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हमारा प्राचीन साहित्य

  • Writer: Madhav Hada
    Madhav Hada
  • Jun 3
  • 7 min read

आज मुनि जिनविजय की पुण्यतिथि है। प्रस्तुत है उनका एक व्याख्यान



मेरे अध्ययन के प्रिय विषय, हमारा प्राचीन इतिहास और भाषा विकास विषयक है। इसलिए मैंने इस विषय में यथाबुद्धि और यथाशक्ति कुछ संशोधन, संपादन और संग्रह आदि का मौलिक कार्य किया है और सतत किये जा रहा हूं। राजस्थान और गुजरात के पुरातन ग्रन्थ भंडारों का लगभग कोई तीस वर्षों से, मैं निरीक्षण करता आ रहा हूं और भण्डारों में हमारे प्राचीन इतिहास और भाषा साहित्य के साथ संबंध रखने वाली जो कुछ साधन सामग्री मुझे दृष्टिगोचर होती रहती है उसका अध्ययन और अवलोकन करता हूं। मेरे इस अध्ययन और अवलोकन से मुझे ज्ञात हुआ कि हिन्दी भाषा के प्राचीन इतिहास, क्रम विकास, संवर्द्धन, रूपान्तर और अवस्थान्तर इत्यादि के बारे में विद्वानों ने अभी तक बहुत कम अन्वेषण किया है और बहुत कम तथ्य प्राप्त किया है।


यद्यपि इतःपूर्व कई अध्ययनशील योग्य विद्वानों ने हिन्दी भाषा के इतिहास और साहित्य के स्वरूप को प्रकाश में रखने के लिये अनेक अभिवादनीय प्रयत्न किये हैं और छोटे-बड़े कई ग्रन्थ लिखे-लिखाये हैं; तथापि उनमें हिन्दी के प्रारंभिक मूल स्वरूप का और उसके विस्तृत आकार-प्रकार का सम्यक परिचय कराने वाली तथ्यपूर्ण सामग्री बहुत कम देखी जाती है।


पुरातन हिन्दी अथवा पुरातन राजस्थानी के-जिसकी एक उपशाखा पुरातन गुजराती भी है-क्रम विकास का शृंखलाबद्ध और सुव्यवस्थित ज्ञान कराने वाली जितनी विशाल साहित्य सामग्री राजस्थान के पुराने पुस्तक भण्डारों में और अन्यान्य व्यक्तियों के अधिकारों में अब भी जो विद्यमान है उसका इन अध्ययनशील लेखकों और अध्यापकों को कुछ भी पता नहीं है। मेरे अवलोकन में ऐसी छोटी-बड़ी सैकड़ों नहीं, हजारों कृतियां आई हैं, जिनके अध्ययन और संशोधन  से, हम अपनी भाषा के जीवन क्रम का बड़ा अपूर्व ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। इन कृतियों के आधार से हम अपनी भाषा के, कम से कम विक्रम की आठवीं शताब्दी के अन्त से लेकर अठारहवीं शताब्दी के अन्त तक के, एक हजार वर्षव्यापी जीवन काल का, बहुत कुछ क्रमिक ज्ञान उपलब्ध कर सकते हैं।

यहां पर इन कृतियों का थोड़ा-सा नाम निर्देश करना भी मेरे लिये अशक्त हो गया है, तो फिर उनके ठीक-ठीक परिचय के कराने की तो बात ही कहां रही। पर आशा है कि आप इसका परिचय, आज नहीं तो,  कुछ समय बाद, मेरे अन्य लेखादि द्वारा प्राप्त कर सकेंगे।


मेरे इस अन्वेषण और अध्ययन काल में, ऐसे सैकड़ों पुरातन ग्रन्थ देखने में आये जो हमारी भाषा के प्रत्यक्ष अंग न होकर भी उसके अंग प्रत्यगों की संकलप्ना में बड़ी मूल्यवान सामग्री की पूर्ति करने वाले हैं। ये ग्रन्थ खास कर प्राकृत भाषा में हैं और कुछ संस्कृत में भी हैं।


विक्रम की आठवीं शती के अन्त में, इसी मेदपाट (मेवाड़) में चतुर्दश विद्यापारगामी हरिभद्र नाम का एक महान ब्राह्मण पण्डित हो गया, जो राजपुतोहित था। उसने एक दिन, चित्रकूट के किसी जिनचैत्य में रहने वाली याकिनी, नामक तपस्विनी जैन आर्यिका के मुख से रास्ते में जाते हुए, एक प्राकृत भाषामय गाथा की ध्वनि सुनी, जिसका अर्थ उसकी समझ में कुछ नहीं आया। उस सर्वविद्यानिधि को यह अभिमान था कि संसार में ऐसा कोई शाब्दिक विषय विद्यमान नहीं जिसका अर्थ मुझे ज्ञात न हो। पर उस आर्यिका की पढ़ी हुई गाथा का अर्थ न समझकर वह अपने ज्ञानवर्ग से विमुख हुआ और उस आर्यिका के पास जाकर शिष्यभाव से उसने उस गाथा का अर्थ पूछा। आर्यिका बड़ी वत्सलता के साथ उसे अपने गुरु के पास ले गई, जो ज्ञानपूर्ण होकर भी विनम्रता की उत्कृष्ट मूर्ति थे। हरिभद्र ने उन गुरु के समागम से कोई अपूर्व सम्यक दृष्टि प्राप्त की और अन्त में वे उनके अन्तेवासी हो गये। जैन सम्प्रदाय में जितने समर्थ ग्रन्थकार हो गये उनमें हरिभद्र का स्थान सबसे ऊंचा है। संस्कृत और भाषा में उन्होंने बड़े प्रौढ़ और गम्भीर विषयों के सैकड़ों ग्रन्थ बनाये। भट्टकुमारिल और शंकराचार्य की कोटि के वे महान दार्शनिक ग्रन्थकार थे। उनकी एक विशिष्ट और अनुपम प्राकृत कथा रचना है, जिसका नाम समराइच्चकहा है। दस हजार श्लोक संख्या जितनी यह विशाल कृति है। इस ग्रंथ में मैंने ऐसे अनेक शब्द पाये, जो अपनी भाषा के खास देश्य शब्द हैं।


इस प्राकृत कथा के जैसा ही एक दूसरा संस्कृत कथा ग्रंथ है, जिसका नाम उपमितिभवप्रपंच कथा है। इसका प्रणेता सिद्धर्षि नामक एक जैन विद्वान् यतिवर था, जो परम्परागत श्रुति के अनुसार महाकवि माघ का चचेरा भाई था। यह मारवाड़ के प्रसिद्ध उसी पुरातन शहर भिन्नमाल, जो एक समय में सारे राजस्थान का सांस्कृतिक और राष्ट्रीय केन्द्र था, का रहने वाला था। यह विद्वान यति पूर्वावस्था में एक बड़े धनाढ़्य साहूकार का पूत्र था और इसके बहुत सुशील रूपसुन्दरी पत्नी भी थी। पर यह दुष्ट मित्रों के संसर्ग के कारण नामी जुआरी बन गया। रोज रात के वक्त बहुत देर से घर में आते रहने के कारण, इसकी माता ने दुःखी होकर, एक दिन इसे शिक्षा देने के निमित्त, घर के दरवाजे बिल्कुल नहीं खोले। तब अन्धेरी रात किसी आश्रयस्थान में बिताने के निमित्त, यह इधर-उधर की गलियों में भटकने लगा, तो इसने एक पुराना-सा मकान देखा जिसके दरवाजे यों ही खुले पड़े थे और अन्दर बैठे हुए मुनि मन-मन में ईश्वर के नाम की माला फेर रहे थे। यह जुआरी वहां जा चढ़ा और उन मुनि के पास शान्ति से बैठ गया। सारी रात उसी तरह चुपचाप बैठे रह कर बिताई और सवेरा होने पर मुनि से कुछ उपदेश सुना। इस उपदेश से इसको अपने निकृष्ट जीवन से उपरति ही आई और अन्त में यह उन मुनि का शिष्य बन गया। दीक्षित होने के बाद इसने खूब विद्याध्ययन किया और फिर नामी साहित्कार बना। इसकी उक्त उपमितिभवप्रपंचकथा सारे ही संस्कृत साहित्य में एक अपूर्व कृति समझी जाती है। संस्कृत भाषा के इस महान ग्रन्थकार ने ऐसे सैकड़ों शब्दों का व्यवहार किया है, जो संस्कृत के कोषों में नहीं मिलते और जो देश्य भाषा के स्वत्व समझे जाते हैं। हमारी भाषा के इतिहास और विकास में इनका बहुत ही अधिक महत्त्व है।


विक्रम संवत 835 में जिसकी रचना हुई, ऐसा एक और महान प्राकृत कथा ग्रन्थ है, जिसको मैं वर्तमान में छपवा रहा हूं। यह रचना, मारवाड़ के जाबालिपुर (वर्तमान जालोर) में, जबकि प्रतिहार सम्राट नरहस्ती वत्सराज राज्य कर रहा था, पूर्ण हुई। यह ग्रन्थ देश्य भाषाओं के इतिहास की दृष्टि से बड़ा ही अपूर्व है। इसमें भारत की तत्कालीन 18 देश भाषाओं के कुछ वाक्यांश ग्रथित हैं। राजस्थान की बहुत-सी बोलियों में जा ’तू’ की जगह ’थुं’ ऐसा उच्चारण इसी रूप में, मुझे इस एक हजार वर्ष के पहले के बने हुए ग्रन्थ में मिला है और इसकी पुरानी हस्तलिखित प्रति, जो ताड़पत्र पर लिपिबद्ध है, सं. 1139 की लिखी हुई है और जैसलमेर के भण्डार में अभी तक सुरक्षित है।


भरत के नाटयशास्त्र में लिखा हुआ मिलता है कि अर्बुदगिरि (आबू पहाड़) के आसपास के लोगों की बोली में तकार की बहुलता यानी ’त’ अक्षर की अधिकता पाई जाती है। आज तक किसी भाषातत्त्वविद पण्डित को यह पता नहीं लगा था कि इस तकार की बहुलता का तात्पर्य क्या है। मेरे अवलोकन में इस तकार बहुलता का कुछ स्वरूप नजर आया, जिसका उल्लेख मैंने अपने अहमदाबाद वाले, गुजराती साहित्य सम्मेलन में दिये गये, व्याख्यान में किया है। विक्रम की छठी, सातवीं और आठवीं शताब्दी के कई ग्रन्थों में मुझे इस तकारबहुला भाषा के सैकड़ों उदाहरण मिल गये हैं।


राजस्थानी और हिन्दी में प्रसिद्ध दोहा छन्द के प्राचीनतम उदाहरण मुझे तीसरी-चौथी शताब्दी की रचनाओं में देखने को मिले। आठवीं-नौवीं शती की कृतियों में चउपई और छप्पय के दृष्टान्त भी उपलब्ध हुए। उसके बाद दसवीं, ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दियों के दरम्यान की तो अनेक बड़ी-बड़ी रचनाएं उपलब्ध हुईं और उनमें से कई अब प्रकाशित भी हो रही हैं।

बारहवीं शताब्दी की एक रचना में, किसी लोक प्रसिद्ध आभाणक का सूत्रसूचक यह दोहा उद्धृत किया हुआ मिला है-

खडी गड्डी बैल तुहुं बेटा जाया तांह।

रण्णिवि हुंति मिलावडा मित सहाया जांह॥

देखिये हमारी भाषा का कितना निकट स्वरूप इसमें उद्घोषित हो रहा है।


इसी बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी का एक ताड़पत्र लिखित ग्रन्थ मुझे पाटन के प्रसिद्ध भण्डार में उपलब्ध हुआ है, जिसका प्रकाशन शीघ्र ही, बम्बई के भारतीय विद्याभवन द्वारा होने वाला है। किसी दामोदर नामक ब्राह्मण विद्वान की यह कृति है। पूर्वी हिन्दी भाषा द्वारा संस्कृत व्याकरण के कुछ प्राथमिक पाठ पढ़ाने के निमित्त इसकि रचना की गई है। इसी प्रकार का एक और प्रकरण ग्रन्थ ज्ञात हुआ है, जो प्रायः चौदहवीं शती का है। इसके कर्ता का नाम है-संग्रामसिह और कृति का नाम बालशिक्षा है। जैसलमेर के भण्डार में इसकी असली प्रति विद्यमान है। इसमें अपनी राजस्थानी भाषा के व्याकरण की सामग्री संकलित है।


राजस्थानी के प्राचीन गद्य का जिसमें बहुत सुन्दर उदाहरण देखने को मिलता है, ऐसा एक संग्रह, मैंने पुरातन मन्दिर में बैठ कर तैयार किया था, जो गुजरात विद्यापीठ से प्रकाशित है। इस संग्रह में पंद्रहवी शताब्दी के महत्त्व के गद्य अवतरण एकत्रित किये गये हैं। इन अवतरणों में जिस भाषा का परिचय हम पाते हैं, वह उस समय प्रायः उत्तर में दिल्ली से लेकर दक्षिण में दमण तक-जो कि वर्तमान गुजरात की दक्षिण सीमा का अंतिम स्थान समझा जाता है-समान रूप से समझी जाती थी और लिखी जाती थी। इस समय के इस प्रकार के गद्य लिखाने के कई बड़े-बड़े ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं, जिसके अवलोकन से हमारी भाषा की प्राचीन समृद्धि का हमें बहुत कुछ वास्तविक ज्ञान प्राप्त होता है।


तेरहवीं शताब्दी से लेकर पंद्रहवीं शताब्दी के अन्त तक में, राजस्थान में जो रास, भाषा, फाग, चउपई और प्रबंध इत्यादि पद्य कृतियों का निर्माण हुआ है उसकी तो कोई गिनती भी करनी कठिन है।


ये सब कृतियां प्रायः उन जैन यतियों की हैं, जिन्होंने हमारी भाषा के भण्डार को सबसे अधिक समृद्ध और सबसे अधिक विस्तृत किया है। जब हम कबीर, दादू और रामस्नेही पंथ के सन्तों की वाणी का आदरयुक्त आकलन करते हैं और अष्टछाप आदि के रचयिता वैष्णव भक्तों की रचनाओं का उत्साहपूर्वक परिशीलन करते हैं, तब हमें इन जैन यतियों की उन अनुपम कृतियों का भी वैसे ही आदर और उत्साह से अध्ययन करना चाहिए। यह मैं आपसे इसलिये नहीं कहता कि मैं एक यतिशिष्य हूं (नहीं ‘था’ ऐसा कहना चाहिये-क्योंकि अब तो मैं अपने आपको सम्प्रदायों के अतीत और जात-पांत से परे ऐसा जीव मानता और कहता हूं) लेकिन इसलिये कहता हूं कि ये सब साहित्यकार हमारे राष्ट्र के और हमारे वाङ्मय के समान पोषक और परिवर्द्धक हैं। माता भारती की भव्य गोद में किसी प्रकार के धार्मिक, सामाजिक और सम्प्रदायिक भेदभाव को कोई स्थान नहीं है। यह माता अपनी सब संतानों का समान रूप से पालन करती है।

(उदयपुर में 1945 ई. में संपन्न हिंदी साहित्य सम्मेलन के स्वागताध्यक्ष के रूप में दिए गए वक्तव्य का अंश)

 
 
 

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