बनास जन । पुस्तक समीक्षा। जुलाई, 2022
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और आचार्य रामचंद्र शुक्ल—हिंदी के दो आधारों का ही नहीं, एक चर्चित बायनरी का नाम भी है। अक्सर आचार्य द्विवेदी के मत आचार्य शुक्ल के मतों से भिन्न एक अलग निगाह से बनी विचारों की दुनिया के भीतर ले जाते हैं। सुखद आश्चर्य है कि दोनों ही आचार्यों की मतभिन्नता को हिंदी साहित्य जगत ने ससम्मान स्वीकार किया। सम्मान भी है और बायनरी भी। दोनों साथ मौजूद हैं। यह महज़ अनायास नहीं है कि गुरुवर आचार्य द्विवेदी के लिए जब शिष्य नामवर सिंह पुस्तक लिखते हैं तो उसे ‘दूसरी परंपरा की खोज’ नाम देते हैं। शीर्षक का निहितार्थ साफ़ है—आचार्य शुक्ल की स्थापित परंपरा के बरक्स आचार्य द्विवेदी के विचार दूसरी परंपरा के पथ-निर्धारक हैं। इस विचार-भिन्नता का एक सिरा है—जनता की बजाए लोक की केंद्रीयता। आचार्य शुक्ल की वैचारिक दुनिया से गुजरते हुए आप अक्सर ‘जनता’ शब्द से रूबरू हुए होंगे, किंतु आचार्य द्विवेदी के यहाँ प्रवेश का रास्ता ‘लोक’ से होकर गुजरता है। यह अंतर महज़ दो शब्दों का नहीं, बल्कि दो दृष्टियों का है। वैसे भी शब्दों का चयन शब्दकोशों से नहीं, व्यक्ति की दुनिया को देखने
की निगाह (जिसे पढ़े-लिखे लोग ‘दृष्टिकोण’ कहते हैं) से होता है। उपनिषद में तो यहाँ तक लिखा है—“वाग्वै विश्वकर्म्मर्शि वाचा हीदं सर्व्वकृतम्” अर्थात् वाणी संपूर्ण चेतना है, वाणी ही से प्रत्येक वस्तु का गठन हुआ है। पर यह वाणी अर्थात् भाषा किसी पहेली से कम नहीं होती। भाषा के इसी छलिए रूप को देखकर ही शायद आधुनिक भाषाविज्ञान के जनक माने जाने वाले सोस्युअर ने भाषा के पारदर्शी होने के भ्रम की ओर बार-बार संकेत किया था जिसे आगे डेनमार्क के भाषाविद लुई येमस्लेव (Louis Hjelmslev) ने बड़े रोचक ढंग से कहा था—“It is in the nature of language to be overlooked.”[i] चूँकि भाषा हमारे दैनिक जीवन में सुबह सोकर उठने से लेकर रात को सोने तक सर्वत्र फैली होती है इसलिए हम उसकी सत्ता को अक्सर महसूस ही नहीं कर पाते और जैसे कोहरे से गुजरने पर भी हम अनछुएँ रह जाते हैं, वैसे ही भाषा की संरचना के भीतर ही सोचने, समझने और व्यक्त करते रहने के बावजूद हम उस पर ध्यान नहीं देते। किंतु हमारे ध्यान देने न देने से उसके अस्तित्व पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। पर ये भाषा होती बड़ी काम की चीज़ है। पत्ते को हिलता देखकर या शरीर में ठंडी बयार से मिली शीतलता से आह्लादित होकर ही भले हम कभी-कभी ही हवा की उपस्थिति को महसूस करें, पर हवा होती तो हमेशा ही है; ऐसे ही विद्वान भले ही कभी-कभी ही अपने मूल मतों को प्रत्यक्षतः व्यक्त करें लेकिन उनकी मौजूदगी तो उनके द्वारा कही गयी हर बात के नेपथ्य में होती ही है, जिसे पकड़ने का एक रास्ता उनकी भाषिक संरचना से होकर गुजरता है। इसी से आचार्य शुक्ल और आचार्य द्विवेदी के संदर्भ में ‘जनता’ और ‘लोक’ का विशेष महत्त्व है। ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ तो आप सबने पढ़ा ही होगा और गौर फरमाया होगा कि उसकी शुरुआत आचार्य शुक्ल कुछ यूँ करते हैं—“जब कि प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आदि से अंत तक इन्हीं चितवृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य-परंपरा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही ‘साहित्य का इतिहास’ कहलाता है।”[ii] साहित्येतिहास संबंधी इस समझ के मूल में ‘जनता की चित्तवृत्ति’ है। दूसरी तरफ़ आचार्य द्विवेदी की
प्रस्तावना देखिए—“मैं इसी रास्ते सोचने का प्रस्ताव रखता हूँ। मतों, आचार्यों, संप्रदायों और दार्शनिक चिंताओं के मान-दंड से लोकचिंता को नहीं मापना चाहता बल्कि लोकचिंता की अपेक्षा में उन्हें देखने की सिफ़ारिश कर रहा हूँ।"[iii] बात साफ़ है। आग्रह यहाँ ‘लोक-चिंता’ का है। एक तरफ़ अपनी निगाह में ‘जनता की चित्तवृत्ति’ की केंद्रीयता स्वीकार की गयी है तो दूसरी ओर ‘लोक-चिंता’ की खुली सिफ़ारिश है। देखने पर भले ही दोनों बातें समान हों, किंतु दोनों प्रयोगों में दृष्टिगत अंतर है। आचार्य शुक्ल का 'जनता' शब्द ‘समाज के सभी वर्गों और समूचे जनजीवन को समेटता है। हज़ारीप्रसाद द्विवेदी का प्रिय शब्द ‘लोक’ है जो जनता के अपेक्षाकृत पिछड़े वर्ग को संकेतित करता है। यों द्विवेदी जी की चिंता समाज के पिछड़े वर्ग की ओर अधिक है। तब यह भी स्वाभाविक है कि आचार्य शुक्ल के मानक कवि जनता में प्रिय कवि तुलसी हैं, जब कि आचार्य द्विवेदी के मानक कवि लोक में प्रिय कवि कबीर हैं।’[iv] जनता शब्द का एक सिरा शिक्षित और तथाकथित सभ्य समुदाय से भी जुड़ता है जो अपने अधिकारों-कर्तव्यों अर्थात् अपनी परिधि के प्रति सचेत है, किंतु लोक अपने आधिकारों के प्रति लापरवाह या कहें कि अनभिज्ञ आस्थावान आबादी का नाम है जो परंपरा में विश्वास, सामुदायिक जीवन-शैली, प्रकृति से सहज रिश्ता, धीमी गति का जीवन और परिवर्तनों की तीव्र गति से धीमे परिचित होने जैसी विशेषताओं से मिलकर बनता है।
तुलसी को लोक से परहेज़ नहीं। और फिर तुलसी को लोक ने जितना सम्मान दिया उतना बेहद कम ही संभव हो पाता है। पर यह भी सच है कि तुलसी के मर्यादित राम की तरह तुलसी का काव्य भी एक प्रकार की आभिजात्यता से निर्मित है। संस्कृत के विद्वान तुलसी द्वारा अवधि और ब्रज को अपनी काव्य-रचना के लिए चुनना उनके लोक-प्रेम को तो व्यंजित करता है किंतु इस बात को भी नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता कि तुलसी की अवधी और ब्रज भी संस्कृत की तरह सुव्यवस्थित-नियमबद्ध प्रतीत होती हैं। कबीर और मीरां जैसी भाषाई लोकधर्मिता उनके यहाँ नहीं। लोक में भाषा से एक ख़ास तरह का रिश्ता बरता जाता है। लोक भाषा का उतना ही प्रयोग करता है जितने कम-से-कम में बात कह दी जाए। इसी से धूप में सताए आप जब घर में घुसते ही ‘प्यास लगी है’ बोलते हैं न, तो उसमें यह भाव निहित रहता है कि आप पानी माँग रहे हैं, जबकि अगर महज़ शब्दों को देखा जाए तो आपने तो केवल अपने प्यासे होने की सूचना दी थी। इसी से संस्कृत के आचार्यों ने वार्ता में अर्थ को शब्द से अधिक महत्त्वपूर्ण माना है। आशय है कि लोक भाषा के प्रयोग में शब्दों और उसकी व्याकरणिक संरचना के प्रति उतना सचेत नहीं रहता, उसका मुख्य ध्येय बस बात को व्यक्त कर देना होता है। ऐसा प्रयोग रचनाकारों में कबीर और मीरां की रचनाओं में मिलता है। ऐसा लगता है कि उनका सारा बल अपने भावों पर ही था, भाषा नैसर्गिक प्रतिभा से जितनी रचनात्मक हो गई, हो गई, अलग से उसके सजने-सँवरने की चिंता इन्हें नहीं है। अतः यह अकारण नहीं कि लोक को केंद्रीय स्थान देने वाले आचार्य द्विवेदी को कबीर प्रिय लगते हैं और उनकी मान्यताओं में भी यह दृष्टिकोण लगातार दिखाई पड़ता है। आचार्य द्विवेदी ही नहीं आगे हिंदी में ऐसे चिंतकों की उपस्थिति मिलने लगी जिन्होंने लोक को बहुत महत्त्व दिया। इधर सक्रिय चिंतकों में एक ऐसा ही नाम प्रोफ़ेसर माधव हाड़ा है।
माधव हाड़ा की सर्वाधिक चर्चित पुस्तक रही है—‘पचरंग चोला पहन सखी री’। पुस्तक मीरां पर केंद्रित है जिसका अंग्रेजी अनुवाद ‘मीरां वर्सेज़ मीरां’ भी सुधी पाठकों की चर्चा का केंद्र बना। मीरां हाड़ा जी को विशेष प्रिय हैं। आलोचनात्मक पुस्तक के अलावा उन्होंने ‘मीरां रचना संचयन’ का संपादन भी किया। क्या एल आलोचक के प्रिय रचनाकार और उसके दृष्टिकोण में कुछ साम्यता होती है या यूँ ही कोई भी रचनाकार प्रीतिकर प्रतीत होने लगता है? ज़ाहिर है और ऊपर के विश्लेषण से भी स्पष्ट है कि दोनों के मध्य एक संगति तो रहा करती ही है। हम अक्सर उन्हें पसंद करने लगते हैं जिनमें कुछ हमारी मान्यताओं या हमारे सपनों के अनुरूप होता है। यानी हम जैसा सोचते हैं या जैसा चाहते हैं, उसके अनुरूप। हाड़ा जी की दृष्टि की धुरी भी लोक है—“जनश्रुतियां मिथ्या नहीं होतीं—ये समाज की सांस्कृतिक भाषा हैं। इस भाषा का अपना अलग व्याकरण और व्यवस्था है। किसी समाज को समझने के लिए के लिए इस व्यवस्था और व्याकरण की सम्यक समझ जरूरी है। गत सदी के पूर्वार्द्ध में हमारे यहां यूरोपीय ढंग का आधुनिक होने की इतनी जल्दी और हड़बड़ी थी कि हमने अपने समाज की अधिसंख्य जनश्रुतियों को युक्ति और तर्क की कसौटी पर कस कर खारिज कर दिया। मीरां को समझने के लिए भी उससे संबंधित जनश्रुतियों का पुनर्पाठ और विश्लेषण जरूरी है।”[v] इसी आधार पर वे मीरां की एक नई व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। हाड़ा जी का यह लोक-केंद्रित दृष्टिकोण महज़ मीरां तक ही सीमित नहीं है बल्कि उसके बाद (इधर ही 2021 में) प्रकाशित हुआ उनके लेखों का संग्रह ‘देहरी पर दीपक’ इसी का विस्तार है। पुस्तक में कुल ग्यारह लेख हैं। आरंभिक चार लेखों के मूल में हाड़ा जी का यही दृष्टिकोण दिखाई पड़ता है। ‘देहरी पर दीपक’ अभिव्यक्ति की आज़ादी की वकालत करता है। लेख में भारतीय संस्कृति और परंपरा से तर्क निकालकर भारतीय लोक का वैविध्यमयी अभिव्यक्ति के प्रति रहा उदारता का चरित्र स्थापित किया गया है। मसलन कि “वेदों की अभिव्यक्तियाँ भी एकरूप नहीं हैं—ये कई लोगों की अलग-अलग धारणाओं और विश्वासों की अभिव्यक्तियाँ हैं। उपनिषद्काल में अभिव्यक्ति का यह बहुवचन सही मायने में चरितार्थ हुआ। उपनिषदों में व्यक्त विचार वैविध्यपूर्ण हैं। एक ही उपनिषद् के अलग-अलग अध्यायों में अलग-अलग लोगों के विचार हैं। कहीं-कहीं तो ये विचार परस्पर विरोधी हैं।” तथा “भारतीय दार्शनिक विचारधाराओं में असहमति को बहुत महत्त्व दिया गया है। दर्शनों में विवेचन और मीमांसा की जो पद्धति विकसित हुई, उसमें विरोधी या विपक्षी मतों के लिए स्थान पहले से निर्धारित है।”[vi] हमारे यहाँ विपक्षी के मतों को स्पष्ट करने के बाद उसकी काट तथा अपने सिद्धांत की स्थापना की पद्धति रही है। यानी एक ही व्यक्ति दोनों और से सोचने का प्रयास करता है और अंततः जो उसे अधिक उचित प्रतीत होता है उसे दूसरे के मत के लिए सम्मान प्रकट करते हुए रखता है।
‘भाषा में भाषा’ भारतीय भाषाओं के वैविध्य को लोक के स्वभाव के आधार पर प्रस्तुत करता है। आरंभ में ही हाड़ा जी भारतीय भाषाओं के परस्पर विरोधी आदि होने के नज़रिए को उपनिवेशकालीन विदेशी अध्येताओं का बताते हुए भारतीयों द्वारा उसके अनुसरण को अनुचित ठहराते हैं। उनका मत स्पष्ट है कि ग्रियर्सन आदि चिंतक विदेशी और भारतीय लोक के मर्म को नहीं समझते थे। पहाड़ आदि भौगोलिक विभाजकों के अलावा “अधिकांश इलाक़ों में जहाँ संपर्क और संवाद की निरंतरता है, वहाँ एक ही भाषा बदलती हुई बहुत दूर तक जारी रहती है। कभी-कभी यह इतनी बदल जाती है कि एक छोर की भाषा दूसरे छोर पर जाकर अलग जैसी भी लगने लगती है। फ़ैजाबाद-सुल्तानपुर की अवधी ही आरा-बलिया-छपरा पहुँचकर भोजपुरी हो जाती है।”[vii] तभी भारत में लोग भाषाओं को इस तरह अलग-अलग से देखने के आदी नहीं थे। खुद ग्रियर्सन ने इसे लक्षित किया था—‘एक सामान्य भारतीय ग्रामीण यह नहीं जानता कि जिस बोली को वह बोल रहा है उसका नाम भी है’। यहाँ के लोग अमूमन अपनी अपनी भाषा को देशभाषा या बोली कह देते थे और दूसरे व्यक्ति की भाषा को उसके क्षेत्र के आधार पर कोई नाम रख लेते थे जैसे—गुजराती, कौशली आदि। भाषाओं का मिश्रित प्रयोग भारतीय लोक की प्रवृत्ति थी इसी से यहाँ के कवियों ने भी एकाधिक भाषाओं का खूब प्रयोग किया। कबीर आदि संत कवियों और मीरां की भाषा तो इसका प्रमाण है ही, तुलसी भी दो भाषाओं का प्रयोग करते हैं। हाड़ा जी का मंतव्य है कि भारत में भाषाएँ एकदम विपरीत भिन्न नहीं बल्कि उनकी ‘विविधता इस तरह से है कि यहाँ भाषा से भाषा है या फिर भाषा में भाषा है’।
‘लोक का साँवरा पाठ’ की भाषा हो या कथ्य, हाड़ा जी की लोक-धर्मी दृष्टि यहाँ अपने संपूर्ण उभार के साथ है। विस्मयजनक है कि यह लोक-कथा साहित्यिक गलियारों में उतनी परिचित नहीं। वरना थोड़े-से मक्खन के लिए गोपियों के आगे नाचने वाले कृष्ण पर मुग्ध हम लोग यह जानते ही नहीं कि समधिन स्त्रियों की गालियां खाने वाला एक दुनियादार कृष्ण भी हमारे लोक ने गढ़ रखा है। हमें पता ही नहीं चल पाया कि ‘सोभित कर नवनीत लिए’ वाले कान्हा से भी ज्यादा अपने, नरसी मेहता की बेटी नानी बाई का मायरा भरने वाले सांवरा सेठ कृष्ण लगते हैं। कितने आश्चर्य की बात है कि एक महत्वपूर्ण लोक कथा जो राजस्थान गुजरात में 'नरसी जी रो मायरो' के नाम से प्रचलित है, हिंदी आलोचना जगत के उन पन्नों से लगभग नदारद है जो कृष्ण के लोक धर्मी रूप के महिमामंडन के लिए लिखे गए। बहरहाल माधव हाड़ा बड़े सुंदर ढंग से इसे लेकर आते हैं। कहते हैं कि कृष्ण के भक्त थे नरसी मेहता। नरसी मेहता एक अत्यंत अमीर सेठ थे जिन्होंने एक दिन कृष्ण भक्ति के प्रभाव में अपना सब कुछ त्याग दिया और वैराग्य धारण कर लिया। किंतु लोगों के अपने रीति-रिवाज होते ही हैं। समय आता है कि नरसी जी की बेटी नानीबाई का माहेरा (भात/जिस लड़की का विवाह है, उसके ननिहाल यानी माँ के घर से लाए जाने वाला वस्त्राभूषण, धनराशि, मिष्ठान आदि) भरने का। नानीबाई के बेटी की शादी है किंतु नरसी के पास इतना धन कहाँ! अंततः बाप अपने आराध्य और बेटी अपने भाई भगवान कृष्ण से अनुरोध करती है और कृष्ण साँवरा सेठ का भेष धरकर माहेरा भरने आते हैं। “भगवान को मनुष्य बनाने का यह एक ढंग है, जो हमारे लोक ने सदियों के अभ्यास से खुद ईज़ाद किया है।”[viii]
मीरां इस पुस्तक में भी हैं। लेख है—‘मीरां की कविता का पाठ’, जो मीरां की कविताओं की प्रामाणिकता के संबंध में है। लेख में फिर हाड़ा जी की निगाह लोक से निर्मित होती दिखती है—“मीरां की कविता ठहरी हुई और दस्तावेज़ी कविता नहीं है। यह लोक में निरंतर बंटी-बिगड़ती हुई जीवन्त कविता है। यह लोक में रही, यहीं पली-बढ़ी और बदली, इसलिए मूल, प्राचीन और हस्तलिखित का आग्रह करने वाले ‘आधुनिकों’ को यह किसी अजूबे जैसी लगती है। उसका एक पद एक जगह अलग तरह से और दूसरी जगह अलग तरह से है। लोक के साथ उठने-बैठने के कारण यह इतनी समावेशी, लचीली और उदार है कि सदियों से लोक इसे अपना मानकर इसमें अपनी भावनाओं और कामनाओं की जोड़-बाकी भी कर रहा है। यह इस तरह की है कि लोक की स्मृति से हस्तलिखित होती है और फिर हस्तलिखित से एक लोक की स्मृति में जा चढ़ती है।”[ix] लोक की स्वीकृति का भाव देखिए! जहाँ आलोचकों की एक परंपरा ही इससे परेशान रही कि मीरां की रचनाओं को चुना कैसे जाए, वहीं हाड़ा जी उनसे लोक की संपृक्ति की एक अलग ही व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। आगे के लेखों में भी यह अनुराग झलकता रहता है।
‘विस्तृत मनीषी मुनि जिनविजय’ शीर्षक लेख मुनि जिनविजय के अथक परिश्रम और जीवन से परिचित कराता है। पाठक को महसूस होता है कि केवल कुछ ही लोगों की महत्त्व-स्थापना में हम न जाने कितने ही ऐसे चिंतकों की उपलब्धियों की आहुति चढ़ा देते हैं जिनके बिना हमारा अध्ययन-अध्यापन संसार अपना विस्तृत रूप ही साकार नहीं कर पाता। ‘हिंदी में कथेतर’ संस्मरण, रेखाचित्र, यात्रावृत्त आदि अन्य गद्य विधाओं की जानकारी देने वाला लेख है, जो उनके इतिहास के साथ-साथ उनके स्वरूप को भी उद्घाटित करता है। ‘कोकिल कूजत कानन’, ‘मोहभंग का रूपक’ और ‘आत्मसंघर्ष और असफलता’ क्रमशः सूरदास के भ्रमरगीत-सार, गिरीश कार्नाड के तुगलक नाटक और मुक्तिबोध की ब्रह्मराक्षस कविता पर केंद्रित लेख हैं। विषय की पर्याप्त विविधता तो है किंतु लेख अधिकतर परिचयात्मक ही प्रतीत होते हैं। लगता है मानो लेखक का प्रयोजन विषय से पाठक को परिचित करा उसके संदर्भ में चिंतन करने के लिए प्रेरित करना ही है, कुछ नया मत स्थापित करने में उसकी अधिक रुचि नहीं। संदर्भों की अनुपस्थिति भी इन लेखों में चिंतन की पैनी धार और प्रामाणिकता के प्रवेश का मार्ग अवरुद्ध करती है। किंतु अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद यह ग्रंथ विषयगत विविधता की देहरी पर परिचय का दीपक है जो पाठक को आलोकित करने का सामर्थ्य रखता है। हाड़ा जी की लोक-केंद्रित आलोचना-दृष्टि भी इसमें स्पष्ट झलकती है।
संपर्क : शोधार्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय। 9818018494, ईमेल-sahilkairo99@gmail.com
[i] नारंग, गोपीचंद : संरचनावाद, उत्तर-संरचनावादऔर प्राच्य-काव्यशास्त्र; साहित्य अकादेमी, दिल्ली; पुनर्मुद्रण 2014; पृष्ठ संख्या—53
[ii] शुक्ल, आचार्य रामचंद्र : हिंदी साहित्य काइतिहास; लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद; छठवाँ लोकभारती संस्करण : 2009; ‘काल विभाग’ से.
[iii] द्विवेदी, आचार्य हजारीप्रसाद : हिंदी साहित्य : उद्भव और विकास; राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली; संस्करण : 2008; पृष्ठ सं. 65.
[iv] चतुर्वेदी, आचार्य रामस्वरूप : हिंदी साहित्य औरसंवेदना का विकास; लोकभारती प्रकाशन; छठा संवर्द्धित संस्करण 1996; पृष्ठ संख्या—31.
[v] हाड़ा, माधव : पचरंग चोलापहन सखी री; सेतु प्रकाशन, दिल्ली; प्रथम संस्करण 2021; पृष्ठ सं. 38.
[vi] पूर्वोक्त, पृष्ठ सं. 11 & 14.
[vii] पूर्वोक्त, पृष्ठ सं. 41.
[viii] पूर्वोक्त, पृष्ठ सं. 55-56.
[ix] पूर्वोक्त, पृष्ठ सं. 55-56.
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