'मीरां माधुरी' की भूमिका के रूप में प्रकाशित
यह विडंबना है कि मीरां के अतिमानवीय संत-भक्त रूप की लोकप्रियता के कारण उसके मनुष्य संत-भक्त पर सम्यक रूप से विचार नहीं के बराबर हुआ। विद्वानों ने लंबे समय तक इसकी अनदेखी की। मीरां की कविता समावेशी और उदार थी, इसलिए साँचों-खाँचों में काट-बाँट कर अपनी-अपनी मीरांएँ गढ़ने का सिलसिला बहुत पहले शुरू हो गया। धार्मिक आख्यानकार केवल उसकी भक्ति पर ठहर गए, जबकि उपनिवेशकालीन इतिहासकारों ने उसके जीवन को अपने हिसाब से प्रेम, रोमांस और रहस्य का आख्यान बना दिया। वामपंथियों ने केवल उसकी सत्ता से नाराजगी और विद्रोह को देखा, तो स्त्रीविमर्शकारों ने अपने को केवल उसके साहस और स्वेच्छाचार तक सीमित कर लिया। इस उठापटक में मीरां का वह मनुषय अनुभव और संघर्ष अनदेखा रह गया, जो उसकी कविता में बहुत मुखर है और जिसके संकेत उससे संबंधित आख्यानों, लोक स्मृतियों और इतिहास में भी मौजूद हैं। मीरां इतिहास, आख्यान, लोक और कविता में से किसी एक में नहीं है- वह इन सभी में है, इसलिए उसकी खोज और पहचान इन सभी में होनी चाहिए। मीरां का स्वर हाशिए का नही, उसके अपने जीवंत और गतिशील समाज का सामान्य स्वर है। यह वह समाज है जो मीरां को होने के लिए जगह तो देता ही है, उसको सदियों तक अपनी स्मृति और सिर-माथे पर भी रखता है। इस समाज की पहचान औपनिवेशिक, वामपंथी और अस्मिता विमर्शी साँचों-खाँचों में नहीं हो सकती। इस समाज की पहचान के लिए इसके दैनंदिन जीवन व्यवहारों और देश भाषा स्रोतों की खोज-पड़ताल भी अपेक्षित है।
हिंदी भाषा और साहित्य की बुनियाद रखे जाने के आरंभिक दौर में मीरां के संबंध में विस्तृत ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में विचार करनेवालों में बाबू ब्रजरत्नदास प्रमुख थे। उनकी पुस्तक ‘मीराँ-माधुरी’ 1948 ई. प्रकाशित हुई और आठ वर्ष बाद 1956 ई. में इसका दूसरा परिवर्धित-संशोधित संस्कण आया, लेकिन विडंबना यह है कि इसकी बहुत चर्चा नहीं हुई। मीरां पर इससे पहले कार्तिकप्रसाद खत्री की ‘मीरांबाई की जीवनी’, मुंशी देवीप्रसाद की ‘मीरांबाई का जीवन चरित्र’ पद्मावती शबनम की ‘मीरां : एक अध्ययन’ और जगदीशसिंह गहलोत की ‘मीरां की जीवनी और उसकी कविता’ आदि किताबें आ चुकी थीं। नरोत्तम स्वामी, सीताराम शरण, व्यथित हृदय, राजकुमारी श्रीवास्तव सहित कई लोगों ने भी मीरां के जीवन और कविता के संबंध में विचार किया था। हिंदी, बंगला, गुजराती और अंग्रेजी में मीरां पर कुछ लेख आदि भी उपलब्ध थे। कई विद्वान् और संत-भक्त मीरां के पदों का संग्रह भी कर चुके थे। इस उपलब्ध सामग्री की खास बात यह थी कि इसमें मीरां एक ऐतिहासिक स्त्री संत-भक्त की जगह प्रायः अतिमानवीय अस्तित्व की तरह वर्णित थी। मुंशी देवीप्रसाद की किताब में ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में मीरां पर विचार था, लेकिन एक तो यह किताब बहुत छोटी और दूसरे, उनके समय तक मीरां के समय से संबंधित सभी ऐतिहासिक स्रोत उजागर नहीं हुए थे। ब्रजरत्नदास विद्वान होने के साथ अन्वेषी भी थे और उनकी साहित्य के साथ इतिहास पर भी असाधारण पकड़ थी। उन्होंने पूरी निष्ठा और मनोयोग के साथ अपने समय में उपलब्ध सभी धार्मिक, ऐतिहासिक और पुरालेखीय सामग्री एकत्र की और इसके आधार पर मीरां का ऐतिहासिक मनुषय संत-भक्त रूप गढ़ने के काम की शुरूआत की। मीरां के लिए भक्ति और श्रद्धा भाव उनके मन में भी था, यह उनके विवेचन में दिखता भी है, लेकिन उन्होंने, जहाँ उनको जरूरत लगी, युक्ति और तर्क से भी काम लिया। यह अलग बात है कि बाद में क्षेत्रीय इतिहासों का विकास हुआ, कई नए पुरालेखीय और ऐतिहासिक स्रोत उजागर हुए और उनकी कुछ धारणाएँ इनके आधार पर गलत हो गईं।
‘मीराँ-माधुरी’ में मीरां के जीवन और कविता पर विस्तार से विचार करने के साथ ब्रजरत्नदास ने मीराँ के 469 पद भी दिए हैं। पुस्तक को परिवर्द्धित-संशोधित संस्करण में उन्होंने 37 पद और जोड़कर यह संख्या 506 कर दी है। उन्होंने स्पष्ट स्वीकार किया है कि पद हस्तलिखित स्रोतों के बजाय उपलब्ध प्रकाशित संग्रहों से संकलित किए गए हैं। मीरां के पदों के हस्तलिखित स्रोतों की उपलब्धता नहीं के बराबर है, इसलिए उनकी प्रकाशित संग्रहों पर निर्भरता गलत नहीं थी। परवर्ती संकलनकर्ताओं की निर्भरता भी हस्तलिखित स्रोतों की उपलब्धता के अभाव में प्रायः प्रकाशित स्रोतों पर ही है। ब्रजरत्नदास के संबंध में एक खास बात यह भी है कि वे अपने शोध और पद संकलन कार्य के दौरान पत्राचार द्वारा उन सभी विद्वानों- हरिनारायण पुरोहित, जगदीशसिंह गहलोत, श्रीमंजुलाल मजूमदार, मयाशंकर याज्ञिक आदि के संपर्क में थे, जिनके मीरां संबंधी कार्य को बाद में पहचान और मान्यता मिली।
1.
हिंदी, संस्कृत, फारसी, उर्दू और अंग्रेजी भाषा और साहित्य के विद्वान् और विद्याव्यसनी बाबू ब्रजरत्नदास भारतेंदु हरिश्चंद्र की बेटी विद्य़ावती के पुत्र थे। 1890 ई. में जन्मे ब्रजरत्नदास की आरंभिक शिक्षा घर पर ही हुई। बाद में 1926 ई. में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उन्होंने बी.ए. और 1929 ई. में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से एल.एल.बी. किया। कुछ समय तक उन्होंने वकालत की। साहित्य में उनकी प्रवृत्ति उनके मामा बालचंद और केदारनाथ पाठक की प्रेरणा से हुई। इतिहास में उनकी गहरी दिलचस्पी थी। उन्होंने आरंभ इतिहास से ही किया- ‘सर हेनरी लारेंस’, ‘बादशाह हुमायूँ’, ‘शाहजहाँ’, ‘यशवंतसिंह’, ‘स्वातंत्र्य युद्ध’ आदि उनकी आरंभिक ऐतिहासिक कृतियाँ हैं। ब्रजरत्नदास की साहित्यिक सक्रियता में भी उनका इतिहास प्रेम जारी रहा। उन्होंने खड़ी बोली हिंदी, उर्दू, हिंदी साहित्य, हिंदी नाटक आदि के इतिहास लिखे। हिंदूस्तानी अकादमी, इलाहाबाद के आग्रह पर उन्होंने भारतेंदु हरिश्चंद्र की संपूर्ण जीवन यात्रा पर बहुत महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक महत्त्व की किताब ‘भारतेंदु हरिश्चंद्र‘ लिखी। यह किताब भारतेंदु के जीवन के साथ उनके समय के सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिवेश की भी प्रामाणिक और महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है। ब्रजरत्नदास ने कई ग्रंथों का संपादन भी किया, जिनमें ‘खुसरों की हिंदी कविता’, ‘प्रेम सागर’, ‘रहिमन विलास’, ‘संक्षिप्त राम स्वयंवर’, ‘नंददासकृत भँवरगीत’, ‘भूषण ग्रंथावली’, ‘सत्य हरिश्चंद्र’, ‘भारतेंदु ग्रंथावली’ आदि महत्त्वपूर्ण हैं। ब्रजरत्नदास अनुवादक भी थे- उन्होंने फारसी से गुलबदन बेगम के ‘हुमायूँनामा’ और अब्दुल रज्जाक के ‘मआसिरुलउमरा’ का अनुवाद किया। संस्कृत से भी उन्होंने कई अनुवाद किए। उन्होंन भारतेंदु हरिश्चंद्र के पिता बाबू गोपालचंद के नाटक ‘जरासंधवध महाकाव्य’ के अंतिम भाग को पूरा कर प्रकाशित करवाया। ब्रजत्रत्नदास कवि भी थे- उन्होंने हिंदी और उर्दू में कविताएँ लिखीं, लेकिन ये सभी अप्रकाशित हैं। काशी नागरी प्रचारिणी सभा से भी वे संबद्ध रहे- वे इसके मंत्री, उपमंत्री और अर्थमंत्री के साथ प्रबंध समिति के सदस्य रहे।
विद्वान् होने के साथ ब्रजरत्नदास असाधारण किस्म के अन्वेषी भी थे और इतिहास की उनकी जानकारी बहुत व्यापक थी। उनके संग्रह में हिंदी, फारसी और उर्दू की 300 से अधिक पांडुलिपियाँ और कई दुर्लभ ग्रंथ थे। विधि का अध्ययन ने उनमें अपनी राय कायम करने के लिए तर्क और युक्ति से काम लेने की आदत डाली। यह आदत बाद में उनकी सहित्यिक समझ बनने में काम आई। पुनर्जागरण आंदोलन में सक्रिय काशी के विद्वानों से संबंध के कारण राजस्थान के सामंती अतीत की उनको विस्तृत जानकारी थी और इसको लेकर उनके मन में गहरा सम्मान भी था। उनकी पहली रचना ‘चित्तौड़ का अंतिम शाका’ राजस्थान के इतिहास से संबंधित थी। मीरां में उनकी दिलचस्पी उनके घर आनेवाले एक भजनीक के मीरां के पदों के गायन से प्रभावित होने के बाद हुई।
2.
मीरां के जीवन और कविता पर विचार करने के लिए ब्रजरत्नदास ने अपने समय में उपलब्ध सभी स्रोतों का खँगाला। खासतौर पर उन्होंने मीरां की जीवन यात्रा के निर्धारण में पहली बार इतिहास को ज्यादा महत्त्व दिया। उन्होंने भूमिका में इस बात का उल्लेख करते हुए लिखा है कि “प्रामाणिक इतिहासों के आधार पर इनके जीवन की रूपरेखा तैयार की गई है और दंतकथाओं का विवेचन किया गया है।” उन्होंने मेवाड़, मारवाड़ और मेड़ता के राजवंशों और उनके बीच विवाह संबंधों आदि का विस्तृत विवरण दिया। उन्होंने मेवाड़-मारवाड़, दोनों राजवंशों के आधिकारिक वंश वृक्ष दिए। उन्होंने इसके लिए कर्नल लेफ्टिनेंट जेम्स टॉड, विश्वनाथ रेउ, श्यामलदास, गौरीशंकर ओझा, जगदीशसिंह गहलोत, हरविलास सारड़ा सहित कई अन्य इतिहासकारों को उद्धृत किया। उन्होंने इतिहास के साथ प्रचलित धमाख्यानों का भी इस किताब में उपयोग किया। उन्होंने हरिराम व्यास, ध्रुवदास, नाभादास, प्रियादास, चतुरदास, नागरीदास, राघवदास के धर्माख्यानों के साथ वल्ल्भ संप्रदाय के वार्ताग्रंथों के प्रमाण दिए। धर्माख्यानों में वे दूर तक गए– उन्होंने कम लोकप्रिय नंदराम, प्रीणधन, सुंदरदास कायस्थ, जन लछमन, वख्तावर आदि के उन धर्माख्यानों का भी सहारा लिया, जिनको परवर्ती अध्येताओं ने कम उद्धृत किया है।
ब्रजरत्नदास की खास बात यह है कि उन्होंने मीरां के जीवन के मोड़–पड़ावों को उसकी कविता में उल्लिखित उसके समकालीन और पहले के संत-भक्तों- सेन, पीपा, धना, रैदास, कबीर, नामदेव, वामदेव, सदना करमाबाई और बलख बुखारा के जीवन की घटनाओं की तिथियों से प्रमाणित किया है। इसी तरह उन्होंने मीरां की कविता में उल्लिखित वृंदावन के मंदिरों और उनकी मूर्तियों– श्रीगोविंददेवजी, श्रीबाँकेबिहारीजी और श्रीमदनमोहनजी से मीरां की समकालीनता की पहचान की है। उन्होंने मंदिरों के निर्माण, प्रतिष्ठापन और पुनर्निर्माण की तिथियों को मीरां के जीवन के कतिपय तिथियों से मिलान किया है। मीरां की जीवन यात्रा के निर्धारण में बतौर साक्ष्य उनके समकालीन और पहले के संत-भक्तों और मंदिरों का इस तरह यहाँ पहली बार इस्तेमाल हुआ है। यह अलग बात है कि इन संतों और मंदिरों से संबंधित तिथियों में बाद में नई शोधों के आधार पर कई फेरबदल हो गए। बावजूद इसके ब्रजकृष्णदास की यह पहल उनके समय में सर्वथा नयी और युक्तिसंगत थी। परवर्ती अध्येताओं की ओर से इस दिशा में कोई खास पहल नहीं हुई।
मीरां और उसके परिजनों के जीवन की प्रमुख घटनाओं के समय, स्थान आदि के संबंध में ब्रजरत्नदास के विवरण को परवर्ती शोध भी पुष्ट करते हैं। मीरां और उसके परिजनों की जीवन यात्रा संबंधी तिथियाँ परवर्ती शोधों में भी कमबेश वही हैं, जो ब्रजरत्नदास ने दी हैं। उनकी कुछ धारणाएँ परवर्ती शोधों से मेल नहीं खाती। मीराँ के जन्म के समय के संबंध में ब्रजरत्नदास की धारणा अलग है- वे 1503 ई. को मीराँ का जन्म समय मानते हैं, जबकि अन्य अधिकांश अध्येताओं की राय में मीरां का जन्म 1498 ई. में हुआ। इसी तरह प्रारंभिक अध्येताओं की तरह ब्रजरत्नदास भी मीरां का जन्म स्थान कुड़की मानते हैं, जबकि परवर्ती अध्येताओं ने माना है कि उसका जन्म मेड़ता में ही हुआ, क्योंकि कुड़की की जागीर उसके पिता को उसके जन्म के बाद मिली। मीरां का निधन ब्रजरत्नदास अधिकांश अध्येताओं की तरह 1546 ई. में द्वारिका में मानते हैं, जबकि परवर्ती कई अध्येता नई शोधों के आधार पर यह मानते हैं कि द्वारिका से वह तीर्थ यात्रा पर निकल गई और उसका निधन 1563-65 ई. में हुआ।
मीरां के जीवन संबंधी कुछ धारणाओं में ब्रजरत्नदास अपने समय से आगे थे। मीराँ के साथ हुए अन्याय और उसके उत्पीड़न को लेकर शुरू से ही लोगों में भ्राँति थी। मीरां की कविता में बार-बार प्रयुक्त ‘राणा’ शब्द से लोगों ने मान लिया कि राणा सांगा और भोजराज मीरां का प्रतिपक्ष थे, जबकि वस्तुस्थिति इससे एकदम अलग थी। ऐतिहासिक तथ्य यह पुष्ट करते हैं कि ससुर राणा सांगा और पति भोजराज से मीरां के संबंध सामान्य थे। ब्रजरत्नदास की यह धारणा युक्तिसंगत और सही थी कि मीरां के साथ अन्याय और उसका उत्पीड़न विक्रमादित्य के कार्यकाल (1531-1536 ई.) में हुआ। मीरां के साथ अन्याय रत्नसिंह के समय भी हुआ, लेकिन ब्रजरत्नदास इसकी चर्चा नहीं करते। उनके समय तक यह भी भ्रांति थी कि भोजराज जोधपुर के राठौड़ों की बेटी राणा संगा की रानी धनाबाई का पुत्र, मतलब राठौड़ों का भानजा था। बाद की शोधों से यह प्रमाणित हुआ कि भोजराज नहीं, रत्नसिंह धनाबाई का बेटा और राठौड़ों का भानजा था। मेड़ता और जोधपुर के राठौड़ों के बीच के शत्रुतापूर्ण संबंधों के कारण रत्नसिंह से भी मीरां के संबंध कटुता और तनाव के थे। बाद में यह प्रमाणित हुआ कि भोजराज धनाबाई का नहीं, सोलंकी रायमल की बेटी कुँवराबाई का पुत्र था। श्यामलदास और मुंशी देवीप्रसाद ने ही इस भ्रांति का निवारण कर दिया था कि मीरां महाराणा कुंभा की पत्नी थी, लेकिन कर्नल टॉड के वैदुष्य के प्रभाव के कारण यह कई विद्वानों के यहाँ अभी मान्य थी। ब्रजरत्नदास ने एक फिर बल देकर इसका खंडन किया। उन्होंने लिखा कि “मीरांबाई मेड़तिया राठौड़ होते हुए भी राणा कुंभा की स्त्री थी, कोरा भ्रम मात्र और अग्राह्य है।”
ब्रजरत्नदास ने मीराँ संबंधी जनश्रुतियों की विस्तृत आलोचना की। जनश्रुतियों को लेकर उनका रवैया कुछ अतिरिक्त आलोचनात्मक है। वे इनको ‘व्यर्थ बकवाद’ कहकर खारिज कर देते हैं। यह स्वाभाविक है, क्योंकि ब्रजरत्नदास उस पीढ़ी के थे, जो अपने को पारंपरिक अर्थ में ‘आधुनिक’ कहती-मानती थी। मीरां और तुलसीदास के बीच पत्र व्यवहार की जनश्रुति को उन्होंने दोनों की जीवन यात्रा की तिथियों के आधार पर सिरे से नकार दिया। उन्होंने लिखा कि “कुल विचारों पर ध्यान देते हुए यही निष्कर्ष निकलता है कि मीरांबाई तथा गोस्वामीजी का पत्र व्यवहार भंडकथा मात्र है।” अकबर के तानसेन को साथ लेकर मीरां से मिलने जाने की घटना भी उनके अनुसार दंतकथा मात्र है। यह सिद्ध करने के लिए उन्होंने मीरां के जीवन और मृत्यु और भोजराज से उसके विवाह की तिथियों के प्रमाण दिए हैं। मीरां के रैदास की शिष्या होने के संबंध में उनकी धारणा है कि “रैदास जी इनके गुरु नहीं थे, केवल उनके शिष्यों ने उनका महत्त्व दिखलाने को कुछ पंक्तियाँ प्रक्षिप्त का यह दंतकथा प्रचलित कर दी है।” मीराँ के चैतन्य संप्रदायी रघुनाथदास की शिष्या होने की बात उनके अनुसार गलत है। वे यह जरूर मानते हैं कि चैतन्य संप्रदायी साधुओं के संपर्क में मीरां जरूर आई होगी। मीरां की जीव गोस्वामी से भेंट को विभिन्न प्रमाणों के आधार पर वे सही मानते हैं, लेकिन वियोगी हरि की इस बात का खंडन करते हैं कि मीरां जीव गोस्वामी की शिष्या थी। ब्रजरत्नदास ने ‘मीरां’ नाम की व्युत्पत्ति पर विद्वानों की धारणाओं की विस्तार से समीक्षा की है। उनका अपना मत है कि ‘मीरां’ मीरां का उपनाम नहीं हैं, जैसाकि कुछ लोग मानते हैं। वे मीरां के मीरांशाह की दुआ से उत्पन्न होने के कारण हुए नामकरण की बात को गलत ठहराते हैं। उनकी धारणा है कि मीरां नाम संस्कृत के ‘मीरः‘ शब्द का ही विस्तार है।
3.
ब्रजरत्नदास ने मीरां के समय की धार्मिक परिस्थिति, उसकी भक्ति और कविता पर भी विचार किया, अलबत्ता उसके जीवन पर उनके विचार की तुलना में यह संक्षिप्त है। ब्रजरत्नदास यह तो मानते हैं कि अपने समय की निर्गुण परंपरा के संतों से सत्संग के कारण मीरां की कविता में उनकी रूढ़ शब्दावली है, लेकिन उनके अनुसार उस पर इनकी भक्ति का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इसी तरह कई सूफी प्रेमाख्यान भी मीरां के समय में लिखे गए, लेकिन उनकी राय में मीरां उनसे भी सर्वथा अप्रभावित थी। ब्रजरत्नदास मीरां को एकांत सगुणोपासक मानते हैं। उन्होंने साफ लिखा है कि “मीरांबाई की सगुणोपासना इतनी स्पष्ट है कि उनके ऐसे थोड़े से प्राप्त पदों से, जिनमें निर्गुण विचारों का पुट है, उन्हें निर्गुण पंथ में खींच लाना निरर्थक प्रयास मात्र है।” ब्रजरत्नदास की मीरां के प्रेम के संबंध धारणा परवर्ती धारणाओं से हटकर है। मीरां का प्रेम माधुर्य भाव का प्रेम है, यह तो कई लोगों की धारणा है, लेकिन ब्रजरत्नदास मानते हैं कि मीरां का कृष्ण के प्रति प्रेम गोपियों के प्रेम की तरह है। इसकी पुष्टि वे मीरां के संबंध में प्रचलित इस जनश्रुति से करते हैं कि वह “अपने को पूर्व जन्म की गोपी मानती थी और उपास्यदेव श्रीकृष्ण की पति भाव से भक्ति करती थी।”
मीरां की कविता को ब्रजरत्नदास युक्तिसंगत ढंग से अपभ्रंश से भी पहले से चली आती गीति काव्य परंपरा से जोड़ा है, जो सही है, लेकिन उनका जयदेव के ‘गीत गोविंद’ को खींच-खाँचकर मीरां का आदर्श मानना थोड़ा कम गले उतरता है। मीराँ को संगीत का ज्ञान था, ब्रजरत्नदास की यह बात सही है, लेकिन ऐसा किसी औपचारिक शिक्षा के कारण नहीं हुआ होगा। मीरां को अनुभव और अभ्यास से संगीत का कामचलाऊ ज्ञान हो गया होगा। मीरां की भाषा के संबंध में ब्रजरत्नदास की धारणा सही होते हुए भी मेवाड़-मारवाड़ से अपरिचय के कारण कुछ गलत हो गई है। मीरां की मातृभाषा राजस्थानी-मेवाती नहीं है, जैसाकि वे मानते हैं। उसकी भाषा पंद्रहवीं-सोलहवीं सदी में व्यवहृत मेवाड़ी-मारवाड़ी है। खास बात यह है कि पंद्रहवीं-सोलहवीं सदी में मेवाड़, मारवाड़, ब्रज और गुजरात में एक ही भाषा व्यवहार में थी, अलबत्ता स्थान-क्षेत्र के कारण इसमें कुछ अंतर आ जाता था। यह बात स्वयं ब्रजरत्नदास ने स्वीकार की है। उन्होंने माना है कि “इन तीनों भाषाओं (राजस्थानी, गुजराती और ब्रज) का मूल एक ही है और वर्तमान काल से चार शताब्दी पहले इनमें भेद भी कम रहा होगा।”
4.
‘मीराँ-माधुरी’ में मीरां के संकलित 506 पद विभिन्न स्रोतों से लिए गए हैं। ब्रजरत्नदास की मुश्किल यह थी कि मीरां के हस्तलिखित पद बहुत ही कम उपलब्ध थे। एक तो मीरां की कोई संप्रदाय और शिष्य परंपरा भी नहीं है, जो उसके पदों के हस्तलिखित रूपों को सुरक्षित रखती और दूसरे, जो उसके थोड़े से हस्तलिखित पद मिले हैं, उनकी भाषा बहुत अटपटी और विचित्र है और यह मीरां की मातृभाषा से मेल नहीं खाती। ब्रजरत्नदास ने इसीलिए उस समय तक प्रकाशित संग्रहों और भजन संकलनों से पद एकत्र किए। उन्होंने पाठ संपादन के दौरान पदों के मूल पाठ में कोई बहुत फेर-बदल भी नहीं किया। उनका आग्रह था कि “जब तक प्राचीन हस्तलिखित मूल पाठ उपलब्ध नहीं हो, पाठ वैविध्य को रहने देना चाहिए।” संकलित पदों में से अधिकांश नरोत्तम व्यास (स्वामी) की ‘मीरां-मंदाकिनी‘ (1930 ई.) से लिए हैं, जिसकी प्रामाणिकता को लेकर कोई बहुत विवाद नहीं है। संकलित पदों में वियोगी हरि, मुंशी देवीप्रसाद, पद्मावती शबनम, सदानंद भारती, कृष्णलाल, श्यामापति पाण्डेय के संग्रहों के पद भी शामिल हैं। ‘मीराँ-माधुरी’ के संशोधित-परिवर्धित संस्करण (1956 ई.) के समय ललिताप्रसाद सुकुल ने डाकोर में 1585 ई. की एक हस्तलिखित प्रति मिलने का दावा किया था। बाद में उन्होंने ये पद ‘मीराँ स्मृति ग्रंथ’ (1949 ई.) में प्रकाशित भी किए। इन पदों की भाषा को लेकर निरर्थक विवाद भी हुआ। ब्रजरत्नदास इनमें से भी कुछ पद ‘मीराँ-माधुरी’ में संकलित किए हैं।
मीरां को समझने-समझाने के लिए ‘मीराँ-माधुरी’ का महत्त्व निर्विवाद है। ब्रजरत्नदास के समय तक अधिकांश किताबों और पद संकलनों में मीरां एक अतिमानवीय संत-भक्त के रूप में देखी-समझी गई थी। उसकी जीवन का निर्धारण इनमें श्रद्धा और भक्ति के आधार पर हुआ था। मीराँ के अधिकांश जानकर भी उनके समय तक साहित्यकार या संत-भक्त और उनके अनुयायी ही थे। ब्रजकृष्णदास ने पहली बार व्यापक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में मीरां के मनुष्य संत-भक्त की पहचान की। इतिहास और शोध, दोनों अंतिम रूप से कभी पूर्ण नहीं होते- इनमें संशोधन संर्वद्धन होता रहता है। ब्रजरत्नदास की खास बात यह है कि उन्होंने निष्ठा और मनोयोग से अपने समय में उपलब्ध सभी ऐतिहासिक और पुरालेखीय स्रोतों का उपयोग मीरां की पहचान बनाने में किया। ब्रजरत्नदास की भारतेंदु हरिश्चंद्र विषयक किताब शोध और आलोचना के लिहाज से असाधारण किताब थी। भारतेंदु के दौहित्र होने के कारण उनकी यह किताब बहुत चर्चित हुई और इस चर्चा में उनका दूसरा बहुत महत्वपूर्ण कार्य अलक्षित रह गया। ‘मीराँ-माधुरी’ भी उनकी अलक्षित रह गई बहुत मूल्यवान् किताब है। आशा है, इसका यह पुनर्प्रकाशन इसकी महिमा को उजागर करनेवाला सिद्ध होगा।