बीच गुजर कर धीरे-धीरे बनती है, इसलिए उसमें एक साथ सब अच्छा कभी नहीं होता। उसमें कभी कुछ, तो कभी कुछ के अच्छे होने की गुंजाइश ही निकल पाती है।

हिंदी आलोचना में साहित्य को समझने-पहचानने को लेकर संभ्रम और संशय बहुत है।। हिंदी के रचनाकारों की राय आलोचना के संबंध में अच्छी नहीं है। वे इसके संबंध कमोबेश में वही कहते हैं, जो कभी रिल्के ने कहा था कि “समीक्षा कर्म किसी कला सृजन को छूने तक की क्षमता नहीं रखता; उसके बारे में भ्रांतियों का प्रसार जरूर करता है।” कुछ बड़े रचनाकारों ने नंददुलारे-नगेंद्र टाइप आलोचना के विरुद्ध मुहिम चलायी। ऐसे कई नाराज कवि-कहानीकारों ने खुद आलोचना के मैदान में कूदकर दाँव भी आजमाए। साहित्य को जानने, समझने और परखने की कसौटियों के संबंध में भी इसमें कुछ साफ नहीं है। इसमें दायें-बायें किस्म की साफ-साफ धड़ेबंदी है। कुछ ऐसे हैं, जो मानते हैं कि साहित्य स्वयं जीवन को जानने-समझने का एक स्वतंत्र ढंग है। यह अपने तरीके से सच्चाई तक पहुँचता और उसको सबके सामने करता है। कुछ दूसरे ऐसे हैं, जो मानते हैं कि साहित्य को समाज के वंचित और गरीब तबके के साथ होना चाहिए। उनका जोर विचारधारा को मानने-अपनाने पर भी था। कुछ मानते हैं कि साहित्य जीवन की तस्वीर है, जबकि कुछ की धारणा है कि साहित्य जीवन से अलग कोई चीज है। हिंदी आलोचना में नए हाथ-पाँव मारनेवाले को कुछ समझ में नहीं आता है कि सही क्या है। वे कभी इस तरफ, कभी उस तरफ और कभी दोनों तरफ होते हैं, इसलिए रचना को समझने और उसका आनंद, मतलब मजा लेने, उसकी पैदाइश की बारीकियों का जानने, उसका महत्त्व आँकने और मूल्यांकन करने के उनकी कोशिशें आरंभ में अँधेरे में हाथ-पाँव चलाने जैसी होती हैं।

इस व्यापक संशय और संभ्रम के बीच भी हिंदी में एक अच्छी बात यह है कि गरियाने–लतियाने के बावजूद कवि-कहानीकार अपनी रचना की आलोचना की अपेक्षा करते हैं और इधर-उधर की धड़ेबंदी में भी अच्छी आलोचनाएँ हैं। खास बात यह है की इधर के कुछ लोग उधर की कुछ बातों को अच्छा मानते हैं और उधर के कुछ लोग इधर की कुछ बातों से सहमत हैं।

हिंदी में माहौल कुछ ऐसा है कि नवागत को यह बहुत बाद बात समझ में आता है कि आलोचना भी कमोबेश रचना जैसा ही मामला है। इसको भी दूसरों से सीखने के साथ, अपनी तरह कमाना-पाना भी पड़ता है। जब तक उसके यह समझ में आता है तब तक उसकी इधर-उधर धडेबंदी में दीक्षा हो चुकी होती है। वह यहाँ या वहाँ समर्पण कर चुका होता है। अब इधर-उधर के लोग उससे निष्ठा की अपेक्षाएँ करने लगते हैं। अब वह केवल दूसरों के कमाए-पाए पर निर्भर रहने लगता है। धीरे–धीरे यह उसकी आदत हो जाती है। कुछ लोग झिझक के साथ अपने कमाने-खाने के शुरुआत करते हैं, लेकिन हिंदी में परावलंबन की जैसी की महिमा है, उनको अपने पर भरोसा नहीं होता। उनको पुष्टि और समर्थन भी कम मिलता है। थे। हिंदी में ऐसा रिवाज है कि आप दूसरों को दोहराएँ, तो वाह-वाह और कुछ नया और अलग करें, तो निंदा और उपेक्षा मिलती है।

हिंदी आलोचना में यह समझने में बहुत समय लग जाता है कि साहित्य को जानने-पहचानने का आपका नजरिया बहुत व्यापक होना चाहिए। यह नजरिया अपने आप नहीं बनेगा। आप इसे अपने से पहले और अपने समय के लोगों की इससे संबंधित धारणाओं में अपनी जोड़-बाकी से बनाएँगे। मनुष्य की सीमाएँ हैं- उसके हित-अहित और राग-विराग हैं, इसलिए जो समझ बनेगी, उस पर इन सब का प्रभाव होगा। यह संभावना रहेगी कि यह समझ सीमित और छोटी हो, इसलिए तमाम तरह की संकीर्णताओं से बचना भी पड़ेगा। इसमें समय और स्थान की भिन्नता से फर्क भी पड़ेगा। एक समय और स्थान पर बनी समझ दूसरे समय और स्थान के लिए अनुपयोगी हो जाएगी। आप बहुत सारा दूसरों से लेंगे, फिर अपने विवेक से जाँचेंगे-परखेंगे, उसमें से कुछ लेंगे, कुछ छोड़ देंगे और कुछ अपना मिलाएँगे। कोई समझ अंतिम भी नहीं होगी- इसमें रद्दोबदल की गुंजाइश भी हमेशा रहेगी।

हिंदी आलोचना में कुछ अंतर्बाधाएँ और रूढ़ियाँ ऐसी हैं, जो अब उसकी आदत में आ गई हैं। हिंदी में आलोचना की शुरुआत अधिकांश लोग तत्काल होनेवाले साहित्य से ही करते हैं। धीरे-धीरे, बहुत समय बाद, समझ में आता है कि यह ठीक नहीं है। इस तरह आप अपनी विरासत, परंपरा से रूबरू होने से रह जाते हैं। अपनी विरासत और परंपरा की खूबियों और कमजोरियों से आपका सामना ही नहीं होता। आप अपनी परंपरा और मुहावरे को जाने बिना अपने वर्तमान को समझने-परखने लगते हैं। आपको यह समझ में नहीं आता कि वर्तमान ने पहले का क्या लिया और क्या छोड़ दिया है। इसी तरह आप यह भी नहीं समझ पाते कि वर्तमान में एकदम नया क्या है। इस आदत का ही नतीजा है कि हिंदी के साहित्य की विरासत और परंपरा का कुछ बहुत मूल्यवान अनदेखा छूट गया है। हिंदी के वर्तमान में अतीत का भी बहुत कुछ है, जिसकी भी अभी पहचान नहीं हई है। दरअसल अतीत की भी कोई पहचान अंतिम नहीं होती, समय के साथ इसको फिर जाँचते–परखते रहना चाहिए लेकिन हिंदी यह भी नहीं बराबर हो रहा है।

हिंदी की आलोचनात्मक और समझ और विवेक में औपनिवेशिक संस्कार की जड़ें भी बहुत गहरी और मजबूत हैं। ये इतनी गहरी और मजबूत हैं कि हमें अपनी विरासत और परंपरा में, जो भी है, सब छोटा और घटिया लगता है। अपनी समझ, विवेक, भाषा, मुहावरा, सब हमको खराब लगते हैं। उनके प्रति हमारा नजरिया हिकारत और घृणा का होता है, जबकि यूरोप और बाहर से जो भी आया है, वो हमारी निगाह में श्रेष्ठ और अच्छा है। यह एक ऐसी अंतर्बाधा है, जो अपनी परंपरा और विरासत को ठीक पहचानने में अवरोध की तरह आलोचना की दो-तीन पीढ़ियों में निरंतर है। यह विडंबना ही है कि हमारी निर्भरता अभी भी बाहर पर है। हम अपने समाज की सांस्कृतिक जरूरत के अनुसार कोई देशज आलोचनात्मक विवेक बना ही नहीं पाए। देशज आलोचनात्मक विवेक के बिना हम भारतीय साहित्य की ठीक से पहचान और परख कर पाएँगे, इसकी गुंजाइश बहुत कम है। भारतीय साहित्य उसकी देश भाषाओं में है, लेकिन औपनिवेशिक संस्कार के कारण देशभाषाओं का साहित्य उपेक्षा का शिकार है। देश भाषाओं के साहित्य की समझ और परख की बात तो दूर, हमारे यहां तो इन भाषाओं का ठीक से पठन-पाठन ही शुरू नहीं हुआ है।

दुर्भाग्य से हिंदी आलोचना में कुछ रूढ़ियाँ और रूपक रिवाज की तरह हो गए हैं। साहित्य की एक जरूरी पहचान यह भी है कि यह रूढ़ि और रूपक से बाहर और आगे होता है। हिंदी का दुर्भाग्य है कि इसकी आलोचना रूढ़ि और रूपक से बाहर ही निकलती। राममनोहर लोहिया ने कभी सही कहा था कि ‘‘मार्क्सवाद सहित भारत में बाहर से लाए गए हर सिद्धांत का एक दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि वह निष्प्राण कर दिया जाता है।” हिंदी में आलोचना में यही हुआ- कई सिद्धांत बाहर से लाए गए और ये जल्दी ही निष्प्राण होकर रूढ़ि और रूपक में बदल गए। पहले हिंदी आलोचना में विचार का रूपक हावी था और अब विमर्श के रूपक चल निकले हैं। लोग इनको लेकर इनके नाप-जोख के हिसाब से साहित्य की काट-छाँट में लगे हुए हैं। साहित्य में रूढ़ि और रूपक के नाप-जोख के अनुसार चरित्र और घटनाएँ नहीं होतीं। उसमें इस नाप-जोख से अलग और इधर-उधर भी बहुत होता है। हिंदी आलोचना में रूढ़ि और रूपक का बोलबाला इतना ज्यादा है कि उसमें नए आने वालों को अपना विवेक इस्तेमाल नहीं करने की आदत हो जाती है। इस विवेकहीनता ने हिंदी आलोचना में दाखिल-खारिज को बढ़ावा दिया। जो अच्छा था, उसमें सब अच्छा ही खोजा-देखा गया और जो खराब था, उसमें कुछ भी अच्छा नहीं है, यह मान लिया गया। इस दाखिल-खारिज से अलग अच्छे में खराब और खराब में अच्छा खोजने-तलाशने की समझ भी बहुत बाद में आई। विवेकहीनता से हिंदी आलोचना में खूँटे बन गए और लोगों की उन पर निर्भरता बढ़ गई। खूँटों से फतवे जारी होने लग गए और इनके अनुसार अपने और पराए का विभाजन हो गया। नवाचार, प्रतिभा और अध्यवसाय को पीछे ठेलकर गतानुगतिकता आगे आ गई। ऐसे माहौल में नवागत आलोचकों को अपने विवेक पर भरोसा करना अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मारने जैसा लगता है।

एक और बात जो बार-बार कचोटती है वह यह कि हिंदी की आलोचना अपनी परंपरा से इस तरह कटी हुई क्यों है? हमारे यहां आलोचना की भरत से लगाकर विश्वेशर पंडित तक दो हजार वर्ष से अधिक लंबी और समृद्ध परंपरा है, लेकिन यह विडंबना है कि हमारी आज की आलोचना में उसका कोई संस्कार और स्मृति नहीं है। यह सही है कि शास्त्र कई बार साहित्य के उन्मुक्त उगने-बढ़ने में बाधा बनता है, लेकिन यह भी सही है कि उसके अभाव में साहित्य अपनी मूल संकल्पना से हट भी जाता है। हिंदी में शास्त्र के प्रति अरुचि से माहौल ऐसा बना कि साहित्य कर्म के लिए किसी संस्कार, शिक्षा और अध्यवसाय को गैरजरूरी मान लिया गया। शास्त्र के अभाव में हिंदी में इस धारणा को बल मिला कि साहित्य अनायास है और इसके लिए किसी शिक्षा, संस्कार और अभ्यास की जरूरत नहीं है। आलोचना का एक काम शास्त्र निर्माण और सिद्धांत रचना भी है, लेकिन हिंदी में इस दिशा में कोई पहल ही नहीं हुई। सिद्धांत बने भी तो ये इतने इतने तात्कालिक थे कि चार-पांच साल में ही दम तोड़ गए। हमारी परंपरा में एक हजार वर्ष तक भरत, आनंदवर्धन और वामन ने जो सिद्धांत दिए, अगले एक हजार वर्ष तक अभिनव गुप्त, कंतक आदि उनकी व्याख्याएँ करके उनको पुनर्नवा करते रहे।

आलोचना भी रचना की तरह अपनी ही धुरि ही सधती है। परंपरा को भी अपनी धुरि पर ही पाना और कमाना पड़ता है। हिंदी आलोचना की मुश्किल यह है कि इसमें दूसरों पर निर्भराता खराब आदत शुरू से ही है। अब यह वयस्क होने की देहरी पर खड़ी है, इसलिए यह बहुत जरूरी है कि यह दूसरों पर निर्भरता से बाज आए और अपना कमाए-खाए।

संपर्क : 607 मैट्रिक्स पार्क, धनश्री वाटिका के पास, न्यू नवरतन कांपलेक्स, भुवाणा, उदयपुर- 313 001, राजस्थान, मोबाइल +91 94143 25302, E-mail: madhavhada@gmail.com

8 views0 comments
bottom of page