समालोचन । 12 जुलाई, 2021 में प्रकाशित
जायसी की रचना चित्ररेखा के संबंध में लोग कम जानते हैं। दरअसल पद्मावत इतनी बड़ी और असाधारण काव्य रचना है कि इसकी वर्चस्वकारी मौजूदगी में जायसी की अन्य रचनाएँ दब गयी हैं। शोधार्थियो और खोज रिपोर्टों आदि के आधार पर जायसी की 25 रचनाओं का नामोल्लेख मिलता है, जिनमें से अभी तक केवल सात- पद्मावत, आख़िरी कलाम, अखरावट, चित्ररेखा, कहरानामा, मसलानामा और कन्हउत ही उपलब्ध हुई हैं। सखरावट, सकरनामा, ‘चम्पावत, इतरावत, मटकावत, लहतावत, मेनावत, मेखरावट, नैनावत, खुर्वानामा, मोराईनामा, मुकहरनामा,‘पोस्तीनामा, होलीनामा, परमारथ जपुजी और कुछ स्फुट कविताएँ भी जायसी की कही जाती हैं, लेकिन ये अभी तक उपलब्ध नहीं हुई हैं। विडंबना यह है की जायसी के परिचय में पद्मावत को छोड़कर उनकी शेष सभी रचनाओं की केवल नाम गणना ही होती है। पद्मावत को छोड़कर उनकी उपलब्ध अन्य रचनाओं के संबंध में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध नहीं है। चित्ररेखा इस अर्थ में महत्त्पूर्ण है कि इसमें वे सभी अभिप्राय और प्रवृत्तियाँ मिलती हैं, जिनका पल्लवन और विस्तार आगे चलकर पद्मावत में मिलता है। वैसे भी विद्वान यह मानते हैं कि जायसी आजीवन पद्मावत लिखते रहे, इसमें जोड़-बाकी करते रहे, इसलिए उनकी अन्य सभी रचनाएँ इसमें घुलमिल गयी लगती हैं। जायसी के कवि और सूफ़ी को जानना-समझना हो और पद्मावत जैसी महाकाय और गूढ रचना को पढ़ने का धैर्य न हो, तो इसके लिए चित्ररेखा आदर्श रचना है।
चित्ररेखा पदमावत से कुछ हद तक अलग रचना भी है। पद्मावत कमोबेश एक रूपक या ओट या अन्योक्ति रचना है, लेकिन चित्ररेखा उस तरह की रचना नहीं है। यह एक कथा रचना है, जिसमें आध्यात्मिक संकेत बीच-बीच में पिरोये गये हैं। यहाँ कथा के साथ, हर समय, पीछे चलने वाला अप्रस्तुत आध्यात्मिक अर्थ नहीं है, इसलिए इसकी कथा सीधी और सरल है। जायसी को इसमें अप्रस्तुत निर्वाह के लिए कथा के मोड़-पड़ावों को बढ़ाने-बदलने या उनको इधर-उधर करने ज़रूरत नहीं पड़ती। कबिलास, प्रेम पियाला, बिछोह जैसे सूफ़ी अभिप्राय यहाँ भी है, लेकिन कवि इनको चलती हुई कथा के बीच नियोजित करता है। वह इसके लिए कथा के प्रवाह को अभिप्राय के अनुसार इधर-उधर नहीं करता।
चित्ररेखा अवध-भोजपुर जनपद में प्रचलित एक लोक कथा पर आधारित है। चित्ररेखा के संपादक शिवसहाय पाठक अनुसार “यह थोड़े बहुत अंतर के साथ अवध-भोजपुर जनपद के ग्रामीण किस्सागो लोगों से आज भी सुनी जा सकती है।” पद्मावत भी लोककथा पर निर्भर रचना है, लेकिन यह लोककथा जैसे आस्वादवाली रचना नहीं है। चित्ररेखा में लोककथा जैसा सुख और आनंद है। लोककथाओं वाली सार्वकालिक और सार्वभौमिक कथा रूढियाँ और अभिप्राय- बेमल विवाह, नियतिनियत अल्पायु जीवन, आयु वृद्धि वरदान, बिछड़ गए प्रेमियों का मिलन आदि इसमें हैं। यह लोक कथा की तरह सीधी सरल रेखा में आगे बढ़ती है। यहाँ व्यर्थ का अभिप्रायपूर्वक किया गया कथा विस्तार, अवांतर और प्रासंगिक कथाएँ और इस कारण पैदा हुई जटिलताएँ नहीं हैं। अप्रस्तत रहस्यात्मक संकेत इसमें भी जगह- जगह आते हैं, लेकिन कथा पर बहुत वर्चस्वकारी नहीं हैं।
चित्ररेखा में भी पद्मावत की तरह जायसी के इस्लाम और उसके सूफ़ी मत में गहरी आस्था-विश्वास के पर्याप्त संकेत हैं। विजयदेवनारायण साही ने उनको ‘कुजात सूफ़ी’ मान लिया और यह धारणा हिंदी में चल निकली, लेकिन दरअसल ऐसा नहीं है। जायसी धर्मनिष्ठ व्यक्ति थे और मन से पूरी तरह मुसलमान और सूफ़ी थे। मुजीब रिज़वी ने इस संबंध में लिखा है कि “मुहम्मदी दीन की एकमात्र नियमावली कुरान है। जायसी इस ग्रंथ के अधिकारी विद्वान ज्ञात होते है। यदि उनकी रचनाओं में पदे-पदे कुरान की अनूदित आयतों को एकत्र किया जाए, तो इसका एक अवधी रूप ही उपलब्ध हो सकता है।” अखरावट’ में जायसी ने इस्लाम की सराहना करते हुए एक जगह लिखा है कि “विधिना के मारग हैं ऐते। सरग नखत, तन रोवां जैसे / तेहि मँह पंथ कहौं भल गाई। जेहि दू जग छज बड़ाई। / सो बड़ पंथ मुहम्म्द केरा। निरमल कैलास बसेरा।” अर्थात् आकाश के नक्षत्रों और तन के रोम के समान विधाता के अनेक मार्ग हैं, किंतु उनमें मुहम्मदी पंथ अत्यधिक लाभप्रद और महान् है। कबिलास, प्रेम पियाला, बिछोह जैसे सूफ़ी अभिप्राय चित्ररेखा में भी हैं और उनका लक्ष्य भी यही हैं। यह अलग बात है कि ये यहाँ निरंतर बहुत परदर्शी नहीं हैं।
देव कृपा से शोक के भीतर कभी-कभी सुख का अद्भुत संयोग उत्पन्न हो जाता है और जो सच्चे प्रेमी हैं, उनका बिछोह आनंद में बदल जाता है, यही इस लघुकाय रचना का प्रतिपाद्य है। चित्ररेखा भी मसनवी शैली की रचना है, जिसके आरंभ में ईश्वर, मुहम्मद, पीर और चार यार का वर्णन है। सौंदर्य वर्णन, विवाह का लोकाचार, मद्यपान, मदिरा, प्याला, सुराही, कलालिन और बाह्याचार की आलोचना भी इसमें है। ‘पद्मावत’ की तरह अवधी भाषा की इस रचना में सात अर्धालियों के बाद एक दोहे का धत्ता (ध्रुवक) लगाया गया है, लेकिन कहीं-कहीं इसमें व्यवधान भी आया है।
चित्ररेखा एक प्रति सालारेजंग पुस्तकालय, हैदराबाद और दूसरी प्रति अहमदाबाद मे किसी के निजी संग्रह में है।
1.
जायसी ने चित्ररेखा का आरंभ मसनवी परंपरा के अनुसार जगत के ‘करतार’ मतलब सृष्टा, मुहम्मद और चार मित्रों के वर्णन से किया है। उन्होंने शुरुआत में इस समस्त जगत की रचना करनेवाले करतार की सराहना और वंदना की है। उन्होंने कहा है कि “आदि एक बरनौं सो राजा। जाकर जगत सबे यह साजा॥” उनके अनुसार जगत के सृष्टा ने चौदह भुवनों को सजाया है। उसी ने चाँद, सूर्य, तारे, वन, समुद्र, पहाड़, स्वर्ग और धरती की रचना की। उसी ने विविध वर्णी सृष्टि उत्पन्न की हैं। वह चौरासी लाख योनि सहित जल, थल सर्वत्र निवास करता है। संसार में उसने जिसकी रचना की वह क्षणभंगुर है, केवल वह स्वयं अनश्वर है। समस्त सृष्टि सूरज, चाँद, तारे, धरती, गगन, बिजली, बादल एक डोर में बँधे हुए हैं। ये सब डोर में बँधे हुए उसकी तरह नृत्य करते रहते हैं। जायसी के अनुसार- “अगिन काठ घिव ख़ीर सो कथा/ सो जानी जो मन दई मथा।” अर्थात् उस करतार की मौजूदगी काठ में में अग्नि और दूध में घी की तरह है। जो मन लगाकर उसे मथता है, वही उसे पाता है। जायसी यह भी कहते है कि पहले तो यह करतार अज्ञात-निराकार और निर्गुण था, लेकिन सृष्टि की रचना के बाद यह जगत के रूप में स्थूल हो गया।
जायसी ने इसके बाद बाह्याचारों- काया-प्रक्षालन, भूमि पर सिर पटकना, जटा बढ़ाना, भभूत लगाना, गैरिक वस्त्र धारण करना, दिगम्बर योगी होना, काँटों के ऊपर सोना आदि को निस्सारता का वर्णन किया है। उन्होंने कहा है कि बाह्याडंबर तप-जप, नियम, कर्म-धर्म आदि से प्रेम की प्राप्ति नहीं होती है। यों तो मछली और मेंढ़क सदा पानी में ही रहते हैं, चमगादड़ भी अपने को ऊपर टाँगे ही रहता है, कुंभकार तो सदा ही भस्म में सना रहता है, वट और पीपल में भी तो कम जटाएँ नहीं है। जायसी कहते हैं कि- “जब लगि विरह न होइ तन, हिये न उपजइ पेम / तब लगि हाथ न आवै तप करम सत नेम॥” अर्थात् ओ भोले! कहीं ऐसे वेश से कुछ मिलता है? जब तक शरीर में विरह की व्याप्ति नहीं होती, हृदय में प्रेम उत्पन्न नहीं होता, तब तक तप, धर्म, कर्म और सत्य (मत) हाथ नहीं आते।
मुहम्म्द का वर्णन करते हुए जायसी कहते हैं कि उसी करतार ने प्रेम और प्रीत स्वरूप एक पुरुष की रचना की और उसका नाम मुहम्मद रखा। सब तरफ़ अंधकार और निराशा थी, जिसको मुहम्मद ने अपने प्रेम की ज्योति से उसको आलोकित किया। जो मनुष्य उनका नाम लेता है, जपता है, वही कविलास को प्राप्त करता है और वही बड़ा तपस्वी है। जिसके हृदय मे पाप एकत्र है, वह भी यदि उनका नाम लेता है, तो वह निर्मल हो जाता है। जायसी आगे कहते है कि- “उन ते भया संसार संपूरन, सुनहु बैन अस्थूल।/ वे ही सबके अगुवा , हजरत नबी रसूल॥” अर्थात् यह एक सूक्ष्म बात है कि उनसे ही यह सम्पूर्ण संसार हुआ है, वे ही हज़रत नबी रसूल और सबके अगुआ मतलब दूत हैं।
आगे परंपरानुसार चार यार का वर्णन करते हुए जायसी कहते हैं कि मुहम्मद के सृष्टा ने ही चार मित्रों की भी रचना की। इन चारों में से पहले अबाबकर सिद्दीक हैं। दूसरे हैं उमर उदल हैं, जिन्होंने अपने पुत्र के अन्याय की बात सुनकर उसे मरवा डाला। तीसरे उसमान हैं, जिन्होंने कुरान लिखकर सुनाया। चौथे रणगाजी अली सिंघ हैं।
आगे जायसी ने अपनी गुरु परंपरा का वर्णन किया है। वे कहते हैं कि सैयद अशरफ अत्यन्त प्यारे पीर हैं और मैं उनके द्वार का मुरीद हूँ। जहाँगीर चिश्ती समुद्र में जलयान सजाने वाले हुए हैं। हाजी मुहमद, शेख कमाल, जलाल, शेख मुबारक आदि की प्रशस्ति के पश्चात् जायसी ने अत्यन्त आदर के साथ अपने गुरु का स्तवन किया है। शेख बुरहान महदी उनके गुरु है और उनका स्थान कालपी नगर था। जायसी कहते हैं कि मेरे गुरु ने ही मुझे प्रेम-प्याला पंथ दिखाया (प्रेम पियाला पंथ दिखाया) है। इसके बाद कवि ने अपने विषय में लिखा है- “मुहमद मलिक प्रेम मधु भोरा। नाउँ बड़ेरा दरसन थौरा।” आगे उन्होंने अपने संबंध में और लिखा कि “हाथ पियाला साथ सुराही। पेम पीति लई और निबाही।” इस संक्षिप्त भूमिका के बाद जायसी चित्ररेखा की कथा प्रारम्भ करते हैं।
2.
चन्द्रपुर नामक एक अत्यन्त सुन्दर नगर था, जहाँ के राजा का नाम चन्द्रभानु था। यह नगर गोमती नदी के तट पर सुशोभिन था। उस नगर में चाहे राजा हो या रंक, सभी के घर मणियों से जड़े हुए थे। वहाँ के महलों में सोने के कलश लगे हुए थे। वहाँ की स्त्रियाँ तो मानो स्वर्ग की अप्सराएँ थीं। राजा के प्रासाद में सात सौ रानियाँ थीं और वे सभी अत्यंत सुंदर और साक्षात् अप्सराएँ थीं। उनमें से पटरानी का नाम रूपरेखा था। वह अत्यन्त लावण्यमयी और अपार रूपवती थी। उसके गर्भ से एक सुन्दर बालिका का जन्म हुआ। आनन्द के बाजे बजे और सभी तरफ़ बधाइयाँ दी ग़यीं। ज्योतिषी और गणक आए, जिन्होंने उसका नाम चित्ररेखा रखा। उन्होंने कहा कि- “यह कन्या निष्कलंक चाँद की तरह पैदा हुई है। रूप, गुण और शील में यह जगत में अन्यतम होगी। उन्होंने भविष्यवाणी की कि आज इसका जन्म चन्द्रपुर में हुआ है, लेकिन यह अंततः यह कन्नोज की रानी होगी।” धीरे-धीरे चाँद की कला के समान उसका विकास हुआ। दसवें वर्ष के आते-आते तो उसका शरीर पूर्णिमा के चाँद के समान पूर्ण रूप से प्रकाशित हो गया। उसके केश भौंरे, सर्प और शेष नाग जैसे हो गए, उसके कपोलों की ज्योति तो शरद के पूर्णिमा के चाँद की ज्योति थी और उसके नयन खंजन के समान हो गए। इसी तरह उसकी भौहें धनुष के समान, बरौनियाँ बाणों के समान और पलकें तलवार के समान हो गईं।
सावन में वह सखियों के साथ हिंडोला झूलती थी। जब वह सयानी हई, तो राजा चन्द्रभानु ने ब्राह्मणों को बुलाया और वर खोजने के लिए अगुआ (दूत) भेजे। वै सैकड़ों स्थान देख आए। उन्होंने देखा कि जहाँ राज्य था, वहाँ राजकुमार नहीं थे। अन्त में वे सिंघद के राजा सिंघनदेव के यहाँ आए। सिंघनदेव के एक ही लडका था, जो कुबड़ा था। अगुआ लोगों ने वहाँ का बड़ा राजपाट देखकर, रोका मतलब विवाह संबंध कर दिया। उन लोगों निश्चय किया कि विवाह के समय हम दूसरा वर दिखा देंगे और विवाह होने के बाद जो भी होगा, सो देखा जाएगा। पुरोहितों ने स्वास्ति-पाठ किया कुबड़े राजकुमार को टीका लगा दिया। लग्न-निर्धारित किया जाने लगा, परन्तु ज्योतिषियों ने साफ़ कहा कि- “चन्द्रमा और राहु का योग है- यह ब्याह न हो सकेगा।” यह कहकर ज्योतिषी लोग चले गए।
3.
कल्याण सिंह कन्नौज नगर के राजा थे। उनके पास पैदल, हाथी आदि कई प्रकार की अपार सेनाएँ थीं। वे सब प्रकार से सम्पन्न थे, किन्तु एक पुत्र के बिना वे बड़े दुःखी थे। उन्होंने घोर तप किया, जिससे राजमन्दिर में एक पुत्र का जन्म हुआ। कई पंडित और सामुद्रिक आए। उन्होंने राज्य सभा में कहा कि इस बालक का जन्म उत्तम घड़ी में हुआ है। उन्होने उसका नाम प्रीतमकुंवर रखा। उन्होंने कहा कि इस राजकुमार में बत्तीसों लक्षण हैं और यह अत्यन्त भाग्यवान होगा, किन्तु यह अल्पायु है। प्रीतमकुंवर का जन्म सूर्योदय की तरह हुआ और चारों तरफ़ उसका यश फैल गया। दस वर्ष की अवस्था में ही उसने सेना एकत्र कर शत्रु पर आक्रमण कर दिया। जब राजा कल्याण सिंह ने देखा कि पुत्र सर्वथा योग्य हो गया है, तो उन्होंने उसको समस्त राज-पाट सौंप दिया। राजकुमार को योग्यता से माता-पिता अत्यन्त प्रसन्न हुए। यह प्रसन्नता और सुख इतना अधिक था कि वे इस कारण वे उसका विवाह करना ही भूल गए। जन्म के समय पंडितों ने उसके अल्पायु होने की बात बताई थी और अब उसकी मृत्यु में केवल ढाई दिन शेष रह गए थे। वे दुःखी और रोने-पीटने लगे कि- “हाय, हमने पुत्र का विवाह तक नहीं किया। अब यह सूर्य सदा के लिए अस्त होने जा रहा है, भला अब हमारे संसार में कौन भौर की उजली किरणें लाएगा।” प्रीतमकुंवर ने माता-पिता को बहुत समझाया। वह एक घोड़े पर आरूढ़ होकर काशी की ओर काशी-गति (मोक्ष) के लिए चल पड़ा। उसके जाने के बाद कन्नौज उजाड़ हो गया। माता-पिता के हृदय विदीर्ण हो गए।
चन्द्रपुर नगर में राजकुमारी चित्ररेखा के ब्याह का उत्सव हो रहा था। उस नगर के पास आते-आते गर्मी की अधिकता के कारण प्रीतमकुंवर एक जगह छाया देखकर विश्राम करने के लिए रुक गया। विश्राम के दौरान काल के भय से उसे मूर्छा आ गई। सिंघनदेव अपने कूबड़े बेटे का ब्याह करने उसी मार्ग से जा रहा था। उसने भी उसी छांह में विश्राम करना चाहा, जहाँ प्रीतमकुंवर मूर्च्छित अवस्था में सोया हुआ था। सिंघनदेव ने देखा, तो समझ लिया कि यह किसी बड़े राजा का पुत्र है। उसके रूप को देखकर वह अत्यन्त प्रसन्न और आनन्दित हुआ। वह कुँवर के पास बैठकर हवा करने लगा। सोते हुए जब प्रीतमकुंवर की आँखें खुलीं, तो वह चौंक कर उठा, क्योंकि पर्याप्त देर हो चुकी थी। जब वह चलने लगा, तो सिंघनदेव ने उसके पैर पकड़ लिए। उसने राजकुमार से उसका नाम और उसकी उदासी का कारण पूछा। उसकी आसन्न मृत्यु की विपदा के संबंध में सुनकर सिंघनदेव ने कहा कि- “हम इस नगर में ब्याह करने के लिए आए हैं। मेरा बेटा कुबड़ा है, इसलिए तुम आज रात विवाह में उसका स्थान ले लो और वर बन जाओ। यह जान लो कि तुमसे यह विवाह नही हो रहा है। वर तो मेरा कुबड़ा बेटा है। तुम आज रात में मेरे बेटे की जगह विवाह कर लो और कल काशी चले जाना।”
सिंघनदेव ने उसे बीरा मतलब दायित्व दे दिया। उसे वर के रूप में सजाया गया। उसने अपने सब वस्त्र अत्यन्त दुःखी होकर उतार दिए। उसने सोचा कि कहाँ मैं काशी-गति मतलब मोक्ष के लिए चला थे और कहाँ बीच में ही यह विवाह होने लगा। राजा चन्द्रभानु के अगुआ लोगों ने दूल्हे को देखा। वे बड़े प्रसन्न और सुखी हुए। इस समय प्रीतमकुंवर की स्थिति भी विचित्र थी। जायसी ने लिखा है कि “कहाँ चलाई मरन कौं, पीछाहिं पकरी पेठ। परनारी के नायक, बनज पराए सेठ॥ अर्थात् कहाँ तो वह मरने को चला था और बीच में वह किस मार्ग निकल पड़ा है। अब वह वह परनारी का नायक और पराए व्यापार का सेठ था। बारात बाजे-गाजे के साथ चन्द्रभानु के द्वार पर पहुँची। सखियों ने बारात और दूल्हे को देखकर चित्ररेखा से बड़ी-बड़ी बातें कीं। बड़े ठाट-बाट से विवाह हुआ। सात खंड के धवल महल में उन दोनों को सुलाया गया।
प्रीतमकुंवर के लिए कहाँ चैन और कहाँ भोग! उसने सोचा आज यह सुख की सेज और कल स्वर्गारोहण। वह दुलहन की ओर पीठ करके सोता रहा- सोया क्या चिंता करता रहा। दुलहन सो गई। पिछला पहर होने लगा। उसने राजकुमारी के अंचल पट पर लिखा कि- “मैं कन्नौज के राजा का बेटा हूँ। जो विधाता लिख दिया है, वह मिटाया नहीं जा सकता। मेरी मात्र बीस वर्ष की आयु थी। वह पूर्ण हो गई, वह पुनः नही लाई जा सकती। कल दोपहर के पूर्व में काशी में मोक्ष-गति प्राप्त करूँगा। तुम्हारे लिए यह झंझट हुआ और मुझे यह दोष लगा।” यह लिखकर प्रीतमकुंवर घोड़े पर आरूढ़ हुआ और काशी की ओर चल पड़ा।
प्रातःकाल जब तारे डूबने लगे, तो सखियाँ चित्ररेखा के पास आयीं। उन्होंने देखा कि कन्या सोई हुई है और उसके साज-सिंगार वैसे के वैसे ही हैं। उन्होने उसे जगाते हुए कहा कि- “उठो! प्रातःकाल हो गया। वह तुम्हारा कंत किधर है? तुम्हारी सेज पर फूल वैसे ही हैं, जैसे हमने बिछाए थे। लगता है कि तुम्हारे अंग भी अछूते-अनालिंगित हैं। तुम पंडित हो, सयानी हो और चतुरा भी हो, भला किस अवगुण के कारण तुमने प्रियतम की सेज को स्वीकार नहीं किया!” सखियों के बहुत पूछने पर चित्ररेखा ने कहा- “मुझे कुछ भी पता नहीं है। मुझे तो उनके दर्शन भी न हुए। केवल ‘पीठ’ मिली। मैंने तो उनके रूप को भी नहीं देखा। जब वह पीठ की बात कह रही थी, तभी अचानक उसकी दृष्टि अपने आँचल के लेख पर पड़ी। उसने पढ़ना शुरू किया। पढ़ने के बाद उसे सारी बातें ज्ञात हो गई। राजकुमार काशी गए, मैं अप्सरा होकर उनकी दासी बनूँगी। में अत्यन्त शीघ्र अग्नि में जलकर अपन पति के ही साथ स्वर्ग जाऊँगी।
चित्ररेखा ने इतना कहने के बाद सिंघोरा मतलब सिंदूरदान निकाला। वह सिंदूर लगाकर आ खड़ी हुई। आँचल में बाँधी गांठ को हृदय से लगा कर उसने कहा कि- “प्रियतम ने यह बंधन देकर मेरा सम्मान किया है। अब इमी बंधन को लेकर मै स्वर्ग में जाऊँगी। हे प्रिय, यद्यपि तुमने मुझे इस प्रकार बिसार दिया, किन्तु में नारी हूँ। में स्वयं को जलाकर तुमसे मिलूँगी। यहाँ साथ न हुआ, तो कोई बात नहीं, वहाँ तो मैं तुम्हारे साथ चलूँगी।”
4.
प्रीतमकुंवर ने काशी में आकर मरने की तैयारी की। उसने दान करना शुरू किया। बड़े-बड़े जपी-तपी आ पहुँचे। उसके दान की ख्याति सुनकर सिद्धगण का उत्साह भी बढ़ा। महर्षि व्यासजी भी वहाँ आकर खड़े हो गये। राजकुमार ने उनको दान दिया। उसने व्यासजी से कहा- “गुसांई! आप भी लीजिए।” उसने भर मुठ्ठी दान दिया। व्यासजी का हृदय पसीज गया, उन्हें उसके प्रति छोह-स्नेह हुआ। फिर क्या पूछना! व्यासजी के मुख से निकल पड़ा- चिरंजीव तुम होऊ।”
राजकुमार को इस ‘चिरंजीव’ शब्द पर आश्चर्य हआ। मैं तो जल मरने के लिए प्रस्तुत हूँ। हे गुसांई ! यह चिरंजीव कैसा ! आप मेरे बड़े पिता हैं। मरते समय आपने मुझे जीने का आशीर्वाद दिया है। व्यासजी ने इस बात को मन में समझ लिया और कहा कि –“जो मुख से निकल गया, वह अन्यथा नहीं हो सकता। मैं व्यास हूँ और आज ही तुमसे मेरा मिलन हुआ है। विधाता ने मेरे मुख से यह बात कहलवायी है। चिरंजीव कहकर तुम्हारी आयु की अवधि बढा दी गई।”
राजकुमार ने व्यासजी के चरणों में नमित होकर प्रणाम किया। व्यास का नाम सुनकर राजकुमार का प्रत्येक अंग प्रफुल्लित हो उठा। अपने जीवन की लंबी आयु की बात सुनकर उसे ध्यान हुआ। उसके चित्त में चित्ररेखा की सुधि हो आई। वह सोचने लगा कि- “यदि वह धर्म, कुल और लाजवश जल गई, तो मेरा जीवन किस काम का आएगा?” उसने व्यासजी के चरणों का स्पर्श किया और घोड़े पर चढ़कर चल पडा। इधर चित्ररेखा जलने के लिए उद्यत थी। चिता सजाई जा चुकी थी, वह बैठ चुकी थी और अब केवल आग लगने भर की देर थी। ठीक इसी समय प्रीतमकुंवर का आगमन हुआ। वह चिता से उतरकर मन्दिर की ओर चली। राजकुमार के चिरंजीवी होने की बात चारों तरफ़ फैल गई। बाजे बजने लगे। जायसी कहते हैं कि- “दई आन उपराजा, सोग माँह सुख भोग / अवस ते मिलै बिछोही, जिन्ह हिय होई वियोग॥” अर्थात् देव ने आज शोक के मध्य सुख और भोग की स्थिति उत्पना की। वे जिनके हृदय में वियोग की होता है, वे बिछोही अवश्य मिलते हैं।
सखियों ने चित्ररेखा को पुनः जड़ाऊ हार आदि से ख़ूब सजाया। सखियों ने कहा कि “आज तुम्हारे पति तुमसे भेंट करना चाहते हैं। तुम्हारे समस्त संताप आज मिट जाएँगे। प्रियतम की सेवा में जिसका मन लगा है, उसका सुहाग दिन-दिन बढ़ता ही रहता है। सेवा करने से दोष नहीं लगता। सेवा करने से कंत कभी क्रोध नहीं करता। जो सेवा करते रहते हैं वे अंततः दसवी दशा तक पहुँच जाते है, और जो खेलते रहते हैं, वे पीछे पछताते हैं।”
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