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  • माधव हाड़ा

प्रकृति के पड़ोस में कविता

बहुवचन, जनवरी-मार्च, 2016 में प्रकाशित

मनुष्य जीवन प्रकृति की रचना है इसलिए उसको देखने-समझने में प्रकृति को देखना-समझना शामिल है। कविता भी मनुष्य को देखने-समझने के दौरान ही प्रकृति से भी रूबरू होती है इसलिए कविता का प्रकृति से संबंध सदैव रहा है। यह अलग बात है कि यह संबंध बदलता रहा है। संबंध में होनेवाला यह बदलाव प्रकृति के कारण नहीं है। प्रकृति तो कविता में सदैव है, बदलाव का कारण कविता का स्वभाव है। वह निरंतर बदलती है-अक्सर उसमें संबंध का एक स्वरूप बनता है और फिर धीरे-धीरे यह रूढ़ि बन जाता है। कवि का भी यह स्वभाव है कि वह रूढ़ि के विरोध में खड़ा होता है और धीरे-धीरे वह संबंध का फिर एक जीवन्त स्वरूप गढ़ता है। कविता में प्रकृति का विरोध तो नहीं होता लेकिन इससे कवि संबंध की रूढ़ि का अक्सर होता है। कविता के इतिहास में इसलिए इस संबंध का स्वरूप कई बार बना और बदला। हिन्दी कविता को विरासत में इस संबंध के कई रूप मिले, जिसमें से कुछ को उसने अपनी ज़रूरतों के तहत बदल लिया और कुछ उसने ख़ुद बनाए। हिन्दी में गत सदी के छठे-सातवें दशक का समय इस संबंध में उठापटक का था। छायावाद में भी प्रकृति से कवि संबंध की कुछ रूढ़ियां बन गई थीं, इसलिए इनका विरोध शुरू हुआ। विरोध करने वालों में अज्ञेय प्रमुख थे। उनका मानना था कि प्रकृति से कवि संबंध का रूप बदल गया है। उन्होंने रूपांबरा की भूमिका में इस नए संबंध के बारे में लिखा कि “कालिदास प्रकृति के चौखटे में मानवीय संवेदनाओं का चित्रण करते थे, आज का कवि समकालीन मानवीय संवेदना के चौखटे में प्रकृति को बैठाता है।” कुछ अतिरिक्त उत्साही लोग इस बात पकड़ कर बहुत आगे निकल गए। विरोध छायावाद में बने प्रकृति संबंधी कवि समय का होना चाहिए था, लेकिन वे प्रकृति के विरोध में जा खड़े हुए और उन्होंने अपने काव्य से प्रकृति को ही बाहर कर दिया।


प्रकृति से भवानी प्रसाद मिश्र का कवि संबंध बहुत सहज और नैसर्गिक है और ख़ास बात यह है कि शुरू से लगाकर आखिर तक कमोबेश एक जैसा है। उनकी दीर्घकालीन कवि सक्रियता उत्तर छायावाद से शुरू होकर हमारे समय तक पहुंची, इस दौरान प्रकृति से कवि संबंध के कई स्वरूप बने-बिगड़े, लेकिन इनका उन पर कोई असर नहीं हुआ।। छायावाद और उत्तर छायावाद के बाद की कविता में प्रकृति से कवि संबंध को लेकर जो धारणाएं और मान-प्रतिमान बने भवानी प्रसाद मिश्र की कविता हमेशा उनके दायरे से बाहर की सिद्ध हुई। उन्होंने अपनी एक कविता में साफ़-साफ़ कहा कि मैं तुम्हारे / किसी भी बांटे से बंटूं नहीं / तुम्हारे किसी भी नाप में अंटूं नहीं। ख़ास बात यह है कि प्रकुति से अपने घनिष्ठ संबंध और लगाव को लेकर उनके मन में कभी कोई संदेह पैदा नहीं हुआ। छठे-सातवें दशक में नई कविता के दौर में प्रकृति काव्य के विरुद्ध माहौल बनाया गया। अज्ञेय ने रूपांबरा की भूमिका प्रकृति काव्य की अंत्येष्टि की घोषणा कर दी। उन्होंने किंतु-परंतु के साथ लिखा कि “नई काव्य प्रवृत्तियों को सामने रखकर एक अर्थ में कहा जा सकता है कि प्रकृति काव्य अब वास्तव में है ही नहीं। एक विशिष्ट अर्थ में यह भी कहा जा सकता है कि छायावाद का प्रकृति काव्य अपनी सीमाओं के बावजूद अंतिम प्रकृति काव्य था; यदि छायावादी काव्य मर गया है तो उसके साथ ही प्रकृति काव्य की भी अंत्येष्टि हो चुकी है।” भवानी प्रसाद मिश्र रूपांबरा में शामिल थे लेकिन उन पर इसका कोई असर नहीं हुआ। उन्होंने एक कविता लिख कर अज्ञेय की छायावाद की अंत्येष्टि संबंधी टिप्पणी का प्रत्याख्यान किया। उन्होंने लिखा-क्या कहा छायावाद है / और मरा हुआ / तब तो और भी जरूरी है इसे जिलाना / जंगल के फूलों को खिलाना / सिर्फ़ प्रकृति नहीं / कविता में भी / ये वसंत है भाई / वसंत है / क्या हर्ज़ / यह भवानी प्रसाद मिश्र नहीं है / सुमित्रानंदन पंत है।


भवानी प्रसाद मिश्र की कविता में प्रकृति ‘मानवेतर’ या ‘मनुष्य का प्रतिपक्ष’ नहीं है। उनके यहां प्रकृति मनुष्य के अस्तित्व का हिस्सा है। यहां यह मनुष्य के होने में उसके साथ है। यहां मनुष्य प्रकृति के दूसरे रूपों से अलग या उनके ऊपर नहीं है, वह उनके साथ और उनके बीच है। नदी, पहाड़. पेड़ आदि से उसका संबंध वही है जो किसी मित्र या रिश्तेदार से होता है। भवानी प्रसाद मिश्र विंध्य को पिता और नर्मदा को मां कहते थे और इनका स्मरण करके धार-धार रोते थे तो इसलिए इनसे उनका माता- पिता जैसा रागात्मक संबंध था। प्रभाष जोशी ने एक जगह इस संबंध पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि “विंध्य और नर्मदा पहाड़ और नदी से बाप और मां तभी बन सकते हैं जब उनसे हमारे रागात्मक संबंध हो। आप आल्पस या पेरीनीज को देखकर क्यों हिमालय की तरह प्रणाम नहीं करते और टेम्स के पानी से क्या आचमन किया जा सकता है। क्या मेरे गांव की भूरीबाई रेल से राइन नदी पार करे तो उसी तरह हाथ जोड़कर पैसा फेंकेगी जैसा धन्न नरबदा मैया हो कहते हुए करती है। आपको यह भान नहीं रहता कि आपका हाड़-मांस उस मिट्टी ने बनाया है जिसे विंध्य से नर्मदा बहा कर लाई है। आपका खून, आपका पानी नर्मदा का है। आप उनसे अपने मां-बाप, भाई-भौजाई, बहन-बहनोई, काका-काकी और अन्य तमाम रिश्तों के ज़रिए जुड़ते हैं। विंध्य और नर्मदा को याद करते हुए भवानी बाबू रोते थे तो इसलिए कि वे उन्हें अपने मां-बाप और सारे रागात्मक रिश्तों के प्रतीक लगते थे।” प्रकृति से प्रगाढ और मज़बूत रागात्मक संबंध का यह रूप उनकी कविताओं में सब जगह मौजूद है। घास उन्हें सोते हुए आदमी का शरीर लगती है। एक कविता में वे कहते हैं-सुबह टहलते-टहलते हरी दूब पर पांव पड़े / तो लगा जैसे पड़ गया हो पांव किसी सोते हुए आदमी के शरीर पर। वे कई बार प्रकृति से अपना सुख-दुःख बांटते और बतियाते मिलते हैं। अपनी एक कविता प्यासी प्रकृति में वे तारे से बतिया रहे हैं और उसको अपनी कविता सुना रहे हैं। इस कविता के अंतिम अंश में वे कहते हैं- तब मैंने एक सितारे की तरफ़ मुंह किया / और अपनी कविता उसे सुनाई/साफ़ देखा मैंने/ वह पहले से ज़्यादा चमका और अपनी गर्दन / यों हिलाई / मानो कह रहा हो / और सुनाओ एक कविता / बहुत दिनों बाद / मैंने कुछ सुनने लायक सुना है / तुमने इसके लिए चुनकर मुझे / लगभग एक ज़रूरतमंद को चुना है। पेड़ उनके लिए आत्मज है। वे कहते हैं-मैं बिना कुछ सोचे / बैठा-बैठा निहारता रहा उसे छोटे से / हरे उस अपने आत्मज को। वृक्ष की काट-छांट उनको दुःखी करती है। वे कहते हैं- हर वृक्ष का अपना अपना व्यक्तित्व होता है / अलबत्ता हम जिन्हें अपनी रूचि से काटते--छांटते रहते हैं / उन्हें कर देते हैं लगभग एक सा अपने ही व्यक्तित्वहीन अस्तित्वों की तरह।


भवानी प्रसाद मिश्र के प्रकृति से गहरे और अटूट संबंध की जड़ें उनकी लोक संपृक्ति में है। हिन्दी कविता में यह वह समय था जब लोग गांवों को छोड़कर शहरी हो रहे थे और उनकी कविता में शहरी सरोकार और मुहावरों की चकाचौंध चरम पर थी। भवानी प्रसाद मिश्र इस चकाचौंध से अप्रभावित और हमेशा दूर रहे। उनकी जड़ें अपने लोक में थी और उनका कवि वहीं से अपना खाद-पानी ले रहा था। दूसरा सप्तक का उनका आत्मकथ्य इसमें संकलित दूसरे कवियों से थोड़ा अलग है। यह इसके संपादक की नवाचारों की घोषणाओं से भी कम मेल खाता है। उन्होंने इसमें बहुत अकृत्रिम ढंग से अपने घर-गांव में अपनी जड़ों के बारे में टिप्पणी की है। वे कहते है-“छोटी-सी जगह में रहता था, छोट--सी नदी नर्मदा के किनारे, छोटे-से पहाड़ विंध्याचल के आंचल में, छोटे-छोटे साधारण लोगों के बीच। एकदम घटनाविहीन अविचित्र मेरे जीवन की कथा है।” यह सच्चाई है कि तमाम उलटफेर के बावजूद अभी भी हमारा लोक प्रकृति के पड़ोस में है और उसके दैनंदिन जीवन में अभी उससे आदिम संबंध के कई संस्कार और स्मृतियां हैं। भवानी प्रसाद मिश्र इस लोक में पूरी तरह डूबे और रमे हुए थे इसलिए इस लोक का प्रकृति का पड़ोस भी उनकी कविता का हिस्सा है। वे दिल्ली, मुम्बई, हैदराबाद कहीं भी रहे हों, यह लोक और उसकी प्रकृति उनकी स्मृति से जाती नहीं है। उनकी एक कविता है दिल्ली दूरस्त, जिसमे वे फागुन और चैत में दिल्ली से दूर अपने लोक में रहना चाहते हैं। वे कहते हैं- जब फागुन और चैत में / रंग बरसेंगे/पहाड़ों और मैदानों में / जब खेतों में सुबह से रात तक / कंठों से निकल कर सुर गूंजेंगे / चैती के/उतरेंगे भीतर प्राणों में / तब हम / कुछ और / करें या न करें / दिल्ली से दूर रहेंगे / वहीं-कहीं / जहां बरसेंगे सुर गूंजेंगे / चैती के खेतों में / सुबह से रात तक। उनकी एक और कविता वसंत दिल्ली में में भी लोक के सहज और नैसर्गिक जीवन के बरक्स महानगर के ठंडे और कृत्रिम जीवन का वर्णन है। इसमें वे कहते हैं- फागुन और चैत में रुके रहे दिल्ली में / तो सुनोगे आसपास इमारतें बनने-बनाने के / सिलसिले में / इस्पात की बड़ी मशीन की / इस्पात के / किसी छोटे-बड़े टुकड़े पर / चोट की आवाज़ें / देखोगे खिले और लटकते हुए / पलाश और अमलताश की / जगह / उड़ते हुए लोहे की चिनगारियां / जो लोहे को / झुकाने और जोड़ने में / छूटती हैं/ फुलझड़ियों की तरह। भवानी प्रसाद मिश्र का मुहावरा और शब्दावली सीधे लोक से आती है। लोक ने सदियों के अभ्यास से प्रकृति को देखने-समझने और पहचानने का जो ढ़ंग ईज़ाद किया है भवानी प्रसाद मिश्र उसी का इस्तेमाल करते हैं। उनका मुहावरा और शब्दावली शहरी और अभिजात आधुनिकों को अटपटी लग सकती हैं। जल कर सफेद काली राखड़ हो गया, सूखी पड़ी नदियां सो भदभदा गई रे, पहले झले का पानी जैसे अकास पानी जैसे प्रयोग उनके लिए प्रयोग नहीं हैं, यह वह मुहावरा है जिसे लोक ने गढ़ा-बनाया है।


जीवंत रागात्मक संबंध के कारण भवानी प्रसाद मिश्र कविता में मनुष्य जीवन की पहचान और समझ के लिए प्रकृति का पारंपरिक उपयोग भी सबसे अधिक करते है। ख़ास तौर पर उनकी कविताओं में प्रकृति का रूपकीकरण खूब है। रूपकीकरण का उनका तरीका अलबत्ता अलग है। संस्कृत और बाद में हिन्दी में छायावाद के दौरान कुछ कविताओं में रूपकीकरण इतना यांत्रिक हुआ कि प्रकृति की उनमें हैसियत केवल एक उपकरण की रह गई और इसके कई कवि समय भी बन गए। भवानी प्रसाद मिश्र की ख़ूबी यह है कि वे अपने रूपकों में अप्रस्तुत को लगभग अदृश्य और सांकेतिक रखते हैं। इनमें प्रस्तुत इतना सघन और लगभग अपनी तरह का होता है कि कविता रूपक लगती ही नहीं है। उनकी दो कविताएं-नदी जीतेगी और थूहर इसका अच्छा उदाहरण हैं। नदी जीतेगी का निहितार्थ मानवीय प्रयत्न जैसा कुछ मान सकते हैं जो कविता में नदी के रूपक में आता है। कविता में अप्रस्तुत का कोई संकेत नहीं है- इसमे केवल नदी है। कविता की अंतिम पंक्तियां इस तरह से हैं-नदी देखती रहेगी / शायद कांपते पांवों/ धुंधली आंखों / हटते हुए किनारे को /देखती रहे शायद / वर्षा के आने तक / अब उसकी छाती में / तूफान के गाने तक / एक चुप्पी लगेगी / और आ जाने पर / वर्षा और तूफ़ान के / किनारे की नहीं / नदी की चलेगी / जिसने / किनारे को बनाया था! थूहर में रूपक लंबा हो गया है लेकिन यहां भी कविता में केवल थूहर है, अप्रस्तुत का कोई संकेत नहीं है और पाठक अपनी तरफ़ से कोई अर्थ करने के लिए स्वतंत्र है। कवि थूहर के संबंध में कहता है- मैं रहा खीझता / पौधा गड़बड़ है / एड़ी से लगाकर चोटी तक जड़ है / गरमी आई, गरमी का क्या कहना / सारा प्रदेश भुंजकर पापड़ हो गया / हर एक हरेपन का हामी हल्का / जलकर सफेद-काली राखड़ हो गया / पर तुम जैसे के तैसे खड़े रहे / तुम सदा एकरस रूखे अड़े रहे। इसी तरह की एक और कविता है सूरज अभी निकला नहीं है। इसमें अप्रस्तुत का उल्लेख अंत में है और यह बहुत सांकेतिक और इस तरह से है- रात मेरी भी ख़त्म हो गई है / अब और ज़रूरी नहीं लगता / वन्या के किनारे / रात काटने के ख़याल से /पड़े रहना। भवानी प्रसाद मिश्र प्रकृति का मानवीकरण भी करते हैं लेकिन उनका मानवीकरण छायावादियों से बहुत अलग तरह का है। उनकी एक कविता है सन्नाटा, जिसमें वे सन्नाटे का मानवीकरण करते हैं। यह सन्नाटा छायावादियों के रूमानी और रहस्यवादी सन्नाटे से अलग है। यह सन्नाटा वह है जिससे अक्सर हम दैनंदिन जीवन में रूबरू होते रहते हैं। सन्नाटा इसमें ख़ुद अपने संबंध में बताता है- मैं सूने में रहता हूं ऐसे सूना / जहां घास उगा रहता है ऊना; / और झाड़ कुछ इमली के, पीपल के, / अंधकार होता है जिनसे दूना। / तुम देख रहे हो मुझको जहां पड़ा हूं / मैं ऐसे ही खंडहर चुनता फिरता हूं / मैं ऐसी ही जगहों में पला, बढ़ा हूं।


भवानी प्रसाद मिश्र की कविता की प्रकृति सजी-संवरी और कटी-छंटी प्रकृति नहीं है। यह जैसी है वैसी ही उनकी कविता में आती है। प्रकृति संबंधी पारंपरिक कवि समयों के आदी लोगों को उनकी प्रकृति बहुत अटपटी और उबड़-खाबड़ लग सकती है। प्रकृति को आंकने-देखने में इसलिए भवानी प्रसाद मिश्र की निर्भरता पारम्परिक कवि समयों और अभिप्रायों पर लगभग नहीं है। वे कवि समयों के हिसाब से प्रकृति को छोटा-बड़ा या अच्छा-बुरा नहीं करते। वे उसके छोटे-बड़े या अच्छे-बुरे को एक साथ देखते-समझते हैं। उनकी विख्यात कविता सतपुड़ा के जंगल में सड़े पत्ते, जले पत्ते, हरे पत्ते, जले पत्ते सब एक साथ हैं। ये नींद में डूबे हुए अनमने जंगल घिनौने भी हैं और पूत, पावन, पूर्ण रसमय भी हैं। उनकी कविता गांव इस लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण है। इस कविता का गांव मैथिलीशरण गुप्त के अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है और सुमित्रानंदन पंत के ग्राम्या के गांव से अलग हमारा असली गांव है। इस गांव में झोंपड़ी है, घर नहीं है। झोंपड़ी के फटकिया है, दर नहीं है। यहां धूल उड़ती है और धुंए से दम घुटता है। यहां स्त्रियां धूल, गोबर और कचरे में भरी हुई हैं। यहां की सुबह का चित्र भवानी प्रसाद मिश्र इस तरह खींचते हैं-गांव में पहली किरण के साथ जागे, / चैन जगने पर नहीं जिनको, अभागे; /जोतना है खेत हल के साथ निकले, / बीज बोना है कि दल के साथ निकले। / सुबह की ठंडी हवा कपड़े नहीं हैं, / पांव रखते हैं कहीं, पड़ते कहीं हैं, / पांव जिनमें गति नहीं कंपन बहुत है, / प्राण में जीवन नहीं तड़पन बहुत है। ख़ास बात यह है कि भवानी प्रसाद मिश्र के स्वर में यहां करुणा तो है लेकिन भावुकता बिलकुल नहीं है। गांव के पनघट का वर्णन करते हुए वे वहां एकत्रित स्त्रियों की हंसी को तो पकड़ते हैं लेकिन यह कहना नहीं भूलते कि यह हंसी दुख में सनी है, खोलती है। आशा के संकेतों में भी वे बहुत संयम बरतते हैं। उनके यहां आशा का अतिवाद नहीं है। वे इसको दुःख के बरक्स रखते हैं। गांव के चरवाहों के संबंध में वे लिखते हैं कि भले हैं तनिक गा-से रहे हैं, / और अपने दुःख पर छा-से रहे हैं। दो घड़ी सूरज उन्हें बहला सका है, / हम सुखी हैं जोश में कहला सका है।


प्रकृति में भी वर्षा भवानी प्रसाद मिश्र को सबसे अधिक प्रिय है। बादल और वर्षा से मनुष्य का आदिम संबंध है इसलिए यह उसके दैनंदिन जीवन और भाव संसार में आलंबन-उद्दीपन सब हैं। कवियों के यहां वर्षा के कई रूप हैं लेकिन जैसी वर्षा हिन्दी में भवानी प्रसाद मिश्र की कविता में वैसी बहुत कम कवियों के यहां मिलती है। वर्षा और उससे संबंधित प्रकृति रूप उनकी हर चौथी-पांचवीं कविता में अपने लिए जगह निकाले लेते हैं। उनकी बहुत लोकप्रिय और विख्यात कविताएं संयोग सॆ वर्षा और उसकी पड़ोसी मानवीय भावनाओं से संबंधित हैं। उनकी वर्षा लोक के साथ और लोक के बीच में है। लोक का वर्षा से निरंतर और आदिम संबंध है और वर्षा के साथ उसकी भावनाओं की उठापटक जुड़ी हुई है। ख़ास बात यह है कि यहां प्रेम ‘पीके’ की तरह फूटता और प्रेम और ‘पीका’ दोनों बरसात आने पर ही फूटते हैं। पहिला पानी में लोक में वर्षा से होनेवाली हलचल का बहुत सरल और अकृत्रिम वर्णन है। यहां लोक के मुहावरे में बिना किसी अलंकरण और तामझाम के वर्षा और उससे लोक में होनेवाली उठापटक जीवंत हो उठती है। गांव में वर्षा का वर्णन कविता में इस तरह से आता है-गांवों की बात बदली, जंगल की कुछ ने पूछो, / हर-सू में नया मंगल, मंगल की कुछ न पूछो, / सौ साठ रंग वाली नभ न कमान पाई, / बादल गरज उठा तो सबने जबान पाई, / गाया हजार मन से, रस्ते पे चल-रहे ने, / आफ़त को भूल गया आफ़त के पल-रहे ने, / डालों पे पड़े झूले छपरी में जमे आल्हा, / ढोलक को कई दिन में, थापों से पड़ा पाला, / हर एक अधमरे को बदली नचा गई रे, / बरसात आ गई, बरसात आ गई रे। घर की याद बहुत मर्मस्पर्शी कविता है। इसमें वर्षा के पड़ोस में घरबार और परिजनों की स्मृतियों की उठापटक है। वर्षा यहां कवि को उसके घर-परिवार और परिजनों के बीच ले जाती है। कविता एक जगह कहा गया है-बहुत पानी गिर रहा है, / घर निजर में तिर रहा है, / घर कि मुझसे दूर है जो, / घर ख़ुशी का पूर है जो, / घर कि घर में चार भाई / मायके में बहिन आई, / बहिन आई बाप के घर हाय रे परिताप के घर। वर्षा के दिल्ली पर प्रभाव पर भी भवानी प्रसाद मिश्र ने दरिद्र दृश्यों के बीच नामक एक कविता लिखी। यहां प्रभाव लोक से उल्टा है। यहां वर्षा के आगमन से कोई ख़ुश नहीं है। वे दिल्ली में पछुआ की पीठ पर बैठकर आए बादल के संबंध में कहते हैं- मन कहीं नहीं अटका इसका / और यहां आ गया / जहां मन अटकाने लायक कुछ नहीं है / मिली-जुली ऐश्वर्य / और दारिद्र्य की झांकियों के सिवा यहां इसे देखकर कोई ख़ुश तक नहीं हुआ / जो घरों में हैं / उन्होंने खिड़कियां बंद कर ली हैं / कि भीतर न जाए इसकी ठंडी हवा / जो बाज़ार में ख़रीदे के लिए आए हैं / वे निबटा रहे हैं जैसे-तैसे ख़रीदी / और भाग रहे हैं सस्ते-महंगे वाहनों में / घर की ओर / सौदा बिगाड़ू इस शोभा को कोसते।


हिन्दी में भवानीप्रसाद मिश्र अपने ढंग़ के अलग कवि हैं। उनकी कविताओं का अधिकांश उनके समय की दूसरे कवियों की कविताओं से कम मेल खाता है। प्रकृति के साथ उनका कवि संबंध भी ख़ास और अलग तरह का है। उनके समय के अधिकांश कवि प्रकृति के दर्शक और कुछ उसमें पर्यटक हैं, जबकि भवानी प्रसाद मिश्र उसके रिश्तेदार और पड़ोसी हैं। कहते हैं कि रिश्तों की जड़ें बहुत गहरी होती है और पड़ोसी आप बदल नहीं सकते।

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